भलनी : यहां पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं सरकारी योजनाएं…

Nazmul Hafiz for TwoCircles.net

बीमारू राज्यों की क़तार में बिहार का नाम अव्वल है. जो लोग राजधानी पटना देखकर लौट जाते हैं, उनके दिलो-दिमाग में बिहार की तस्वीर सेहतमंद राज्य की बनी होगी.


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लेकिन मेरे ख्याल से ऐसा कहना एक छलावा होगा. बिना गांव की हालत जाने मुकम्मल तस्वीर कभी नहीं बन सकती. बिहार का मधुबनी ज़िला कला और संस्कृति के क्षेत्र में भले ही ब्रांड माना जाता हो, लेकिन सच्चाई यह है कि यहां भी कई जिंदगियां दो जून की रोटी के लिए तरस रही हैं.

इस वक़्त मैं मधुबनी ज़िले के करमौली पंचायत में कलुवाही ब्लॉक स्थित भलनी गांव में हूं. आंखों के सामने वह नज़ारा है, जो न सिर्फ़ गांव के गुलाबी मौसम के ख्याल को तोड़ता है, बल्कि सरकारी योजनाओं के दावे की क़लई भी खोलता है.

मेरे आंखों के सामने भव्यता नहीं, बल्कि एक वीभत्स नज़ारा है. 75 वर्षीय मंसूर नदाफ़ एक टूटी चारपाई पर लेटे हैं. उनकी 14 वर्षीय बेटी रमज़ा खातून मुझे देखते ही सलाम करती हैं. मंसूर की 64 वर्षीय अनीसा खातून घरेलू काम में मसरूफ़ हैं.

औपचारिकता के बाद परिवार से रू-ब-रू होता हूं. सभी मुझे सहज करने की कोशिश में असहज जान पड़ते हैं. कच्ची दीवारों से घिरा छोटा सा आशियाना. मैनें घर के भीतर चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई. जिंदगी जितने में चलाई जा सके उतना भी समान नहीं दिखा.

कांपते और बूढ़े हाथों से अनीसा खातून ने पानी से भरा गिलास पकड़ाया. बेटी और पिता मेरे सामने बैठ गए. लंबे अरसे से जिनका कोई पुरसाने-हाल न लेने गया हो, वहां मेरा पहुंचना उनके उम्मीदों के चिराग़ को जला रहा था. मैंने एक तस्वीर खींच ली. इसके बाद जो बातचीत में निकला वह जम्हूरियत का मज़ाक़ उड़ाता जान पड़ा…

Bhalni

भूमिहीन मंसूर ने उम्र की एक बड़ी पारी मज़दूरी में गुज़ारी. जब शरीर ने साथ देना छोड़ दिया तो उनकी बीबी अनीसा खातून ने उनका हाथ बंटाना शुरू किया. अब मंसूर और बेटी रमज़ा खातून की रोटी का जुगाड़ अनीसा खातून ही करती हैं.

बातचीत के दरम्यान अनीसा खातून बताती हैं कि बाबू खेत-खलिहान में काम मिलता नहीं, जो चिरौरी और मिनती पर काम मिलता भी है, तो दो जून की रोटी भर के लिए मज़दूरी नहीं मिलती. उम्र तो मेरी भी जवाब दे चुकी है, लेकिन क्या किया जाए… साहब बीमार हैं और बेटी इसकी अभी उम्र क्या है?

मैंने पूछ लिया –बिटिया पढ़ती है या नहीं? जवाब आया –क्या पढ़ाई-लिखाई… सरकारी मदरसा में पढ़ती है. अलग से व्यवस्था कर नहीं सकते बाबू जी. खाने का हो नहीं पाता पढ़ाई पर क्या ध्यान दिया जाए… एक क़र्ज़ा उतरता नहीं, दूसरा चढ़ जाता है… हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी कुछ नहीं बचता.

वृद्धा पेंशन लेते हैं आप लोग? उधर से एक साथ आवाज़ आई. –नहीं… हम लोग को कौन देगा? जिंदगी गुज़र गई है बाबू. अब जितने दिन बचे हैं बस अल्लाह मालिक है… यही छोटी सी घर की ज़मीन है, जिसमें हम तीन लोग का गुज़र-बसर हो रहा है. दूसरे के घर मज़दूरी से जो जुटता है वह दवा-पानी खा जा रहा है.

मेरा अगला सवाल था कि बीपीएल सूची में नाम है आप लोगों का? सभी फिर से एक साथ बोले –सूची में नाम होने से क्या होता है. आज तक कोई फ़ायदा हमें नहीं मिला. बाबू आज तक न कोई पूछने आया न हम किसी को बता पाए. कोई नहीं सुनता हमारी… अब बस यही है जब तक हाथ-पांव चल रहा है तभी तक है. आगे का हम नहीं जानते… न कोई आसरा दिखता है.

हर सवाल का जवाब नहीं. क्या वाक़ई अंतिम आदमी तक नीतियों का फ़ायदा पहुंच रहा है. बिहार सरकार और केंद्र की सरकार दोनों तो यही वादा करते हैं कि हाशिए पर खड़े आदमी तक वे अपनी नीतियों का फ़ायदा पहुंचाएंगे. क्या मधुबनी के भलनी गांव तक पहुंचते-पहुंचते नीतियां अपना असर खो देती हैं या फिर नीतियों को अमल में लाने वाली मशीनरी इसे बीच में ही डकार जाती है.

क़लम और कागज़ समेटेत हुए मैं उस छोटे से आशियाना से निकल आया. सामने बैठे परिवार को जैसे किसी दिलासे की उम्मीद थी. मैं चुप्पी बांधे बाहर निकला. मन में यही सवाल बना रहा –आखिर मंसूर और अनीसा के दर्द से कौन राब्ता क़ायम करेगा…

लेखक नजमुल हफ़ीज़ जन सरोकारी कार्यो के लिए समर्पित हैं. ‘मिसाल नेटवर्क’ के साथ जुड़े हैं. इनसे 7739310121 पर संपर्क किया जा सकता है.

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