Home India News सीमांचल की ज़मीन पर साहित्य का इंटरनेशनल उत्सव

सीमांचल की ज़मीन पर साहित्य का इंटरनेशनल उत्सव

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

बिहार के किशनगंज में इंटरनेशनल लिटरेरी फेस्टिवल…! ये बात कईयों के लिए हैरानी का सबब बन सकती है. मगर ये ख़ूबसूरत सच्चाई है. इस सच्चाई को साकार करने का बीड़ा ज़फ़र हसन अंजुम ने उठाया है. किशनगंज में पले-बढ़े ज़फ़र सिंगापूर में लेखन व पत्रकारिता करते हैं. साथ ही सिंगापुर स्थित ‘किताब इंटरनेशनल’ नामक पब्लिशिंग कम्पनी के संस्थापक हैं.

सीमांचल का इलाक़ा दिनों-दिन अपनी शानदार सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत से दूर होता जा रहा है. उसे फिर से इस राह पर लौटाने की चुनौती वाक़ई बहुत बड़ी है. सीमांचल का ये क्षेत्र एक से बढ़कर एक साहित्यिक प्रतिभाओं का खान रहा है. फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ जैसे रत्न इसी सरज़मीं से निकले हैं. मगर समय के साथ ये धरती दूसरी वजहों से जानी जाने लगी. ये क्षेत्र कभी अपने पिछड़ेपन, कभी सियासत तो कभी बाढ़ व प्राकृतिक त्रासदी की वजह से ज़्यादा सुर्खियों में रहा. लेकिन आज एक बार फिर ये सीमांचल अपनी धरती पर साहित्य का पहला इंटरनेशनल उत्सव की वजह से सुर्खियों में है.

Seemanchal International Literary Festival

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सीमांचल अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक महोत्सव का आग़ाज़ आज किशनगंज के प्रसिद्ध इंसान स्कूल में अपने सांस्कृतिक रस्म-रिवाजो के साथ हुआ. पहले सेशन में सिंगापुर के प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार पी.एन. बालजी ने विदेशों में भारतीय को लेकर लोग क्या सोचते हैं, खासतौर पर सिंगापुर क्या सोचता है, विषय पर अपनी बातें रखीं.

अपने संबोधन में पी.एन. बालजी ने कहा कि –‘मुझे काफ़ी हंसी आई जब मीडिया ने भारत में नोटबंदी के लिए उठाए गए क़दम के ख़ातिर मिस्टर मोदी को सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली कुआन यू के समान बताया. या तो मीडिया को अपने प्रधानमंत्री के बारे में नहीं पता या फिर वो आधुनिक सिंगापुर के राष्ट्रपिता के बारे में कुछ भी नहीं जानते.’

बताते चलें कि भारतीय मीडिया ने सिंगापुर के अंग्रेज़ी अख़बार ‘द इंडिपेंडेंट’ में प्रकाशित एक लेख के आधार पर बताया कि नोटबंदी पर इस अख़बार ने मोदी के क़दम की तुलना सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली कुआन यू द्वारा लिए गए आर्थिक फैसलों से की है. अख़बार के हवाले से यह भी लिखा गया है कि सिंगापुर के नेताओं को महसूस होता है कि भारत के प्रधानमंत्री के इस आकस्मिक फैसले से उनका सम्मान और बढ़ गया है. आर्थिक रूप से भारत को मज़बूत बनाने के लिए मोदी सरकार ने बिल्कुल सही फैसला लिया है. भारत की जनता ने अगर मोदी का साथ दिया तो वह इसे जल्द ही महाशक्ति बनाने की क्षमता रखते हैं.

हालांकि पी.एन. बालजी ने स्पष्ट तौर पर कहा कि सिंगापुर के किसी भी अख़बार ने ऐसी ख़बर प्रकाशित नहीं की है और अगर किसी ने प्रकाशित भी किया है तो इस ख़बर को भारतीय मीडिया ने ग़लत तौर पर लिया है.

