Home Adivasis आदिवासी बच्चों को उनकी जड़ों से अलग करते बस्तर के ये स्कूल

आदिवासी बच्चों को उनकी जड़ों से अलग करते बस्तर के ये स्कूल

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

दंतेवाड़ा/सुकमा (छत्तीसगढ़) : बस्तर में चल रहे स्कूल ज्ञान के केंद्र होने के बजाय अज्ञान के कीड़े साबित होते जा रहे हैं. ऐसा मानना हमारा नहीं, बल्कि यहां रहने वाले आदिवासी मानते हैं. ज्ञान की रोशनी बिखेरनी वाले आदिवासी क्षेत्र के इन स्कूलों में शिक्षा के नाम पर बच्चों को भगवाकरण का टॉनिक पिलाया जा रहा है. ऐसा टॉनिक जो उन्हें समझदार इंसान व आदिवासियों का हमदर्द होने के बजाय अपने मां-बाप से नफ़रत करने वाला, बेहद ही कट्टर और रूढ़िवादी हाड़-मांस के टुकड़ों में तब्दील कर चुका है. और यह सब राज्य सरकार की शह पर हो रहा है.

आलम यह है कि यहां के रहने वाले आदिवासी अब नहीं चाहतें कि उनके बच्चे इन स्कूलों में पढ़ें. क्योंकि इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे धीरे-धीरे अपने रीति-रिवाजो व सदियों पुरानी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं. उनकी इसमें कोई आस्था ही नहीं बची है. एक ख़ास तरह की शिक्षा पद्धति देकर उनके दिमाग़ को दूसरी दिशा में मोड़ा जा रहा है और उन्हें ऐसे नागरिक के तौर पर तैयार किया जा रहा है, जो उपभोक्तावाद व बाज़ारवाद की कठपुतली के तौर पर नज़र आए.

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छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले में स्थित जबेली गांव की एक आदिवासी विद्यालय की शिक्षिका रह चुकी आम आदमी पार्टी की नेता सोनी सोरी का आरोप है कि आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा का पूरी तरह से भगवाकरण कर दिया गया है. यहां की शिक्षा-व्यवस्था आदिवासियों के बच्चों को उनके जड़ों से काटने का काम कर रही है.

सोनी सोरी बताती हैं, ‘यह बहुत अच्छी बात है कि आदिवासी बच्चे पढ़-लिख रहे हैं. लेकिन समस्या यह है कि वे पढ़-लिखकर आदिवासी समाज के बारे में सोचना बंद कर देते हैं. उन्हें शहरों का कल्चर अच्छा लगने लगता है.’

सोनी सोरी का कहना है कि यहां के सरकारी स्कूलों में बच्चों को पूरी तरह से ‘हिन्दू’ बनाया जाता है. ऐसे में बच्चे अपनी आदिवासी परंपराओं व पर्व-त्योहारों को भूलने लगे हैं. दिवाली जैसे चर्चित त्योहारों में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी हैं.

लेकिन इसमें गलत क्या है? यह सवाल पूछने पर सोनी सोरी बताती हैं, ‘हम हिन्दू नहीं हैं. हम आदिवासी हैं, हम मूल-निवासी हैं. आदिवासी ऐसा कोई भी त्योहार नहीं मनाता, जिससे पर्यावरण को कोई नुक़सान पहुंच रहा हो. हम मिट्टी की पूजा करने वाले लोग हैं.’

