नैय्यर इमाम सिद्दीक़ी
बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि शांति के लिए युद्ध ज़रूरी है और हर देश के पास सेनाएं इसीलिए ही होती हैं ताकि उनकी बदौलत उनके देश में शांति क़ायम रह सके. देश में शांति के लिए ही सैनिक अपना सर्वोच्च बलिदान तक देते हैं. हालिया भारत के उड़ी में आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा LoC पार PoK में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के बाद सरहद पर युद्ध का माहौल देखा जा सकता है. पंजाब में सीमा से सटे 10 किलोमीटर क्षेत्र तक के इलाक़ों को ख़ाली करा लिया गया है ताकी वहां बारूदी सुरंगें बिछाई जा सकें. बारूदी सुरंगें बिछाने का मतलब है युद्ध की तैयारी.
युद्ध से सिर्फ़ हमारे दुश्मन ही तबाह नहीं होंगे, हम भी होंगे. अभी फ़सल तैयार होने का समय है. सीमा से सटे जम्मू व कश्मीर, राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों को छोड़ भी दिया जाए तो सिर्फ़ पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्र के 10 किलोमीटर क्षेत्र में हज़ारों एकड़ की खेती बर्बाद होगी जिसकी अनुमानित क़ीमत अरबों रूपए है. ये अरबों रूपए का घाटा सिर्फ़ कृषि का है. पलायन कर रहे लोगों के अपने कारोबार, मवेशी, जल-जंगल-ज़मीन की बर्बादी की क़ीमत अलग है. हम ऐसे समय में जंग की तैयारी कर रहे हैं जब हमारे देश में बेरोज़गारी पिछले पांच साल में अपने उच्चतम स्तर पर है, GDP और सेंसेक्स दोनों बुरे दौर से गुज़र रहे हैं और महंगाई आसमान छू रही है.
वर्तमान सरकार ने 2014 में युवाओं से वादा किया था कि हम हर साल करोड़ों बेरोज़गार युवाओं को रोज़गार से जोड़ेंगे मगर इसका ये वादा भी हर बार की तरह जुमला ही निकला. ऐसे में अगर कोई युद्ध की जगह बातचीत से दोनों देशों के बीच के मसलों को सुलझाने की बात कहता है तो उन्हें राष्ट्रवादी गुंडे देशद्रोही के तमगे से नवाज़ रहे हैं.
क्या युद्ध की चाह न रखने वाली सोच किसी देशद्रोही बना देगी? क्या शांति की चाहत या बातचीत का विकल्प सुझाने वाला व्यक्ति ‘पाकिस्तानी सिम्पेथाईज़र’(पाकिस्तान-परस्त) हो जाता है? क्या युद्ध-उन्माद ही देशभक्ति तय करने का पैमाना है? हर मोर्चे पर फ़िसड्डी हो जाने के बाद सरकार के पास जनता के सवालों से बचने के लिए युद्ध ही आख़िरी विकल्प होता है. वाजपेयी सरकार ने भी यही किया, जब देश पर विदेशी क़र्ज़ों का बोझ बढ़ने लगा और अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी तो सरकार ने कारगिल में युद्ध छेड़ दिया. जिसमें अधिकारिक तौर पर हमारे 550 से ज़्यादा जवान शहीद हुए. कहना न होगा कि ठीक यही पॉलिसी मोदी सरकार भी अपना रही है. मनमोहन सरकार के कार्यकाल में भी कई बार सरहद पर युद्ध जैसी स्थिति बनी पर सरकार ने युद्ध के पक्ष में अपना मत नहीं दिया.
दरअसल युद्ध का उन्माद खाए-पिये-अघाए लोगों का ही आह्वान होता है. सेनाएं कभी युद्ध नहीं चाहतीं, सरकारें उन पर युद्ध थोपती हैं. हालिया सर्जिकल स्ट्राइक का ढिंढोरा ऐसे पीटा जा रहा है जैसे इससे पहले भारतीय सेना ने कभी दुश्मन क्षेत्र में सर्जिकल स्ट्राइक ही नहीं किया. दरअसल इस ढिंढोरा पीटने के पीछे वजह है – गुजरात में उपजी अशांति को दबाना और आगामी पंजाब, यू.पी, और गोवा चुनाव से पूर्व अपने पक्ष में ‘हवा’ बनाना. पहले पठानकोट एयरबेस हमले और फिर उड़ी आतंकी हमले के बाद सरकार बैकफुट पर थी और जनाधार खिसकने के डर से उसने इस सर्जिकल अटैक का ढिंढोरा पीटा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अब इस सर्जिकल हमले पर सवाल खड़े कर दिए हैं. ऐसे में तो राष्ट्रवादी गुंडों को चाहिए कि वे बान की मून को देशद्रोही घोषित कर दें, या उन्हें इस लक्षित हमले पर सवाल खड़े करने पर पाकिस्तान भेज दें.
भारत की तरह पकिस्तान सरकार की चाहत भी युद्ध की है. जिस तरह सरहद के इस पार की सरकार युद्ध के बहाने ये साबित करने पर तुली हुई है कि वह एक मज़बूत सरकार है, ठीक उसी तरह सरहद पार की सरकार भी अपनी ढहती अर्थव्यस्था और विदेशी मदद के लिए युद्ध के लिए लालायित है. पाकिस्तान भारत के सैन्य शक्ति के मुक़ाबले में कहीं नहीं है. दरअसल पाकिस्तान भारत की मज़बूत होती अर्थव्यस्था से चिंतित है. मनमोहन सरकार के कार्यकाल में ही भारत विश्व की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरा और इसके साथ ही सूचना, संचार, प्रौद्योगिकी, विज्ञान, स्पेस, खेल, इंजीनियरिंग, मेडिसिन जैसे क्षेत्रों में तेज़ी से विकास कर रहा है और इसी चीज़ को पाकिस्तान पचा नहीं पा रहा है. भारत अगर युद्ध करता है तो भारत कम से कम दो दशक पीछे चला जायेगा मगर पाकिस्तान को युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय मदद मिल जाएगी. और इस मामले में उसे चीन और अमेरिका का साथ सबसे पहले मिलेगा.
