अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
झारखंड/छत्तीसगढ़: नोटबंदी ने आम लोगों को बेहाल कर रखा है. और जिनके पास काला धन है, वे रोज़ काले को सफ़ेद करने का नया तरीक़ा इजाद कर रहे हैं. नक्सल प्रभावित इलाक़े भी इन दिनों काले को सफ़ेद बनाने की प्रयोगशाला में तब्दील हो चुके हैं.
ख़बर है कि नक्सली अपने प्रभाव वाले इलाक़ों में ग़रीब आदिवासी ग्रामीणों में 500 और 1000 के नोट बांटकर उनके ज़रिए से पैसे बैंक में जमा करा रहे हैं, जिन्हें निश्चित अवधि के बाद बाहर निकाल लिया जाएगा.
इन ग़रीब आदिवासियों की मुसीबत यह है कि वे इन नक्सलियों को ना नहीं कर सकते हैं. आदिवासी थोड़े कमीशन की लालच में तो वहीं ज़्यादातर बार ज़ोर-ज़बरदस्ती के दम पर काले के सफ़ेद करने के इस खेल के शिकार बनने को मजबूर हैं.
बताते चलें कि एक ख़बर के मुताबिक़ जमुई-गिरडीह के सीमावर्ती इलाक़े में प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) संगठन की कमान संभाल रहे नेताओं ने पुराने नोटों को ठिकाने लगाने का काम शुरू कर दिया है. उसके साथ रहने वाले नक्सली अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में ग्रामीणों तक छोटी-छोटी रक़म पहुंचा रहे हैं. लोगों को 500 और 1000 के नोट दिए जा रहे हैं. क्योंकि ये नक्सली इस कोशिश में हैं कि ग्रामीणों के ज़रिए वे अपने पास मौजूद 500 व 1000 के नोटों को ज्यादा से ज्यादा बदलवा लें.
ऐसी ही ख़बर रांची से भी आ रही है कि 500 और 1000 के नोट बंद होने के बाद नक्सली ग्रामीणों के बीच पैसे बांट कर उन्हें बदलने की जुगत में लगे हुए हैं. ऐसी ख़बरें झारखंड के कई जिलों से आ रही हैं. पुलिस महकमे में भी यह चर्चा का विषय बना हुआ है. यह भी ख़बर है कि पलामू में नक्सली एक लाख रुपये की बंद नोटों को बदलवाने के लिए 30 से 40 हज़ार रुपये देने को भी तैयार हैं.
इधर छत्तीसगढ़ पुलिस का भी दावा है कि सरकार के इस नोटबंदी के फैसले का नक्सलियों पर भारी असर पड़ने वाला है. पीएम मोदी के इस फैसले से नक्सलियों का ख़ज़ाना ख़तरे में पड़ गया है. जिसका इन पर गहरा असर होगा. इससे इनकी कमर पूरी तरह से टूट जाएगी.
लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि इसका सीधा असर जंगलों में रहने वाले ग़रीब आदिवासियों पर पड़ेगा. इस बात की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नक्सली अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिये अपने इलाक़े के ग़रीब आदिवासी लोगों पर दबाव बनाएंगे. इतना ही नहीं, वे अपनी बड़ी ज़रूरतों के लिये बैंक, एटीएम, पोस्ट ऑफिस और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को भी निशाना बना सकते हैं.
इस बात भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि नक्सलियों के पास धन आता कहां से है? यह ऐसा सवाल है कि इस पर जब तक ध्यान नहीं दिया जाएगा और जब तक इस पर रोक नहीं लगेगी, तब तक नक्सलियों को स्थायी रूप से कोई आर्थिक नुक़सान नहीं पहुंचाया जा सकता. हम बखूबी जानते हैं कि नक्सिलयों के पास पैसे उगाही से आते हैं और ये उगाही वे खदानों से, विभिन्न उद्योगों से, तेंदू पत्ता और सड़क ठेकेदारों से, परिवहन व्यवसायियों से, लकड़ी व्यापारियों से और अन्य स्थानों से करते हैं.
ऐसे में जब नक्सलियों के पास जब धन की कमी आएगी तो वे फिर से इन्हें ही निशाना बनाएंगे. इसके अलावा रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए इनके क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीणों को परेशान कर सकते हैं. इस तरह से कुछ ही दिनों में इन नक्सलियों के कामकाज का जो तरीक़ा है, उसी तरीक़े से वे फिर नए सिरे से वसूली करेंगे और फिर से अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत कर लेंगे.
वहीं इस पूरे खेल का तीसरा पहलू यह भी है कि नक्सल प्रभावित इलाक़ों में रहने वालों में अधिकतर के पास बैंक अकाउंट नहीं है. ऐसे में ये नोटबंदी उन्हें बेगारी व भूखमरी के कगार पर धकेल देगी. पैसे का तनाव इनके माथे पर हर दम सवार रहेगा. ऐसे में यहां के लोग आगे चलकर बंदूकें उठाएंगे और ग्रामीण व्यवस्था के लिए एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी. कुल मिलाकर नक्सल प्रभावित इलाक़ों में नोटबंदी किसी त्रासदी से कम नहीं है.
समस्या यह भी है कि सरकार नोटबंदी के बारे में बात करके सिर्फ़ महानगरों और बड़े शहरों व इलाक़ों की ही बात कर रही है. सिर्फ़ उन्हें ही नोटबंदी के फ़ायदे समझाने में जुटी हुई है. लेकिन नक्सली इलाक़ों पर जो क़हर टूटा है, उस पर किसी का भी ध्यान नहीं है. सरकारी अधिकारियों के भी ज़ेहन में सिर्फ़ नक्सली ही हैं. उन्हें इन इलाक़ों में रहने वाले ग्रामीणों की शायद कोई फिक्र ही नहीं है. सच तो यह है कि देश की दबी-कुचली आबादी हर नए फैसले का दंश झेलने पर मजबूर है. यह उनकी नियति हो न हो, लेकिन यही उनका दुर्भाग्य है.