अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पत्रकारिता के मौजूदा परिवेश को लेकर यूपी, छत्तीसगढ़, हरियाणा के बाद अब झारखंड और बिहार से सामने आई तस्वीर जितनी दर्दनाक है, उतनी ही सोचने पर मजबूर करने वाली भी है. घटनाक्रम से यह साफ़ है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा खतरे में है.
बड़े नामों को छोड़ दें तो पत्रकारिता एक ऐसा पेशा नहीं है, जहां पैसे और नाम बेतरह मिलते हों. लेकिन यह तथ्य है कि आज के दौर का पत्रकार सिस्टम के निशाने पर है. ग़रीबी और तंगहाली से अगर पत्रकार खुद की जान बचा भी लेता है तो सिस्टम का माफ़िया उसे चैन से जीने नहीं देगा. पिछले 24 घंटों में लगातार दो घटनाएं सामने आईं और पत्रकारों के बदहाली के सच से पर्दा उठाकर चली गईं.
जैसा हरेक मामले में होता है, हर बार की तरह इस बार भी कुछ पत्रकारों ने सरकार का विरोध शुरू कर दिया है. कहीं कैंडल मार्च निकाला जाएगा, कहीं पत्रकार तीन दिनों तक काला बिल्ला लगाकर घुमेंगे तो कहीं कुछ पत्रकार अख़बारों में मार्मिक अंदाज़ में अपने लेख व कॉलम लिखेंगे. राजनीतिज्ञ भी इन पत्रकारों से कई क़दम आगे बढ़कर अपना राजनीतिक क़द बढ़ाने की कोशिश करेंगे. ये लोग पत्रकारों के घर जाकर मुआवज़े का ऐलान करने और सांत्वना देने में आगे रहेंगे. मुख्यधारा मीडिया का सबसे बड़ा हिस्सा इन्ही चीज़ों के पीछे भागेगा.
यह मुद्दा विचारणीय है कि झारखंड में हुई पत्रकार अखिलेश की हत्या की सूचना तक़रीबन 10-12 घंटों तक सिर्फ़ फेसबुक पर कुछ लोगों के टाईमलाईन पर ही दिखती है, लेकिन जैसे ही शाम में सीवान में एक पत्रकार की हत्या होती है. एक घंटे के भीतर ही सीवान ट्विटर पर ट्रेंड करने लगता है. ख़बर लीड बन जाती है. भाजपा के प्रवक्ता के ट्वीट आ जाते हैं. गुंडाराज-गुंडाराज का शोर सुनाई देने लगता है. यह एक अजीब मुद्दा है कि यह कहां से तय होता है कि कौन-सी हत्या गुंडाराज है और कौन-सी रूटीन क्राइम?
इससे भी ज्यादा रोचक बात यह है कि कभी हमेशा मीडिया की सुर्खियों में रहने वाले लालू यादव भी झारखंड के चतरा में हुए पत्रकार की मौत के कुछ घंटों के बाद ही पत्रकार के घर पहुंचते हैं. लेकिन लगभग-लगभग सभी मीडिया चैनलों और प्रकाशकों के कूचे से यह ख़बर नदारद रही.
टीवी चैनलों के डिबेट में छत्तीसगढ़ के पत्रकारों पर कोई संवाद नहीं किया जाता है. जबकि एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की एक फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम की जांच में यह बात सामने आ चुकी है कि छत्तीसगढ़ में पुलिस पत्रकारों को गढ़े हुए आरोपों में गिरफ़्तार करने और धमकाने का काम कर रही है. राज्य सरकार, ख़ासकर पुलिस की ओर से पत्रकारों पर वैसी ख़बरें छापने का दबाव बनाया जा रहा है, जैसी वे चाहते हैं या ऐसी ख़बरें रोकने को कहा जा रहा है जिन्हें प्रशासन अपने ख़िलाफ़ मानता है. Scroll.in के लिए बस्तर से रिपोर्टिंग कर रहीं मालिनी सुब्रमण्यम के घर पत्थर फेंके जाते हैं और उन्हें धमकाया जाता है, लेकिन सोशल मीडिया और मुट्ठी भर ख़बरनवीसों के यहां छोड़ दें तो यह ख़बर कहीं न चलती दिखती है.
इस मामले को लेकर छत्तीसगढ़ के पत्रकार जंतर-मंतर पर धरना भी दे चुके हैं. यही नहीं, झारखंड में पत्रकार सुरक्षा कानून शीघ्र बनाने की मांग को लेकर कई कार्यक्रम व धरना-प्रदर्शन हो चुका है. लेकिन शायद ही मेनस्ट्रीम मीडिया ने इसकी कहीं कोई चर्चा की हो.