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दंतेवाड़ा के एक आश्रम में तक़रीबन 18 सालों तक शिक्षक की भूमिका निभा चुके प्रसिद्ध मानव अधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का कहना है, ‘आज़ादी के 70 साल बाद भी हमने आदिवासियों को कुछ भी नहीं दिया, बल्कि हमने सिर्फ़ उनसे छीनने का ही कार्य किया है. हमें उनके संसाधन चाहिए. अब आदिवासी अपने संसाधन देना नहीं चाहता. तो ऐसे में सरकार शिक्षा को एक हथियार व रणनीति के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. उसी रणनीति के तहत गांव में चलने वाले तमाम प्राईमरी स्कूलों को बंद कर दिया. फिर शहरी क्षेत्रों में एक-एक हज़ार की क्षमता वाले छात्रावास खोल दिए. यानी आदिवासी बच्चों को गांव से निकाल कर शहरी क्षेत्रों के हॉस्टलों में रहने पर मजबूर कर दिया. अब आप ही सोचिए कि जो बच्चा तक़रीबन 12 साल या उससे अधिक अपने परिवेश से अलग रहेगा तो वापस जंगल में कैसे रहना पसंद करेगा? अपने आदिवासी कल्चर को कैसे बर्दाश्त करेगा?’

वो आगे बताते हैं, ‘अब जो बच्चा पढ़-लिख गया तो उसे नौकरी चाहिए. वह सरकार से अपने लिए नौकरी मांगेगा. नौकरी मांगने पर सरकार कहती है कि हम तुम्हें नौकरी तब देंगे, जब उद्योग लगाएंगे. और उद्योग लगाने के लिए तुम्हारा बाप ज़मीन ही नहीं दे रहा है. अब बच्चा अपने बाप का ही दुश्मन बन जाता है और यहां ऐसा खूब हो रहा है.’

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TwoCircles.net ने दंतेवाड़ा व सुकमा के ज़िला के तक़रीबन दर्जनों स्कूलों का दौरा किया. वहां के बच्चे-बच्चियों व शिक्षकों से बात करके वहां की स्थिति को समझने की कोशिश की. हमने अधिकतर जगह पाया कि ग़रीब आदिवासी बच्चे डरे-सहमे रहते हैं. उन्हें एक ख़ास तरह की ट्रेनिंग दी जा रही है.

एक स्कूल के शिक्षक ने नाम न प्रकाशित करने के शर्त पर बताया, ‘यहां के किसी भी स्कूल में गोंडी भाषा अब नहीं पढ़ाई जा रही है. किसी भी स्कूल में आदिवासी तबक़े से संबंध रखने वाले शिक्षक न के बराबर हैं. किसी भी स्कूल में आदिवासियों के पर्व-त्योहारों के बारे में नहीं बताया जाता है. किसी भी स्कूल में आदिवासियों के बड़े नेताओं के चित्र नहीं लगाए गए हैं. बल्कि यहां के उनके चित्र लगाए गए हैं, जिनका छत्तीसगढ़ के साथ कोई कनेक्शन नहीं है.’

यहां के बच्चे भी बताते हैं कि उन्हें सुबह प्रार्थना में योग, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार कराया जाता है. गायत्री मंत्र भी हर के हर बच्चों को याद है, क्योंकि प्रार्थना में उन्हें गायत्री मंत्र गाना होता है. कई आदिवासी छात्रों ने यह बताया कि उन्हें छात्रावास में भागवत गीता का पाठ कराया जाता है. यही नहीं, हमने यह भी देखा कि ज़्यादातर स्कूलों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, महाराणा प्रताप, स्वामी विवेकानंद, वीर सावरकर और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं की तस्वीरें भी दीवारों पर लगी हैं. कई स्कूलों में इनकी प्रतिमाएं भी हैं.

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वहीं एक दूसरे शिक्षक ने बताया कि सरकार के इशारे पर ईसाई मिशनरी स्कूल अब यहां धीरे-धीरे ख़त्म किए जा रहे हैं. पिछले दिनों यहां विश्व हिन्दू परिषद ने हिंदू भावनाओं के आहत होने का हवाला देकर यह दबाव बनाया कि यहां के ईसाई मिशनरी स्कूलों के ‘फ़ादर’ को अब प्राचार्य या सर कहना होगा. साथ ही उन्होंने यह भी दवाब बनाया कि हर स्कूल में सरस्वती की प्रतिमा व तस्वीर भी लगाई जाए.

बकौल उक्त शिक्षक, विश्व हिन्दू परिषद ने दबाव बनाकर बस्तर के कैथोलिक समाज को लिखित समझौता करने पर मजबूर किया. दबाव में आकर कैथोलिक समाज को इनकी सारी बातें माननी पड़ी.

