हाथ फैलाकर जीना चाहते हैं या मेहनत कर अपना भाग्य अपने हाथों लिखना चाहते हैं?

सरस्वती अग्रवाल

उत्तराखण्ड : “व्यवसाय करने के लिए ज़्यादा पढ़ा-लिखा होना ज़रुरी नहीं है, बल्कि रुची होना ज़रुरी है.”


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ये वाक्य है उत्तराखण्ड राज्य जनपद चमोली ग्राम भटोली के एक साधारण परिवार की गृहणी गीता देवी का, जिन्होंने सिर्फ़ 5वीं तक शिक्षा ग्रहण की है. बावजूद इसके वो एक सफल उद्धमी हैं और हर महीने 3500 से 4000 तक कमा लेती हैं.

दरअसल, गीता देवी को घरेलू महिला से सफल उद्धमी स्थिति ने बनाया और गीता देवी ने स्थिति से भागने के बजाए साथ चलना पसंद किया.

आपको बता दें कि गीता देवी के परिवार में पति-पत्नी 3  बेटियों और 2 बेटों को मिलाकर कुल 7 सदस्य हैं. सम्पूर्ण परिवार पूर्ण रूप से पति दरवान लाल पर निर्भर था, जो राज मिस्त्री का कार्य करते हैं. इसके अतिरिक्त आय का और कोई साधन नहीं था. मजदूरी से केवल तीन हज़ार की मासिक आय प्राप्त होती थी.

उनका एक कच्चा मकान है, जिसमें दो कमरे व एक किचन है. गीता कृषि एवं पशुपालन का कार्य करती थी उनके पास 2 नाली सिंचित (आधा एकड़ से कम) व 20 नाली (एक एकड़) असिंचित भूमि है, एक बैल तथा एक गाय है, जिससे परिवार की दूध की आवश्यकता पूरी हो जाती है. इसके अतिरिक्त गीता कभी-कभी घर के काम के साथ-साथ फटे पुराने कपड़े भी सिल लेती थी.

एक दिन उद्योगिनी संस्था के कार्यकर्ताओं ने उनके गांव में ग्राम स्तरीय बैठक का आयोजन किया तथा ग्रामीणों को देहरादून स्थित “दी हंस फाउन्डेशन” के वित्तीय सहयोग से चलाए जा रहे उद्यमिता एवं कौशल विकास प्रशिक्षण की जानकारी दी. इस बैठक में गीता ने भी भाग किया तथा अपनी रूचि के अनुसार सिलाई के लिए आवेदन किया और 60 दिन का सिलाई प्रशिक्षण प्राप्त किया.

15 दिन के प्रशिक्षण के दौरान ही गीता को लगा कि उनके कपड़ों की सिलाई में सफ़ाई नहीं आ रही है और प्रशिक्षण में भी दो प्रतिभागियों पर एक मशीन उपलब्ध थी. इसीलिए उन्होंने सोचा कि यदि वह अपनी मशीन से प्रशिक्षण प्राप्त करे तो वह जल्दी ही सफ़ाई से कपड़े सिलने लगेगी. क्योंकि वो अब इस हुनर को अपनी जीविका का साधन बनाना चाहती थी.

कारणवश गीता ने जो पैसे बैंक में जमा किये थे, उसका प्रयोग कर सिलाई मशीन खरीद ली और प्रशिक्षण के दौरान अपनी मशीन से प्रशिक्षण प्राप्त करने लगी. तत्पश्चात उनकी सिलाई में सफ़ाई आने लगी तब गीता ने आस-पास की महिला से सीधे संपर्क कर कपड़े सिलवाने का प्रस्ताव रखा ताकि उन्हें अपना हुनर दिखाने के एक मौक़ा मिल सके. धीरे-धीरे उनके पास कपड़े सिलवाने की डिमांड भी आने लगी थी तो घर पर कपड़े सिलने का कार्य शुरू कर दिया.

डिमांड बढ़ने पर दुकान खोलने का फैसला लिया और बाज़ार जाकर दुकान के लिए कमरा ढूंढा, जिसका किराया 500 रूपये मासिक देना तय हुआ. इसमें उनके पति ने उनका सहयोग किया. फिर भी पैसे कम पड़ने पर गीता ने 3500 रूपये में अपने बैल बेच दिये, 5000 अपने भाई से लिए और 1400 उसने सिलाई से कमाये थे. इसके अतिरिक्त 1500 स्वयं से लगाए. मशीन में व्यय क़ीमत को जोड़कर गीता देवी ने लगभग 15 हज़ार में अपना उद्यम स्थापित किया. गीता के इस प्रयास के कारण न सिर्फ़ घर की आर्थिक स्थिति अच्छी हुई, बल्कि उनमें भी एक आत्मविश्वास भी पैदा हुआ है. 

गीता के इस काम के कारण जीवन में क्या बदलाव आया है? ये पूछने पर उनके पति दरवान लाल कहते हैं कि “पहले घर की पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर थी. कभी काम न मिलने पर घर चलाना काफी मुश्किल होता था. लेकिन गीता के कारण थोड़ा सहारा हो गया है. अब कभी काम न भी मिल पाए तो ज़्यादा चिंता नहीं होती. गर्व है कि गीता ने कुछ कर दिखाया है.”

स्वयं गीता अपने काम से कितनी खुश और संतुष्ट हैं? इस सवाल के जवाब में वो कहती हैं, “सिलाई प्रशिक्षण के दौरान अन्य लोगों से बातचीत का अवसर प्राप्त हुआ और घर से बाहर आने का भी. इस काम के कारण मुझे अपनी क्षमता का अंदाज़ा हुआ और अब मैं रुकुंगी नहीं, बल्कि भविष्य में अपनी दुकान में लेडिज़ कपड़ों की थान, कुछ ज़रुरत के सामान भी रखुंगी. साथ ही धीरे-धीरे एक सिलाई सेंटर भी स्थापित करुंगी, ताकि हमारे गांव की लड़कियां के हाथों में भी सिलाई का हुनर आए. अगर हाथ में कोई हुनर हो तो बुरे समय में वही काम आता है और आप मेहनती हैं तो फिर आपको आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता.”

निसंदेह गीता देवी ने मेहनत और लगन के बल पर ये साबित कर दिखाया है कि कम पढ़ा-लिखा होने के बाद भी सफल होकर एक अच्छा जीवन जिया जा सकता है. ये आप पर निर्भर करता है कि आप किसी के आगे हाथ फैलाकर जीना चाहते हैं या मेहनत कर अपना भाग्य अपने हाथों लिखना चाहते हैं. (चरखा फीचर्स)

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