प्रियदर्शन सिंह
आज कर्नाटक अशांत है. कावेरी नदी के पानी को लेकर सोमवार को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से कर्नाटक में बंदी और हड़ताल शुरू हो गए. इस दौरान हुई एक हिंसक झड़प में एक आदमी की मौत हो गयी और कुछ लोग ज़ख्मी भी हो गए.
दक्षिण भारत के दो राज्यों कर्नाटक और तमिलनाडु में लगभग-लगभग वैसी स्थिति होती जा रही है, जैसी कुछ सालों पहले असम और बिहार के बीच थी. दोनों राज्यों में एक दूसरे राज्यों के लोग बहुलता में थे, लेकिन फिर भी कोई शांति नहीं थी. हालांकि तमिलनाडु और कर्नाटक की वर्तमान स्थिति की वजह ये नहीं है, या ऐसी भी नहीं है, लेकिन भारत में अस्थिरता बढ़ने की जो दर है, उसे देखकर लगता है कि ऐसी स्थिति भी आ सकती है.
कावेरी की पानी पर हुए इस हिंसक संघर्ष की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि महज़ एक दिन में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से शान्ति की अपील कर दी. पीटीआई के मुताबिक मोदी ने दोनों राज्यों के लोगों से कहा है कि वे एक दूसरे के प्रति संवेदना ज़ाहिर करें और शान्ति व सद्भाव का प्रदर्शन करें.
यह कदम काबिल-ए-तारीफ़ है. संभव है कि प्रधानमंत्री के इस कदम के बाद से कुछ शान्ति आए. मीडिया में इस बात के प्रचार से कुछ हिंसा घट सके. हो सकता है कुछ कम लोग जख्मी हों. नहीं भी हुआ तो यह तो कहा ही जाएगा कि प्रधानमंत्री ने शान्ति की पहल की है.
लेकिनं प्रश्न वही उठता है कि क्या कश्मीर भारत का एक राज्य नहीं है?
पिछले दो महीनों से कश्मीर पूरी तरह से बर्बाद हो चुका है. दस जिलों में बीते दो महीनों से कर्फ्यू लगा हुआ है. 70 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. घायल होने वालों की संख्या हज़ार के ऊपर है. पेलेट गन से अपनी आँख खो चुके लोगों की संख्या का कोई हिसाब नहीं है. कश्मीर के अस्पताल अपनी क्षमता से अधिक काम कर रहे हैं. ऐसे में प्रश्न उठता है कि कर्नाटक मसले पर एक दिन में बयान जारी करने वाले नरेंद्र मोदी कश्मीर में दो महीनों में भी शांति की कोई अपील करने में कैसे असफल साबित हो जाते हैं? कश्मीर मसले पर प्रधानमंत्री व गृहमंत्री दोनों की ओर से आए बयान में लोगों से शांति की अपील तो नहीं ही थी, लेकिन उनके गुस्से को और भड़काने के लिए बुरहान वानी की मृत्यु पर मुहर लगा दी गयी.
इस दोहरे बर्ताव के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री की नीयत को घेरा तो जा ही सकता है, लेकिन यह भी सोचना ज़रूरी है कि कश्मीर को लोगों को एकबानगी देश का नागरिक मानकर समझाने में कितनी समस्याओं को बिना कठिन समीकरण के हल किया जा सकता था? अव्वल तो जान-माल को हो रहे नुकसान को कितनी हद तक बचाया जा सकता था? लेकिन नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह के बयानों को देखें तो कश्मीर के ‘भ्रमित’ युवा वर्ग के और भी ज्यादा ‘भ्रमित’ होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.
हालांकि केवल कश्मीर ही नहीं, दलित के मुद्दों पर गुजरात में हुए राज्यव्यापी विरोध-प्रदर्शन के दौरान भी प्रधानमंत्री शांत रहे. इस दौरान सवर्ण जातियों द्वारा गुजरात की दलित स्वाभिमान यात्रा में आने-जाने वाले दलितों, पत्रकारों पर कई बार हमले किए गए लेकिन हफ़्तों तक अशांत रहे गुजरात पर नरेंद्र मोदी ने हस्तक्षेप करने की कोई ज़रुरत नहीं समझी.
हालांकि यह कदम आलोचना के लायक है लेकिन इसकी आशा की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री को समय रहते यह ख़याल आ जाना चाहिए कि वे अब महज़ किसी पार्टी या विचारधारा के प्रधानमंत्री नहीं हैं, बल्कि वे एक अक्षुण्ण राष्ट्र के प्रधानमंत्री हैं, जिसका हरेक नागरिक शान्ति और सौहार्द्र के लिए उनकी सरकार के साथ-साथ उनकी पार्टी की ओर भी देख रहा है.