Home India News यूपी में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण : समाजवादी पार्टी आखिर करना क्या चाहती है?

यूपी में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण : समाजवादी पार्टी आखिर करना क्या चाहती है?

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की कोई घोषणा नहीं हुई है, लेकिन भाजपा और सपा के बीच की टक्कर साफ़ देखी जा सकती है. कैराना मसले पर भाजपा का एक दल कैराना पहुंचने वाला था. यह दल पहुंचा और इसे भारी विरोध झेलना पड़ा. इसके बाद राजद, जदयू और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसे दल भी ठीक अगले दिन कैराना पहुंच गए.

इन सबके बीच सपा की स्थिति पर अभी भी अन्धेरा गहराया हुआ है. कैराना मसले पर समाजवादी पार्टी ने बेहद प्रशासनिक तरीके से काम किया. जो भी बयान आए, प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमलों की ओर से आए. इनमें कहीं भी ‘पार्टी’ की उपस्थिति नहीं दिखी. वहीँ प्रदेश में सपा को टक्कर दे रही भाजपा ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में बाकायदे कैराना को एक मसले में तब्दील कर दिया. इस पर भाजपा के नेताओं ने तो बोला ही, साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कैराना के मामले को गंभीर और चिंताजनक करार दिया.

इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक कैराना की सीमाएं सील कर दी गयी थीं और भाजपा की दो प्रस्तावित रैलियों को खारिज कर दिया गया था. इन रैलियों में भाजपा के विवादित विधायक और मुजफ्फरनगर दंगों के कथित आरोपी संगीत सोम शिरकत करने वाले थे. हाल में कैराना से जुडी हिन्दू भावनाओं को देखते हुए समाजवादी पार्टी समर्थित हिन्दू संतों का एक दल कैराना गया है, जिसकी रिपोर्ट प्रदेश सरकार देखेगी.

हालांकि कैराना एक अकेला मुद्दा नहीं है. कैराना के कुछ दिनों पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में साम्प्रदायिकता की आंच कुछ धीमी पड़ी है. यहां पर भी हिन्दू जातियों ने मुस्लिम जातियों पर हमला कर दिया था. मुस्लिम बस्ती के बाहर पुलिस लगायी गयी थी और उन्हें घरों से बाहर निकलने से रोका जा रहा था, लेकिन हिन्दू बस्ती के साथ ऐसी किसी तरह की सख्ती नहीं की गयी थी. आजमगढ़ को भी राजनीतिक रूप से भुनाने का बड़ा प्रयास किया गया. भाजपा के फायरब्रांड सांसद योगी आदित्यनाथ ने ऐलान कर दिया कि वे आजमगढ़ जाएंगे और हिन्दुओं से मिलेंगे. यहां के पूर्व भाजपा सांसद रमाकांत यादव पर पहले से आरोप हैं कि उन्होंने मामले को भड़काने में कोई कसार नहीं छोड़ी. यहां पर भी प्रशासनिक तरीके से प्रदेश सरकार ने मुद्दे को हैंडल किया.

आजमगढ़ के कुछ दिनों बाद मथुरा में हुई हिंसा से भी यही सवाल उठ रहे हैं कि यूपी में समाजवाद एक सरकार की तरह तो मौजूद है, लेकिन उसका राजनीतिक और वैचारिक स्वरुप नदारद है. ऐसे में कई मौकों पर समाजवादी पार्टी की नीयत संदिग्ध होती नज़र आ रही है. राजनीतिक विचारक इसे ‘समाजवाद की चुप्पी’ करार दे रहे हैं.

कुल मिलाकर प्रश्न यह है कि आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र समाजवादी पार्टी अपने राजनीतिक स्वरुप या कह लें चुनावी स्वरुप में कब आएगी. क्योंकि अभी की कार्रवाईयों को देखकर लगता है कि समाजवादी पार्टी अभी अपने प्रशासनिक स्वरुप में ही है, और इसे देखकर अभी सपा की चुनावी मुस्तैदी पर प्रश्न खड़े हो रहे हैं.

इस मामले में सपा के राजेन्द्र चौधरी से हमने बात करने की कोशिश की. राजेन्द्र चौधरी इस मामले में कोई पुख्ता बयान देने में असफ़ल रहे. पहले तो बातचीत में उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार समाजवादी पार्टी के साल 2012 के घोषणापत्र के मुताबिक़ काम कर रही है. फिर वे इस बात से मुकर गए और कहा कि पार्टी और सरकार का एजेंडा साफ़-साफ़ अलग है और वे सिर्फ पार्टी के प्रवक्ता हैं, न कि सरकार के.

जब TwoCircles.net ने उनसे पूछा कि ऐसे में जब सभी राजनीतिक स्तर पर बात कर रहे हैं, समाजवादी पार्टी का एजेंडा और काम करने का तरीका प्रशासनिक क्यों है? इसके बाद वे अपनी ही बात में उलझ गए. उन्होंने पहले कहा, ‘राज्य सरकार पार्टी के एजेंडे और घोषणापत्र पर ही काम कर रही है. नरेंद्र मोदी ने इलाहाबाद में पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के फोरम का गलत फायदा उठाया है.’ कैराना के मुद्दे पर चौधरी ने कहा, ‘भाजपा और साम्प्रदायिक ताकतें कैराना को एक मुद्दा बनाकर तनाव पालना चाह रही हैं, लेकिन ऐसा है ही नहीं.’ इसके बाद वे अपने ही बयान से पलट गए और आख़िरकार चुनावों को लेकर समाजवादी पार्टी का रुख स्पष्ट करने में असफ़ल रहे.