‘सिन्धु जल समझौते’ के विवाद को देखते हुए चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी की सहायक नदियों का पानी रोक पर भारत पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है, इससे भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में पानी की समस्या खड़ी हो सकती है. भारत-ईरान चाहबहार पोर्ट के समझौते के बाद चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कोरिडोर (CPEC) समझौते में तेज़ी आ गयी है और ये कोरिडोर PoK से होती हुई ग्वादर पोर्ट तक जाएगी, जिस पर भारत ने आपत्ति भी दर्ज करायी है. मगर इस मामले में चीन का रुख हमेशा पाकिस्तान के साथ ही रहा है. इसी तरह ईरान-भारत गैस-पाइपलाइन के बीच की सबसे बड़ी रुकावट पाकिस्तान ही है. कुल मिलाकर पाकिस्तान को भारत की तरक्क़ी से ही बदहज़मी है और वह इसे फूटी आंख नहीं देख पा रहा है और बार-बार शांतिपूर्ण बातचीत से मसले को सुलझाने के बजाय सीज़फ़ायर कर भारत को अपने जाल में फंसाना चाहता है और इस बार भारत उसके बिछाए जाल में फंसता नज़र आ रहा है. युद्ध से सबसे अधिक नुकसान भारत को ही होना है. भारत और पाकिस्तान दोनों ही हथियार ख़रीदने वाले सबसे बड़े देशों में एक हैं और युद्ध होने की स्थिति में हथियार बेचने वाले देशों जैसे अमरीका, इज़रायल, फ़्रांस, जर्मनी जैसे देशों का ही भला होगा.
मेरे परिजन सेना में रहे हैं और युद्ध की आशंका के समय परिवार की क्या स्थिति होती है, इससे भली भांति परिचित भी हूं. जिनका अपना कोई सीमा पर नहीं हैं. उन्हें सिर्फ़ उन्माद भरा उद्घोष करना है और सैनिकों की शहादत के बाद उनकी तस्वीरों को लाइक, शेयर, कमेंट में जय हिन्द, वंदे मातरम, भारत माता की जय का जयकारा भर करना है. शहीद हुए सैनिकों के परिवारों के दर्द के दंश को झेलना सबसे बस की बात नहीं. ये दर्द वही समझ सकता है जिसका कोई अपना सीमा पर शहीद हो जाए. उन्मादी लोग तो जयकारा लगा कर भूल जाते हैं मगर दर्द तो सैनिक परिवारों के ताउम्र झेलना पड़ता है. युद्ध से कभी शांति नहीं आती, हां मगर शांति के लिए सेनाएं ज़रूरी हैं. जिस पंजाब के खेतों ने हरित क्रांति के बाद सोना उगला, अब उनकी कोख में बारूद बोया जा रहा है. क्या अब कभी उन खेतों में हरियाली वापस आएगी? माना कि पाकिस्तान अपनी ना-पाक हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा है मगर क्या अब युद्ध ही अंतिम विकल्प है? सेना में अधिकांश जवान अपना घर-परिवार चलाने के लिए भरती होते हैं, शहीद होने के लिए नहीं. जो लोग सैनिकों को युद्ध की आग में झोंकना चाहते हैं वही लोग उनकी वन रैंक वन पेंशन की मांग (OROP) पर उन्हें गालियां दे रहे हैं कि वे उनकी सरकार के ख़िलाफ़ अपनी मांग के लिए प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं?
हम लोग नफरती लोग हैं जो अपनी नफ़रत की बंदूक सैनिकों के कंधों पर रखकर चलाना चाहते हैं. क्या जिस तरह हम पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध चाहते हैं, उसी तरह चीनी फ़ौज द्वारा बार-बार सीमा उलंघन, अरुणाचल पर अवैध क़ब्ज़े की कोशिश, ब्रहमपुत्र की सहायक नदी का पानी रोके जाने पर युद्ध नहीं करना चाहेंगे? पाकिस्तान की तरह दुश्मन तो चीन भी है फिर चीन की हरकतों पर चुप्पी और पाकिस्तान की हरकतों पर युद्ध की लालसा के पीछे की वजह क्या है? युद्ध किसी से भी कभी भी हो, मरते निर्दोष ही हैं, तबाह आम-जन ही होता है.
वातानुकूलित कमरे में बैठ कर युद्धउन्मादी हो जाने वाले सरहद पर रहने वाले आम लोगों, किसानों या सैनिकों की स्थिति कभी नहीं समझ सकते. फ़ौजें बलि का बकरा नहीं होतीं जो सरकार के राष्ट्रवाद की अलख जगाने या चुनावी रणनीति तय करने के लिए क़ुर्बान हो जाएं. एक सैनिक परिवार से होने के नाते और एक आम नागरिक होने के नाते भी मैं युद्ध नहीं शांति चाहता हूँ. मसलों का हल युद्ध के ज़रिये नहीं बात-चत से होना चाहिए. क्योंकि जंग लड़ती तो सेनाएं हैं मगर जीतती हैं तो सिर्फ सरकारें, और हारती है कोख, कलाई और काजल.
[नैय्यर इमाम सिद्दीक़ी स्कॉलर और स्वतंत्र पत्रकार हैं. समसामयिक मुद्दों पर उनकी नज़र पैनी है. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]