फहमिना हुसैन, TwoCircles.net
भारत में कुपोषण की शुरुआत मां के गर्भ से ही हो जाती है. गर्भवती महिलाओं को जीवन भर पौष्टिक भोजन का अभाव बना रहता है. इससे न केवल व्यक्तिगत स्तर पर स्वास्थ्य की हानि होती है बल्कि भावी पीढ़ी को भी क्षति पहुंचने की आशंका बनी रहती है. जब भूख और गरीबी राजनीतिक एजेंडों की प्राथमिकता नहीं होती, तब ‘कुपोषण’ नाम की यह बीमारी असल रूप में सामने आती है.
फाइट हंगर फाउंडेशन और एसीएफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुपोषण जैसा विकराल रूप पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं भी देखने को नहीं मिला है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) अत्यधिक कुपोषण के शिकार हैं.
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट(इफ्री) ने ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई)- द चैलेंज ऑव हंगर’ नाम से भूखमरी पर केंद्रित एक रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में खासतौर से वित्तीय संकट और लैंगिक असमानता के कोण से भुखमरी की समस्या पर विचार किया गया है. इस रिपोर्ट का आंकलन है कि दक्षिण एशिया भूखमरी के वैश्विक सूचकांक(जीएचआई) के हिसाब से 23 अंकों के साथ सबसे ज्यादा बुरी स्थिति में है. भुखमरी के मामले में अफ्रीका के सबसे गरीब माने जाने वाले देश भी दक्षिण एशिया की तुलना में कहीं बेहतर (जीएचआई-22.1) स्थिति में हैं. दक्षिण एशिया में साल 90 के दशक से हालात थोड़े बेहतर हुए हैं.
रिपोर्ट के अनुसार उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में राजनीतिक अस्थिरता, लचर सरकारी तंत्र, जातीय दंगे-फसाद और एचआईवी एड्स के मरीजों की बढ़ती संख्या के कारण एक तरफ तो शिशु मृत्यु दर ज्यादा है, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्हें रोजाना इतना आहार भी नहीं हासिल होता कि वे कैलोरी की मानक मात्रा का उपभोग कर सकें. दक्षिण एशिया में भुखमरी की स्थिति के साथ कुछ और ही कारण नत्थी हैं. इस क्षेत्र में एक बात है महिलाओं की शैक्षिक, सामाजिक और पोषणगत बदहाली. नतीजतन इस क्षेत्र में औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या (पांच साल तक उम्र के) भी ज्यादा है.
भारत के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि दो वर्षों के दौरान, केन्द्र प्रायोजित सामाजिक योजनाएं – समेकित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस), सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन – के लिए आवंटित राशि में 10 फीसदी, 7.5 फीसदी और 3.6 फीसदी की कमी हुई है. बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए राष्ट्रीय पोषण मिशन के लिए 850 करोड़ रुपए (130 मिलियन डॉलर) दिए गए हैं जो साल 2015-16 के मुकाबले दोगुना है.
इतना ही नहीं आईसीडीएस, मातृ एवं शिशु देखभाल के लिए दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम, के लिए राशि में कटौती की गई है, वो भी तब जब भारत में 42 फीसदी बच्चों का वज़न और 40 फीसदी बच्चों का कद सामान्य से भी कम है.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में प्रति वर्ष 6 लाख बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हो जाती है. सरकार और उसके नुमाइन्दों द्वारा आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि कुपोषण की समस्या का मूल कारण आबादी है. लेकिन अगर हम अपनी तुलना चीन से करेंगे तो हमारी सरकार और उसके नुमाइन्दों का तर्क हमें खोखला और बेकार लगने लगता है.
सरकार ने बच्चों में कुपोषण को दूर करने के लिए कई योजनायें और जागरूकता कार्यक्रम भी चलाये हैं. छह वर्ष तक के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए ‘समेकित बाल विकास योजना’ शुरू की गई. केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधीन खाद्य एवं पोषण बोर्ड लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाने के लिए हर साल 1 से 7 सितंबर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह आयोजित करता है. इस वर्ष भी इस सप्ताह के दौरान देश भर में कार्यशालाओं, शिविर, प्रदर्शनी आदि का आयोजन कर लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाया जाएगा. लेकिन लगातार कुपोषण से हो रही मौतों के आकड़े ऐसे प्रयासों, कार्यक्रमों और नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं.
विश्व बैंक की रिपोर्ट भी कहती है कि बच्चों की कुल मौतों में से आधी केवल न्यूनतम भोजन न मिलने के कारण होती हैं. मलेरिया, डायरिया और निमोनिया से होने वाली बाल मृत्यु की घटनाओं के लिए कुपोषण की स्थिति 50 फ़ीसदी से भी ज्यादा जिम्मेदार है. बहरहाल, कुपोषण से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी, क्योंकि यह एक बहुआयामी समस्या है. केन्द्र और राज्य सरकारों को जहां सामाजिक उत्थान वाली योजनाओं के तंत्र को दुरुस्त करना होगा, वहीं समाज में जागरूकता लानी होगी.
(आंकड़े और तथ्य कई स्रोतों से)