फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
दोपहर के सन्नाटे में तेज़ तालियों और गाने की आवाज़ ने आती हुई नींद को झकझोर दिया. पूछने पर पता लगा कि पड़ोस में कुछ हिजड़े आए हुए हैं और वहां उनका नाच गाना चल रहा है.
पता नहीं क्यों, उन्हें देखने का मन सा होने लगा. वहां जाकर देखा कि 4-5 बिल्कुल लड़कियों जैसे दिखने वाले हिजड़े ढोलक बजाकर मस्त नाच रहे थे. उनके पैरों में घुंघरू भी थे. इनमें दो हिजड़े बहुत ही खूबसूरत थे. खैर, उनका नाच-गाना अब ख़त्म हो चुका था. वो जा चुके थे. और मैं अब अपने घर पर थी.
दरअसल, मैं उन्हें देखकर बहुत हैरान थी. बार-बार उनके बारे में सोच रही थी. शायद इसकी वजह यह है कि मैंने आज तक इन्हें सिर्फ़ अख़बारों, पत्रिकाओं व चैनलों में ही पढ़ा व देखा था. इसलिए उन्हें देखकर मेरे अंदर उन्हें क़रीब से जानने की एक ख़्वाहिश सी होने लगी.
शाम में पड़ोस वाली आंटी से उन हिजड़ों के घर का पता पूछा. और फिर दूसरे दिन उनके घर पहुंच गई. बहुत से सवालों और लम्बी बातचीत के बाद उनसे तो दोस्ती हो चली…
किन्नर जिन्हें हम हिजड़ा या छक्का कह देते हैं. मगर हम शायद ही उनके दर्द को जानते हैं, जिन्हें किन्नर अपने सीने में दबाए हुए लोगों के सामने हथेली पीटते हुए नाचते हैं. मनोरंजन करते हैं. उनकी हथेलियां ही उनकी आह हैं, और उनका ठुमका ही दर्द.
उन किन्नरों में एक सीमा नाम की किन्नर थी, जो कि क़द-काठी से लंबी थी. उन्होंने 12 साल की उम्र में घर छोड़ दिया था और किन्नर समुदाय में शामिल हो गई थी. वो कहती है कि उसके जन्न्मदाता एक सरकारी बाबू थे और मां टीचर. लेकिन होश संभालने तक उसे परिवार में सिर्फ़ तिरस्कार ही मिला था. सरकारी बाबू यानी पिता ने अपनी संतान मानने से इंकार कर दिया था. इस सदमे को सीमा बर्दाश्त नहीं कर पाई और एक दिन सबकुछ छोड़कर घर से काफ़ी दूर सासाराम आ गई.
सायरा जो कि अपने नाम की तरह ही खूबसूरत हैं. सायरा अपने बारे में बताती हैं कि उनका जन्म बालियान के एक खान परिवार में हुआ. जन्म के कुछ दिनों बाद ही उनको किन्नरों को सौंप दिया गया. आज यही उनका परिवार है और यही उनका घर.
सायरा को पढ़ने का बहुत शौक़ है. वो भी स्कूल जाना चाहती थी. पायल किन्नर ने उनका दाख़िला पास के स्कूल में करा दिया, लेकिन वहां मिले तिरस्कार से उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया.
सायरा कहती हैं, इंसानियत के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग हमारे प्रति जानवरों से भी ख़राब रवैया अख्तियार करते हैं. हम लोग सामान्य व्यक्तियों की भांति जीवन-यापन करना चाहते हैं, लेकिन ये समाज करने नहीं देता.
सायरा की माने तो उन्हें अपनी स्थिति से कोई शिकायत नहीं है, बल्कि इसे वो पसंद करती हैं. समाज से उन्हें एक ही शिकायत है कि अगर समाज उनका आदर न कर सकता तो कम से कम उस समाज के पास अपमान का कोई अधिकार तो नहीं होना चाहिए. किन्नर तो सूफी संत सम्प्रदाय की राह पर चलने वाले लोग हैं और उनकी दुआओं में ही ताक़त है कि लोग हम से दुआएं लेने आते हैं.
वो बताती हैं कि आज भी ख्वाजा गरीबनवाज़ के मज़ार पर पहला चादर किन्नरों का ही चढ़ता है. किन्नर हर धर्म का सम्मान करते व मानते हैं, लेकिन उनके मुताबिक़ मृत्यु होने की दशा में हर किन्नर को सिर्फ़ दफ़नाया जाता है.
दफ़नाने की बात पर उन्हीं किन्नरों में से सोनिया बताती हैं, उन्हें मुस्लिमों के किसी क़ब्रिस्तान में नहीं दफ़नाया जाता, बल्कि किन्नर अपने निजी ज़मीन में या घर में ही दफ़नाते हैं.
उन्होंने अपने एक मान्यता के बारे में बताया कि भले ही वो किसी भी धर्म को मानते हों, लेकिन मरने पर मुस्लिम धार्मिक नियमों से ही चलना होता है. ये प्रथा सदियों से चली आ रही है.
वो कहती हैं, भारत में किन्नरों को असली फ़क़ीर माना जाता है. उनके अगर सुबह दर्शन हो जाए तो माना जाता है कि सारे आज काम पूरे होंगे. यानी जिन्हें अल्लाह, वाहे गुरु, यीशु मसीह, भगवान के बहुत क़रीब माना जाता है, वही मालिक के बन्दे अपनी पहचान के लिए भी किसी सरकार या हुकूमत के आगे मजबूर हैं. क्या हमारे हक़ों के लिए क़ानून बनाने से पहले हमसे पूछना ज़रूरी नहीं?
रिंकी किन्नर अपने आंखों में आंसू लिए कहती हैं कि ट्रेन या बस में कोई सीट नहीं देता चाहता है, चाहे हम बीमार ही क्यों न हों. उनके साथ खाना-पीना तो दूर, लोग बैठना भी पसंद नहीं करते. जबकि सबको दुआएं देते हैं, सबका भला चाहते हैं. अगर समाज उन्हें कुछ देना चाहती है तो बस थोड़ी इज़्ज़त दे दे और उनके इस पंथ का अपमान न करे. रिंकी डेहरी किन्नर की सचिव हैं.
यक़ीनन इसमें कोई शक नहीं है कि हमें रोज़मर्रा की जिंदगी में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलेंगे, जहां किन्नरों को देखते ही नाक-भौं सिकोड़ लिया जाता है. ये विडम्बना ही है कि आज कई जगहों पर नगर निगम पार्षद, विधायक आदि के चुनावों में किन्नर समाज अपने प्रतिनिधी खड़ा करने लगा है. स्त्री-पुरुष समाज की तरह किन्नर समाज को भी सभी मूल अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन बावजूद इसके आज भी किन्नरों को समाज में वह स्थान नहीं प्राप्त हो पा रहा है, जिससे कि उनको समाज के मुख्यधारा में शामिल एक सामान्य आदमी माना जा सके.