आस मोहम्मद कैफ, TwoCircles.net
मुज़फ्फरनगर: गुर्जर एक वफादार क़ौम है और दमदार भी. एक मशहूर गुर्जर नारा है ‘गुर्जर गुर्जर एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन दोनों ही धर्मों से जुड़े गुर्जर पाए जाते हैं. कम लोग जानते होंगे कि भाजपा के कद्दावर गुर्जर नेता हुकुम सिंह के परिवार के लोग मुसलमान गुर्जर भी हैं. दिलचस्प बात यह है कि हुकुम सिंह और उस मुस्लिम गुर्जर परिवार में राजनीतिक उठापठक चला करती है. हुकुम सिंह भी इसी परिवार के साथ सियासी लड़ाई जारी रखना चाहते हैं. अगर कोई दूसरा गुर्जर परिवार उठने लगता हैं तो भी हुकुम सिंह राजनीति इसी परिवार तक रखने की कोशिश में लग जाते हैं.
हुकुम सिंह
इस पूरे मुद्दे को समझने के लिए कैराना और हुकुम सिंह का थोड़ा इतिहास जानना होगा. कैराना को उत्तर प्रदेश का गुर्जर कैपिटल कहा जाता है. यहां के अख्तर हसन बसपा सुप्रीमो मायावती को हराकर सांसद बने. चौधरी अख्तर हसन 84 गांव के चौधरी बुन्दू के बेटे थे. चौधरी बुन्दू और बाबू हुकुम सिंह आपस मे सगे चचेरे भाई रहे. एक परिवार ने इस्लाम अपना लिया. दोनो कलस्यन खाप से हैं.
मुनव्वर हसन
इस दौरान हुकुम सिंह ने खूब तरक़्क़ी की. 1991 मे चौधरी अख्तर हसन के बेटे मुनव्वर हसन ने अपने ‘दादा’ हुकुम सिंह को कैराना विधानसभा का चुनाव हराकर सनसनी फैला दी. मुनव्वर हसन अचानक से कैराना की पहचान बन गए. गिनीज़ बुक मे उनका नाम लिखा गया. मुनव्वर हसन चारोंसदन का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत के पहले नेता बने. मुनव्वर जब हादसे मे चल बसे तो चश्मदीद बताते हैं कि बाबू हुकुम सिंह भी खूब रोये.
कंवर हसन
सहानुभूति में मुनव्वर की पत्नी तबस्सुम हसन चुनाव जीत गयीं. दोनों परिवारों में राजनीति चलती रही. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में हुकुम सिंह ने कैराना लोकसभा सीट पर कब्ज़ा किया और हारने वाला प्रत्याशी था मुनव्वर का बेटा नाहिद हसन. मुनव्वर हसन के भाई कंवर हसन का बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ना इस हार की बड़ी वजह बना. इसके बाद मुनव्वर हसन के बेटे नाहिद ने विधानसभा उपचुनाव में हुकुम सिंह के भतीजे अनिल चौहान को हरा दिया.
हसन परिवार और हुकुम सिंह के बीच यह सियासी उठापठक अभी भी जारी है.
मंजे हुए राजनेता के रूप में हुकुम सिंह भी राजनीति अपने और हसन परिवार के बीच ही रखना चाहते हैं. इसी तरफ कांधला से लगभग 30 साल से भी ज्यादा विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले वीरेंद्र सिंह गुर्जर ने शामली जिले की राजनीति पर वर्चस्व कायम करना शुरू कर दिया. वीरेन्द्र के बेटे मनीष चौहान नए जिले शामली के जिला पंचायत अध्यक्ष बन गए. यह बात हुकुम सिंह की नज़र में आई. अगले जिला पंचायत चुनाव में हसन परिवार ने अपना वोट तो वीरेंद्र के पुत्र को दिया मगर हुकुम सिंह ने मनीष चौहान को हरवा दिया. शायद उन्हें लगा कि यदि अगर मनीष दोबारा जीत गया तो इस परिवार का शामली जिले की राजनीति पर दबदबा हो जाएगा और वीरेंद्र सिंह तीनों जिलों में गुर्जरों के सबसे बड़े नेता हो जाएंगे.
नाहिद हसन
राजनीति को हसन परिवार और अपने बीच रखने के लिए हुकुम सिंह अब एक मुद्दे की तलाश में थे. एक परिवार के होने के बावजूद अब हिन्दू-मुसलमान का तमगा लग चुका था. इस मौके पर हुकुम सिंह को सबसे ठीक मुद्दा मिला ‘पलायन’ का. हुकुम सिंह ने हिन्दुओं के कैराना से पलायन को मुद्दा बनाकर एक बार फिर राजनीति को अपने और हसन परिवार के बीच केन्द्रित कर लिया है. ‘पलायन’ के मुद्दे का सच जो हो, लेकिन यह तय है किइस मुद्दे के आने के बाद से आगामी विधानसभा चुनाव में हुकुम सिंह और हसन परिवार फिर एक बार आमने-सामने होगा. लड़ाई दिलचस्प होगी और ज़बरदस्त भी – लेकिन आखिर में यह परिवार का मामला है.