जावेद अनीस
विदेशों में सभी परिवार घरेलू सहायक अफोर्ड नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनकी पगार बहुत ज्यादा होती है, लेकिन भारत में कामवाली बाई रखना बहुत सस्ता है. भारत में घरेलू कामगार महिलायें अदृष्य-सी हैं. उनके काम का कोई आर्थिक और सामाजिक महत्त्व नहीं है, हालांकि इन दोनों ही क्षेत्रों में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक भारत में करीब छह करोड़ घरेलू कामगार महिलाएं हैं. राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएसओ) 2004-05 के अनुसार देश में लगभग 47.50 लाख घरेलू कामगार हैं. इस क्षेत्र में जिस तेजी़ से बढ़ोत्तरी दर्ज हो रही है उस लिहाज से वर्तमान में इनकी संख्या काफी बढ़ चुकी होगी.
भारत में घरेलू कामगारों का लम्बा इतिहास है. परम्परागत रूप से पहले महिला और पुरुष दोनों ही नौकर के तौर पर काम करते रहे हैं. जाति से इसका गहरा संबंध रहा है. वंचित जातियों के लोगों से साफ-सफाई का काम कराया जाता था, जबकि किंचित ऊंची जातियों से खाना बनाने का काम कराया जाता था. हालांकि भारत में घरेलू काम नया पेशा नही है लेकिन इसे मात्र सामंतवादी संस्कृति के नौकरों के तौर पर नही देखा जा सकता था. शहरी क्षेत्रों में तो ज्यादातर महिलायें ही घरेलू कामगारों के तौर पर काम करती हैं. इनमें से अधिकांशतः ऐसी हैं जो गांवों से पलायन कर रोजगार की तलाश में शहर आती हैं. शहरी मध्यवर्ग को घरेलू काम व बच्चों की देखभाल के लिए घरेलू कामगारों की जरूरत पड़ती है और वे इस जरूरत को पूरा करती हैं. आमतौर पर ये महिलायें कमजोर जातियों से होती हैं और कम पढ़ी-लिखी या अशिक्षित होती हैं और इसी वजह से उनके पास घरेलू कामगार बनने जैसी सीमित कामों का ही विकल्प होता है.
काम के बदले कम वेतन प्राप्त कर रही इन महिलाओं को कमतर माना जाता है. यह भी सचाई ही है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव भी होते हैं. कानूनी रूप से भी उन्हें श्रमिक का दर्जा नहीं मिल सका है. घरेलू कामगार जटिल परिस्थितियों का सामना करते हैं. उनके श्रम का अवमूल्यन उन्हें सामाजिक और आर्थिक तौर पर निम्न स्तर पर रखता है. कार्यस्थल पर इन्हें कम मजदूरी, काम का समय तय ना होना, कम पैसे में ज्यादा काम करना, नियोक्ताओं का गलत व्यवहार, शारीरिक व यौन-शोषण जैसी समस्याओं को झेलना पड़ता है. एक अध्ययन के अनुसार घरों में काम करने वाले कामगार किसी न किसी तरीके से प्रताड़ित होते रहते हैं. महिला बाल विकास विभाग द्वारा 2014 में संसद में दी गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2010 से 2012 के बीच देश में घरेलू कामगारों के प्रति अपराध के 10,503 केस दर्ज हुए है जिसमें अकेले साल 2012 में 3564 मामले दर्ज हुए.
भारत में विशिष्ट कानूनों का अभाव,शिक्षा और कौशल की कमी और समाज में व्याप्त सामंतवादी मानसिकता के कारण घरेलू कामकाजी महिलाओं की यह स्थिति बनी है. सरकार द्वारा उनके काम को श्रम की श्रेणी में स्वीकार नही किया गया है और इसे समाज और अर्थव्यवस्था में योगदान के तौर पर मान्यता नही दी जाती है. घरेलू कामगारों को संगठित करने वाले ट्रेड यूनियन और संगठन लगातार उनके पक्ष में एक कानून बनाने को लेकर सरकार पर दबाव डाल रहे हैं ताकि उनकी परिस्थितियों में सुधार हो और उन्हें सम्मान, उचित वेतन, अवकाश, बोनस आदि मिल सके.
‘निल बट्टे सन्नाटा’ फिल्म इसी तरह की एक कामवाली बाई और उसकी बेटी की कहानी है. 1 घंटे 40 मिनट की यह फिल्म आदर्शवादी या लेक्चर झाड़ने वाली फिल्म न हो कर आपको रोजमर्रा की जिंदगी से सामना कराती है और वास्तविक जीवन में चीजें और घटनायें जिस रूप में हो सकती हैं, उन्हें उसी तरह दिखाने की कोशिश करती है.