इन शिक्षक का यह भी आरोप है कि आदिवासियों के इलाक़े में पिछले दिनों कई सरस्वती शिशु मंदिर खोले गए हैं. और इनमें आदिवासी बच्चों पर ज़ुल्म के कई कहानियां सामने आ चुके हैं. वहां इन बच्चों से अभद्र भाषा में बात की जाती है.

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उनके मुताबिक़ पिछले महीने कांकेर के गढ़-पिछवाड़ी सरस्वती शिशु मंदिर के एक संबंध में एक ख़बर भी यहां के स्थानीय अख़बारों ने प्रकाशित की थी. इस ख़बर में बताया गया था कि इस स्कूल के प्राचार्य छात्रों को नाली के कीड़े, मक्खी और मच्छर कहकर बुलाते हैं.

आम आदमी पार्टी से जुड़े संकेत ठाकुर बताते हैं कि आरएसएस का दख़ल सिर्फ़ स्कूलों में नहीं, बल्कि अब यहां के विश्वविद्यालयों में भी है. पिछले दिनों जुलाई के महीने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छत्तीसगढ़ प्रांत संचालक बिसरा राम यादव ने रायपुर के रोहिणीपुरम स्थित सरस्वती शिशु मंदिर में छत्तीसगढ़ के कुलपतियों की मीटिंग ली थी, जिसमें आधा दर्जन कुलपति तथा तीन दर्जन प्रोफ़ेसरों ने भाग लिया था. संकेत ठाकुर बताते हैं, ‘अब आप ही बताइये कि यह मीटिंग लेने का अधिकार उन्हें कहां से मिल गया. यह अधिकार तो सिर्फ़ राज्यपाल को है. यह शिक्षा का भगवाकरण करने की कोशिश नहीं तो और क्या है?

संकेत ठाकुर यह भी बताते हैं कि बस्तर के स्कूलों में बस्तर के शिक्षक नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों के शिक्षक पढ़ाने का काम कर रहे हैं. वो बताते हैं कि इसके लिए सरकार ने सिर्फ़ बस्तर में तक़रीबन 14 हज़ार शिक्षकों को आउटसोर्स किया है. उनका यह भी आरोप है कि इस आउटसोर्सिंग की ज़िम्मेदारी जिस प्लेसमेंट एजेंसी को दी गई है, उसे आरएसएस के लोग संचालित करते हैं.

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इन सब बातों के बीच कड़वी हक़ीक़त यह है कि आदिवासी बच्चे अपने जड़ों से कटते जा रहे हैं. जबकि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की सारी लड़ाई ही इसी बात की है. वहां जड़, जंगल और ज़मीन ख़तरे में है. ऐसे में अगर जड़ों को ही काट दें तो बचता ही क्या है? शिक्षा की रोशनी देने के नाम पर खोले गए ये स्कूल स्थानीय जड़ों के धीरे-धीरे ख़त्म होने का एक बेहद ही ख़तरनाक उदाहरण होते जा रहे हैं.

आगे की कहानी और भी दर्दनाक है. शिक्षा के बढ़ते भगवाकरण से अब यहां के नक्सली भी चिंचित हैं. एक ख़बर के मुताबिक़ अब नक्सली भी सरकार के समान्तर शिक्षा प्रणाली को विकसित कर रहे हैं ताकि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण हो सके. उनका यह भी फ़तवा है कि कोई भी बच्चा या युवक-युवती गांव से बाहर नहीं जाना चाहिए. क्योंकि गांव से बाहर जाने पर वे बाहर की दुनिया से आकर्षित हो सकते हैं.

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ऐसे में शिक्षा के भगवाकरण का खामियाजा सबसे अधिक यहां के आदिवासी समाज को ही उठाना पड़ रहा है. TwoCircles.net से बातचीत में कई अभिभावकों ने स्पष्ट तौर पर बताया कि अगर ऐसा ही चलता रहा है तो हम अपने बच्चों को अनपढ़ रखना ही पसंद करेंगे.