आस मोहम्मद कैफ, TwoCircles.net
मेरठ: मुस्लिम समुदाय के भीतर आपसी खींचतान कितनी बढ़ गयी है, यह समझने के लिए मेरठ एक माक़ूल जगह है. एक समय मेरठ के सांसद से लेकर मेयर और विधायक तक सभी मुसलमान थे, मगर अब 10 साल से यहां मुस्लिम कयादत संघर्ष कर रही है.
मेरठ जनपद में मुसलामानों की आबादी 26 प्रतिशत है और शहर में 40 प्रतिशत. मेरठ शहर में अब एक भी मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं है. यहां मुस्लिम नेतृत्व पूरी तरह खत्म हो चुका है. यह कोई राजनीतिक शोध का विषय नहीं है बल्कि सीधा-सा मामला है कि मुस्लिम लीडरशिप भी अब जात-पात के चक्रव्यूह में फस चुका है.
वोटर अब पहले अपनी जाति-बिरादरी को देखते हैं, मुस्लिम समुदाय को नहीं. अपनी जाति को जिताने और दूसरी को हराने के लिए चाहे भाजपा को वोट देना पड़े, यह वोटरों को मंज़ूर है. कहा जा सकता है कि मेरठ के मुसलमानों में जातीय भेदभाव बहुत बढ़ गया है.
मेरठ में मोटे तौर पर सैफी, गद्दी, अंसारी और कुरैशी बिरादरी मुसलमान हैं. लेकिन अब ये सभी बिरादरियां एक-दूसरे को जीतने नही देंगी. हल्के-फुल्के झगड़ों की सूचनाएं रोज आती रहती है. कुरैशी कारोबारी ऐतबार से मेरठ में दबदबा रखते है तो अंसारी संख्या में ज्यादा है. गद्दी कृषक बिरादरी है और दबंग है जबकि सैफी किसी का परिणाम प्रभावित करते है मगर सभी आपस में उलझे है. अंदर इतनी आग है कि कभी भी जातीय संघर्ष हो सकता है.
दलित-मुस्लिम गठजोड़ के चलते एक ही समय पर शाहिद अख़लाक़ यहां से सांसद और महापौर दोनों रहे है. यहीं के हाजी याक़ूब भी एक चर्चित राजनीतिक हस्ती हैं, जो सरकार में मंत्री और दो बार विधायक रह चुके हैं.
हाजी याक़ूब पर बसपा सरकार गिराने का भी इल्ज़ाम लगा था. हाजी याक़ूब वही नेता हैं जिन्होंने डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के सिर कलम करने वालों को 51 करोड़ का इनाम देने का ऐलान कर दिया था. एक बार हाजी याक़ूब ने यूडीएफ नाम के एक राजनीतिक दल का भी गठन किया था जिसमें अब्दुल्ला बुखारी संयोजक थे. याक़ूब मेरठ दक्षिण से विधायक चुन लिए गए, जबकि भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी यहां लगातार पिछले 25 सालों से विधायक हैं.
मेरठ दक्षिण पूरी तरह से मुस्लिमबहुल सीट है मगर यहां से भाजपा के रविन्द्र भड़ाना विधायक हैं. एक समय कांग्रेस, सपा, बसपा और रालोद सभी के महानगर अध्यक्ष मुसलमान थे. अब अय्यूब अंसारी, रफ़ीक़ अंसारी, शकील सैफी, इसरार सैफी और मोहम्मद अब्बास को उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्यमंत्री का दर्जा दे रखा है मगर चुनाव जीतने के आसार किसी के बनते नहीं दिखाई दे रहे हैं.
शहर में कुछ समय पहले कुरैशियों का दबदबा था. यहां के हाजी अख़लाक़ विधायक बन गए, मोहसिना किदवई और मेराज़ुद्दीन जैसे नेताओं से इतर उनकी छवि दबंग मुस्लिम की बनी. शहर मे कुरैशी समुदाय का वर्चस्व बढ़ने लगा.