इस बाबत हमने समाजवादी विचारक, पत्रकार और लेखक नरेंद्र नीरव से बात की. समाजवादी पार्टी की मूल विचारधारा और उसकी मूल खामियों को बताते हुए नरेंद्र नीरव कहते हैं, ‘देखिए! राममनोहर लोहिया अम्बेडकर को बहुत मानते थे. उनके विचारों से बहुत सहमंत भी थे. लेकिन समाजवादी पार्टी ने सबसे पहले अम्बेडकर को विदा किया और उसके बाद दलितों को भी छोड़ दिया. एक तरह से इन्होंने अम्बेडकर और दलितों को थाली में सजाकर बहुजन समाजवादी पार्टी को भेंट कर दिया. चुनाव के ज़रिए देखें तो पार्टी के पास अभी भी समय है, वे चाहें तो ऐसा कर सकते हैं.’


Narendra Neerav
समाजवादी चिन्तक, पत्रकार और लेखक नरेन्द्र नीरव

पार्टी की राजनीतिक चुप्पी देखते हुए नरेंद्र नीरव कहते हैं, ‘ये बात तो सच है कि पार्टी का स्वरुप प्रशासनिक हो गया है. पार्टी में बहुत ज़्यादा अनिर्णय की स्थिति है. वे अपने पार्टी के एजेंडे के साथ सामने नहीं आ रहे हैं और उनका प्रशासनिक स्वरुप ऐसा है कि उससे जनता में रोष बढ़ रहा है.’ ताजा उदाहरणों के मद्देनज़र में वे कहते हैं, ‘आप कैराना का मुद्दा लीजिए. इस मुद्दे पर सरकार की मुस्तैदी जो रही हो, लेकिन पार्टी की उदासीनता से मामला साम्प्रदायिक ताकतों के पक्ष में होता गया. उन्होंने उसे विधानसभा चुनावों का मुद्दा बना दिया.’

हाल में ही हुए मथुरा में हुई हिंसा के बाद लगभग उत्तर प्रदेश सरकार की कार्रवाई की तारीफ़ हो रही थी. बाद में कुछेक खबरों के माध्यम से आई खबरों को देखें तो पता चल जाता है कि मथुरा में हुई हिंसा बहुत पहले मुस्तैदी से रोकी जा सकती थी. इसके बाद की पुलिसिया कार्रवाई पर भी सवाल उठ रहे हैं. प्रशासनिक कार्रवाइयों की आलोचना करते हुए वे कहते हैं, ‘पहले किसी को इतनी शह दे दो. फिर पुलिसिया कार्रवाई कर दो. पहले धरने और प्रदर्शन के समय पुलिस बात करती थी और मामले को हल करती थी. अभी हम लोग आए दिन लाठीचार्ज की खबरें सुन रहे हैं. पुलिस क्राइम को छोड़कर सबकुछ हल कर रही है. अवैध शराब और वाहन चेकिंग जैसे मामले इनसे सम्बंधित विभागों के हैं, लेकिन इनमें पुलिस लगी हुई है. यह तो इनकी प्रशासनिक कार्रवाई का स्वरुप है. एक तरफ से राजनीतिक रूप से चुप हैं और प्रशासनिक कार्रवाई का आलम आप देख ही रहे हैं.’

पार्टी के कामकाज पर टिप्पणी करते हुए नरेन्द्र नीरव कहते हैं, ‘सरकार ने काम तो किया है, लेकिन वे उसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. उसे जनता को बाकायदे दिखा नहीं पा रहे हैं कि इन्होंने किया क्या है? इन्हें यदि चुनाव जीतना है तो ‘उत्तर प्रदेश सरकार’ के बैनर से बाहर भी चीज़ों को देखना होगा. उलटा इनके बारे में जो खबरें फ़ैल रही हैं, उन्हें प्रदेश सरकार की उपलब्धि करार दिया जा रहा है. दरअसल इस चुप्पी से सबसे अधिक फायदा भाजपा और दूसरी पार्टियों को ही मिल रहा है. मुस्लिम इनके साथ थे, वे अब इनको छोड़कर चले गए बसपा के पास. हिन्दू भाग रहे हैं भाजपा के पास. साम्प्रदायिक मुद्दों पर सपा को बात करनी चाहिए, लेकिन पार्टी के बजाय अभी सरकार बात कर रही है.’

नरेंद्र नीरव कहते हैं कि अखिलेश यादव एक अच्छे मुख्यमंत्री हैं, उनके पास विज़न है. लेकिन उनके मंत्रिमंडल के नेताओं की वजह से चीज़ें गड़बड़ हो रही हैं, जिसका बोझ पार्टी को उठाना होगा.

देखने में भले ही यह छोटा मुद्दा लगे लेकिन उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले चुनावों में ‘समाजवाद की चुप्पी’ पार्टी को भारी पड़ सकती है.