बहरहाल सिंगापुर के जिस ‘द इंडिपेंडेंट’ अख़बार में प्रकाशित न्यूज़ के आधार पर भारतीय मीडिया ने अपनी ख़बर प्रकाशित की है, उसे आप यहां देख सकते हैं :

Modi does a Lee Kuan Yew to stamp out corruption in India

पी.एन. बालजी सिंगापुर के पत्रकारिता में पिछले 40 साल से सक्रिय हैं. उन्होंने अपने संबोधन में बिहार के खाने की तारीफ़ की. कहा कि –‘यहां का खाना पहली बार टेस्ट किया, इट वाज वंडरफूल…’

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पी.एन. बालजी के संबोधन के बाद इस महोत्सव में ‘Reclaiming humanity through literature’ विषय पर राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित मशहूर उर्दू उपन्यासकार रहमान अब्बास, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के मास कम्यूनिकेशन विभाग से पिछले 30 साल से जुड़े प्रसिद्ध आलोचक व समीक्षक साफ़े क़िदवई, द हिन्दू –फ्रंटलाईन के सीनियर डिप्टी एडिटर ज़िया-उस-सलाम, सिंगापुर के प्रसिद्ध उपन्यासकार इसा कमारी ने एक परिचर्चा किया. इस परिचर्चा की कमान लेखिका रिया मुखर्जी संभाल रही थी.

इस परिचर्चा के दौरान रहमान अब्बास ने कहा कि –‘पहले लेखक जेल जाते थे, अब साहित्यिक महोत्सव में जाते हैं.’ उन्होंने इस बात का भी ज़िक्र किया कि जब सरकार उर्दू लेखकों पर लिखने की पाबंदी लगाने की कोशिश की तो कैसे उर्दू के लेखकों ने इस फैसले का विरोध किया. और इस विरोध के कारण सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा. हालांकि उन्होंने उर्दू अख़बारों के हवाले से यह बात कही कि उर्दू के अख़बार इस विरोध की ख़बर को प्रकाशित करने से बचते रहें, लेकिन अंग्रेज़ी व हिन्दी के कुछ अख़बारों ने इसे काफ़ी तवज्जो दिया.

रहमान अब्बास ने देश में बढ़ती असहिष्णुता की ओर इशारा करते हुए राष्ट्रवाद की मौजूदा अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा कि –‘राष्ट्रवाद का वो भद्दा डिस्कोर्स जिसमें जानवर व मज़हब के नाम पर क़त्लेआम किया जाता है, वो राष्ट्रवाद इंसानियत के भी ख़िलाफ़ और इंसान के भी ख़िलाफ़ है.’

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ज़िया-उस-सलाम ने इस परिचर्चा के दौरान कई अहम बातें रखीं. उन्होंने कहा कि –‘राष्ट्रवाद किसी की बपौती नहीं है कि आप किसी एक खास संस्था या पार्टी या मज़हब के हैं तो आप राष्ट्रवादी हो गए. लेकिन अगर आप इनसे अलग किसी दूसरे मज़हब या पार्टी के साथ हैं तो आप राष्ट्रवादी नहीं हैं.’

आगे उन्होंने कहा है कि –‘राष्ट्रवाद के नाम पर जो चीज़ें सामने आती हैं, कभी गौरक्षा के नाम पर तो कभी हिन्दी भाषा की रक्षा नाम पर, इन सबके पीछे देश-प्रेम या हिन्दू-प्रेम नहीं होता. इसके पीछे सिर्फ़ एक ही पॉलिसी होती है –किसी से प्रेम मत करो, सबसे नफ़रत करो. ऐसा नहीं है कि इस चीज़ की शुरूआत 2014 से हुई है कि मोदी आया और हमारे समाज का रंग बदल दिया. इसकी शुरूआत इस मुल्क में 1916 में हिन्दू महासभा व 1925 में आरएसएस के स्थापना के साथ ही शुरू हो गई. ये वही लोग हैं, जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और तिरंगा को अपने पैरों तले रौंदा था.’