उनसे प्रेरणा लेकर उनके बेटे शाहिद अख़लाक़ ने मेरठ के महापौर का चुनाव जीता. उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बसपा ने उन्हें लोकसभा प्रत्याशी भी बना दिया और जीतकर वे सांसद बन गए. इस दौरान एक दूसरे हाजी याक़ूब कुरैशी की सक्रियता बढ़ने लगी. हाजी शाहिद की तुलना में हाजी याक़ूब ने अपनी छवि को कट्टर बना कर पेश किया. शाहिद सांसद थे और याक़ूब विधायक चुन लिए गए .सरकार ने उन्हें अलपसंख्यक मंत्री बनाया. जब सारी ताक़तों पर कुरैशियों का कब्ज़ा हो गया तो समाज के नौजवानों में अकड़ आ गयी. उनके हाव भाव मे अंतर दिखने लगा. पूर्व मे मेयर रहे अय्यूब अंसारी जैसे लोग छटपटा रहे थे. दूसरी बड़ी बिरादरी अंसारी, सैफी और गद्दी में आक्रोश फैलने लगा. सभी अपनी-अपनी कयादत तलाशने लगे.
2012 विधानसभा के चुनाव में भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दलो ने मुस्लिम प्रत्याशी बनाया. रफ़ीक़ अंसारी, हाजी याक़ूब, आदिल चौधरी, राशिद अख़लाक़, जावेद सैफी, यूसुफ कुरैशी सब आपस में लड़े और दोनों सीटों पर भाजपा जीत गयी. जीत के क़रीब लड़कर हारे रफ़ीक़ अंसारी और आदिल चौधरी की बिरादरियों ने अपनी हार के लिए कुरैशियों को जिम्मेदार माना. उनके समर्थकों का कहना था कि जब सभी बिरादरी मिलकर शाहिद अख़लाक़ और हाजी याक़ूब को जिता रही थी तो मुसलमान एक था. अब अंसारी गद्दी जीत रहा था तौ कुरैशी अपनी बिरादरी के हो गए. इधर कुरैशी समुदाय को लगने लगा कि वर्चस्व तोड़ने के लिए अंसारी, सैफी और गद्दी बिरादरी ने साज़िश की. इससे गुस्साए कुरैशी समुदाय के लोगों ने कुछ दिन बाद हुए मेयर के चुनाव में रफ़ीक़ अंसारी को हराने के लिए भाजपा के पक्ष में वोटिंग कर दी.
संख्या में लगभग बराबर चारों बिरादरियों मे कुरैशी अब बसपा के साथ हैं. हाजी याक़ूब शहर से प्रत्याशी है. शाहिद अख़लाक़ बसपा से निकाले गए हैं, अभी उनकी तस्वीर साफ नही है. रफ़ीक़ अंसारी को फिर सपा ने प्रत्याशी बनाया है. आदिल चौधरी पहले की तरह दक्षिण विधानसभा से लड़ेंगे. कुरैशी किसी और को वोट नही करेंगे, अंसारी को हराने के लिए वे भाजपा का समर्थन कर यह साबित कर चुके हैं.
मेरठ के देहात की तरफ़ देखें तो भी दूसरी विधानसभाओं की तरह मुस्लिम नेताओं के हालात यहां अच्छे नहीं हैं. यहां किठौर विधानसभा से विधायक और अब सरकार में मंत्री शाहिद मंजूर इस बार चुनाव में मुश्किल का सामना कर सकते हैं. यहां बसपा के पूर्व राज्यसभा सांसद और पूर्वांचल प्रभारी बाबू मुनकाद और पूर्व विधायक परवेज हलीम के लोगों के खिलाफ झूठे मुक़दमे से आक्रोश है. हाजी याक़ूब पिछली बार सरधना से लड़े थे, इस बार उनके पुत्र इमरान याक़ूब वहां प्रत्याशी है. फलावदा के पूर्व विधायक जकीउदीन के बेटे को सरधना से टिकट नहीं दिए जाने से वे रालोद से सरधना से लड़ सकते हैं, इससे लड़ाई के फिर से छितरा जाने के आसार हैं.
पेशे से शिक्षक गुलाम मोहम्मद सिवालखास से जीत गए थे. वे राजनीतिक खांचे मे फिट नहीं हो पाये. इस बार वो अपनी सीट बचा पायेंगे यह कहना मुश्किल हैं. खरखौदा गुर्जर और मुस्लिमबहुल सीट है. यहां दलित और गुर्जर गठजोड़ बन गया है. कुछ ही दूरी पर बादलपुर में बसपा सुप्रीमो का घर है इसलिए यहां उनका असर है, मतलब बसपा के पूर्व मंत्री लखीराम नागर यहां मजबूत हैं.
अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महत्त्वपूर्ण जिले मेरठ में बिखराव और आपसी खींचतान के हालात यूं ही बने रहे तो संभावना है कि मेरठ जनपद से एक भी मुस्लिम न जीत न दर्ज कर पाए.