पिछले दिनों फ़्रांस की एजेंसी ‘रिपोर्ट विदाउट बॉर्डर’ ने अपनी एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया था कि पत्रकारों की हत्या के मामले में भारत दुनिया के 3 सबसे ख़तरनाक देशों में शामिल है. इस सर्वे की मानें तो भारत में पत्रकारों की स्थिति अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों से भी बुरी हालत में है. लेकिन इस सच पर भी देश के मेनस्ट्रीम मीडिया ने पर्दा डालने का ही काम किया है.
यह सब कुछ उस दौर में हो रहा है जब दिल्ली के पत्रकार अपने सेलिब्रेटी स्टेटस के साथ ट्वीटर और फेसबुक की दुनिया में हज़ारों-लाखों लाइक बटोरने के कारोबार में मसरूफ़ हैं, वहीं ज़मीन पर क़लम की लड़ाई लड़ते पत्रकार सत्ता और माफ़िया के अपराधी-तंत्र के आगे अपनी जान गंवाने को मजबूर हैं.
कड़वा सच यह है कि पत्रकारों के शोषण का एक पहलू उनके ही मीडिया संस्थानों से जुड़ा हुआ है. यह मीडिया संस्थान ही उन्हें मौत के मुंह में धकेलने को मजबूर कर रही हैं. तमाम मीडिया संस्थानों के मालिक अब पूंजीपति बन चुके हैं या यूं कहें कि अब तो पूंजीपति ही देश के तमाम मीडिया संस्थानों के मालिक हैं. इनके लिए मीडिया मुनाफ़ा कमाने की मशीन से अधिक कुछ नहीं है और इस मुनाफ़े की चक्की में सबसे अधिक छोटे शहर का एक आम पत्रकार ही पिस रहा है. हालत तो यह है कि छोटे शहरों के पत्रकारों के पास न तो अच्छी तनख्वाह का अवसर है और न ही सधी और निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने का. पत्रकारों की तनख्वाह इतनी कम है कि एक दिहाड़ी मजदूर भी इससे अधिक खा-पीकर बचा लेता है. कई मीडिया संस्थानों में तो इन पत्रकारों को 6-6 महीने तक कोई सैलरी नहीं मिलती है.
लेकिन वहीं इन्हीं पत्रकारों के कंधों के सहारे पर मीडिया संस्थानों के मालिकों ने अपनी पूंजी और चमक-दमक का एक विशाल तंत्र खड़ा कर रखा है और यह तंत्र दिनों-दिन विकराल होता जा रहा है.
मगर बेचारे यह पत्रकार अपने परिवार का पेट पालने के लिए सौ-सौ रूपये तक की ‘दलाली’ करने पर मजबूर हैं. इसका अनुभव मुझे बिहार चुनाव कवरेज के दौरान विशेष तौर पर हुआ. मुझे याद है कि जब मैंने एक पत्रकार से उसकी चमक-दमक देखकर पूछा था कि आपको कितनी सैलरी मिलती है तो उसने हंसते हुए कहा था, ‘सर मिलती नहीं, देनी पड़ती है. हम कम्पनी को सैलरी देते हैं.’ मेरे लिए यह शब्द काफी चौंकाने वाले थे. उन्होंने विस्तारपूर्वक बताया था, ‘हमें महीने में लाखों का विज्ञापन देना पड़ता है. उसके बदले ही थोड़ा-बहुत कमीशन मिल जाता है. बाकी घर चलाने के लिए ‘सलाम कराई’ से काम चल जाता है.’ ये ‘सलाम कराई’ क्या होती है? इसी सवाल पर वे ज़ोर से हंस पड़ते हैं, ‘क्या कहा ‘सलाम कराई’ नहीं जानते? अरे जैसे नए-नवेले दुल्हे के सलाम करने पर ‘सलाम कराई’ मिलता है, ठीक वैसे ही हम भी विज्ञापन के चक्कर में लोगों की उल्टी-सीधी ख़बरें लगाते हैं और उनकी जी-हजूरी करते हैं. बार-बार सलामी ठोंकते हैं.’
ये घटना पूरी पत्रकारिता जगत का सच खोलने के लिए काफी है. सच तो यह है कि कुछ छोटे शहरों में पत्रकारों का स्तर इतना गिर चुका है कि आने वाले कुछ सालों के बाद आम जनता ही इन पत्रकारों को पकड़कर खुलेआम मारना शुरू कर देगी.
बड़ा सवाल यह है कि झारखंड व बिहार की इन दो घटनाओं के बाद भी क्या मीडिया सबक़ लेने को तैयार है? क्या मीडिया अपने ही गिरेबां में झांकने की हिम्मत रखता है? क्या मीडिया संस्थानों के मालिक सत्ता की चाटुकारिता व दलाली छोड़कर जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता करने वाले आम पत्रकारों के साथ कभी खड़े होंगे? इन सवालों का जवाब बिना किसी देर के आना चाहिए ताकि पत्रकारिता एक अमन-पसंद पेशा बना रहे, ताकि कल देश के दूसरे हिस्सों में एक और अखिलेश या राजदेव न मारा जाए.