इस महोत्सव के दूसरे सेशन में पटना के साहित्यकार व पत्रकार अनंत ने फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य पर काफी विस्तार से चर्चा की. इस चर्चा के दौरान रेणु के ज़िन्दगी से जुड़े कई पहलूओं को सामने रखा और बताया कि सीमांचल रेणु के मैला आंचल की धरती है. उनके प्रति परिकथा की धरती है. रेणु ने अपने उपन्यास में देश के वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की भी चर्चा कर दी. रेणु ने अपने उपन्यास मैला आंचल में लिखा था –देश की जनता भूखी है, ये आज़ादी झूठी है. अनंत ने रेणु के मैला आंचल को देश का पहला समाजवादी साहित्य और सीमांचल को समाजवाद की साहित्यिक राजधानी बताया.

दरभंगा के साहित्यकार डॉ. कमलानंद झा ने ‘समकालीन हिंदी साहित्य : अवसर और चैलेंजेज’ पर व्याख्यानात्मक संबोधन दिया. उन्होंने स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और अल्पसंख्यक विमर्श पर विस्तारपुर्वक बात रखी.

उन्होंने कहा कि आज के साहित्यकार निष्क्रिय हैं, सिर्फ़ लिखना ही उनका काम है. जबकि पहले के अधिकतर साहित्यकार जनता के दुख-सुख में शामिल होते थे. जब साहित्यकार जनता के साथ थी तो जनता भी साहित्य पढ़ती थी. लेकिन जबसे साहित्यकारों ने जनता से अपना सरोकार खत्म कर लिया, उसके साथ मध्यम वर्गीय जनता के बुक सेल्फ से साहित्य गायब हो गई. महिलाओं के किचन में मुड़ी-तुड़ी गोदान व दूसरी रचनाएं होती थी, वो अब वहां नहीं हैं. छोटे शहर के किताबों की दुकान पर सिर्फ़ कम्पीटिशन की किताबें हैं, साहित्य नहीं है. यानी साहित्यकारों ने जनता को देखना बंद कर दिया है तो उन्होंने भी हमारा साथ छोड़ दिया है. सच तो यह है कि साहित्यकार खुद ही पाठक से दूर होता जा रहा है. अगर साहित्य को बचाना है कि तो इसके लिए साहित्यकार को सामाजिक संघर्ष का हिस्सा बनना होगा.

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हिन्दी के बाद नम्बर उर्दू साहित्य का रहा. उर्दू फिक्शन लेखन में आने वाली परेशानियां व चैलेंजेज पर एक गंभीर परिचर्चा हुई. इस परिचर्चा में अबरार मुजीब व शाफ़े क़िदवई शामिल रहे. इस परिचर्चा का संचालन रहमान अब्बास कर रहे थे.

सिंगापुरी लेखक इसा कमारी की एक प्रसिद्ध नोवेल का उर्दू अनुवाद और उन्हीं की एक दूसरी पुस्तक ‘ट्वीट’ का भी विमोचन किया गया.

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तीसरे सेशन में साहित्य में जेंडर विषय पर परिचर्चा की गई. इस परिचर्चा में रिया मुखर्जी, आभा अयंगर शामिल रहीं. इस परिचर्चा का संचालन नाज़िया हसन कर रही थी. इसके बाद मुशायरा का आयोजन किया गया और इस तरह से साहित्यिक महोत्सव का पहला दिन ख़त्म हुआ.

इस प्रकार यह साहित्यिक महोत्सव सीमांचल के शानदार विरासत में नई जान फूंकने का काम सिर्फ़ कार्यक्रम तक सीमित नहीं रहा. बल्कि नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने की भी एक सराहनीय कोशिश की गई. पहले सेशन के कार्यक्रम के बीच वरिष्ठ लेखिका आभा अयंगर द्वारा रचनात्मक लेखन पर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न स्कूलों के सैंकड़ों छात्र-छात्राओं ने लेखन के गुर सीखे.

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उम्मीद है कि ये कोशिश जल्द ही एक मिशन के रूप में सामने आएगी. सीमांचल की ज़मीन को उसकी साहित्यिक गौरव लौटाने की एक बहुआयामी योजना भी साथ ही साथ परवान चढ़ेगी. आने वाला वक़्त इस शानदार सृजनात्मक कामयाबी का गवाह बनेगा.