कहानी की पृष्ठभूमि में ताजमहल के लिए मशहूर शहर आगरा है. जहां किसी एक बस्ती में चंदा सहाय (स्वरा भास्कर) अपनी बेटी अपेक्षा उर्फ अप्पू (रिया शुक्ला) के साथ रहती है. चंदा एक सिंगल मां है जो बड़े लोगों के घरों में जाकर काम करती है. उसे अपनी बेटी से बड़ी अपेक्षाएं है, शायद इसीलिए वह उनका नाम ‘अपेक्षा’ रखती है. चंदा अपने बेटी के भविष्य के लिए बहुत चिंतित है और नहीं चाहती कि उसकी बेटी को भी उसी की तरह नौकरानी बनकर रहना पड़े. हर गरीब की तरह वह भी चाहती है कि उसकी बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाए, इसीलिए वह अक्सर अपनी बेटी से पूछती रहती है कि ‘बेटा अप्पू तू पढ़-लिख कर क्या बनेगी?’ वह खुद उसे डॉक्टर या इंजीनयर बनाना चाहती है इसीलिए वह घरों में काम के अलावा एक चमड़े के जूते की फैक्ट्री में भी काम करने लगती है. अप्पू एक तरह से उसका सपना है .
इधर हर बच्चे की तरह अप्पू भी अपनी ही दुनिया में मस्त रहती है. पढ़ाई से ज्यादा उसका मन मस्ती में लगता है, उसे अपनी मां के सपने से कोई फर्क नहीं पड़ता है और वह इस पर ज्यादा ध्यान भी नहीं देती है. उसे लगता है कि जिस तरह से इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बनता है और डॉक्टर का बेटा डॉक्टर उसी तरह से बाई की बेटी बाई ही बन सकती है. उसे तो यह भी लगता है कि उसकी मां अपने सपने उस पर थोप रही है. उसके दिमाग में यह कड़वी सचाईभी है कि अगर वह मैट्रिक पास भी हो जाए तो उसकी मां के लिए उसे आगे पढ़ना आसन नहीं होगा. अप्पू गणित में ‘निल बट्टे सन्नाटा’ यानी काफी कमजोर है, इसलिए जब वह दसवीं क्लास में पहुँचती है तो उसकी मां को काफी चिंता होने लगती है. चंदा जिस डॉक्टर दीवान (रत्ना पाठक शाह) के यहां काम करती है, उनकी सलाह पर चंदा अपनी बेटी को प्रेरित करने उसी स्कूल में दाखिला लेती है जहां अपेक्षा पढ़ती है. यहाँ दोनों का सामना खुशमिमाज और मेहनती प्रिंसिपल (पंकज त्रिपाठी) से होता है जो गणित पढ़ाते हैं. एक ही क्लास में पढ़ते हुए दोनों के बीच एक अजीब-सा तनाव पैदा हो जाता है. यही तनाव फिल्म को अपने अंजाम तक ले जाती है
निर्देशक के तौर पर ‘निल बट्टे सन्नाटा’ अश्विनी अय्यर तिवारी की पहली फिल्म है. वे एड मेकिंग से फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में आई हैं, सबकुछ रियलस्टिक रखते हुए उन्होंने रोजमर्रा की आम जिंदगी को बहुत खूबसूरती से पर्दे पर उतारा है.वे उम्मीद जगाती हैं. फिल्म की शूटिंग आगरा में की गयी है लेकिन एक भी क्षण ऐसा नहीं हैं जहाँ फोकस ताजमहल पर जाता हो. एकाध सीन में अगर यदि ताजमहल नज़र भी आता है तो किसी नेपथ्य में. धुंधला और अपने आप में सिमटा-सा. मानो मानो वह फिल्म के लिए उतना ज़रूरी न हो. न कथा के लिए.
यह साधारण कहानी है. जहां सपने और हकीकत एक साथ चलते हैं. जहां आम जीवन की तरह एक गरीब मां गुरबत से बाहर निकलने के लिए अपनी बेटी के जरिये एक सपना देखती है. फिल्म कोई रुपहला छलावा नहीं रचती है. फिल्म का टोन आम भारतीयों के जीवन जैसा है जो अपनी तमाम मुश्किलों और संघर्षो से भरे जीवन के बीच मुस्कराने और खुश होने के लम्हे ढूंढ ही लेते हैं.
आखिर में यह एक बाई की कहानी है, जिसकी समस्याओं को आम जिंदगी में कोई भी देखना और समझाना नहीं चाहता है. उसे कामवाली बाई से घरेलू सहायिका की स्थिति तक पहुँचने के लिए लम्बा सफर तय करना होगा ताकि इस काम को करते हुए वह अपने आप को कमतर महसूस ना कर सके.