Home Articles ट्रिपल तलाक़ : इस्लाम में क्या है?

ट्रिपल तलाक़ : इस्लाम में क्या है?

तरन्नुम सिद्दीक़ी

इस्लाम और इस्लामिक देशों में ‘तलाक़’ कभी कोई मसला नहीं रहा. सच तो यह है कि हमारे देश में मुसलमानों की शिक्षा की कमी और अपने मज़हब के बारे में ज्ञान की कमी के कारण हमेशा इस पर तरह-तरह की बातें होती रही हैं. इसके लिए इस्लाम के बारे में हमारा ‘अल्प-ज्ञान’ अधिक ज़िम्मेदार है.

मैं यहां यह सब बातें एक उलेमा या इस्लामिक स्कॉलर की हैसियत से नहीं कह रही हूँ, बल्कि एक मुसलमान की हैसियत से कह रही हूँ, जो कि क़ुरान को समझ कर पढ़ता है और क़ुरान व सुन्नत पर अमल करता है.

इस्लाम में ‘तलाक़’ शब्द को अल्लाह के नज़दीक सबसे बुरे लफ्ज़ों में से माना गया है. मगर, दो शख्स जो पति पत्नी की हैसियत से रह रहे हैं, उनका अगर कुछ वजहों से साथ रहना मुश्किल हो रहा है तो वह अलग हो सकते हैं या यह कहें कि वह तलाक़ ले सकते हैं. जैसे कि अगर उनमें आपस में रोज़ झगड़े हो रहे हों और मार-पीट होती हो या आपस में तालमेल न बैठता हो या पति-पत्नी में से किसी एक का ग़लत संगत में होना तो वह आपस में तलाक़ ले सकते हैं. मगर तलाक़ कभी भी गुस्से की हालत में या नशे की हालत में या पत्नी के मासिक धर्म की स्थिति में नहीं देना चाहिए. तलाक़ पति-पत्नी दोनों ले सकते हैं. इसके कुछ तरीक़े हैं. तलाक़ मौखिक और लिखित दोनों होते हैं.

तलाक़ का वर्गीकरणः

1.         पति या पत्नी की मृत्यु हो जाने पर

2.         दोनों पक्षों की इच्छा से

3.         न्यायिक प्रक्रिया द्वारा

दोनों पक्षों की इच्छा द्वाराः

तलाक़ बिद्दतः जिसमें तीन बार तलाक़-तलाक़-तलाक़ कहने को तलाक़ मानना या हो जाना इस प्रकार की तलाक़ को सबसे बुरा समझा गया है. इस तरह की तलाक़ खुदा के नज़दीक सबसे बुरा अपराध है और इसे गुनाह समझा गया है.

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल0) ने कहा है -‘तमाम अनुज्ञात चीज़ों में तलाक खुदा के निकट घृणित कार्य है.’ (Abu Daud Sunnan, Kitab Al-Falaq 2/255)

तलाक़ अल हसनः यह पति द्वारा तीन मासिक धर्म के दौरान तीन बार तलाक़ कहने से होता है. एक तलाक़ एक मासिक धर्म में दी जाती है. इसे उसी अवधि में रद्द किया जा सकता है. फिर यह प्रक्रिया दूसरी बार अपनाई जाती है. अब अगर इसे तीसरी बार किया जाता है, तब इसे वापस नहीं लिया जा सकता है.

तलाक़ अल अहसनः तुहर की अवधि (वह अवधि जब पत्नी का मासिक धर्म न हो रहा हो) के दौरान तलाक़ देना और फिर दो या तीन महीने रूकना. उसके बाद अगर आपस में राज़ी हो जाते हैं, तो तलाक़ को रद्द कर सकते हैं. और अगर एैसा नहीं होता है फिर दोनों अलग हो जाते हैं और तीन महीने की इद्दत की अवधि पूरी होने के बाद अगर फिर से वह एक होना चाहते हैं तो एक हो सकते हैं. ऐसा करने के लिए उन्हें फिर से नया निकाह और नया मेहर तय करना होगा. यह पूरी प्रक्रिया दो बार हो सकती है. इसके लिए हलाला करने की आवश्यकता नहीं है. हां! आपस में नया निकाह और नया मेहर तय करना होगा. परन्तु अगर यही प्रक्रिया तीसरी बार होती है तो फिर पति पत्नी की तलाक़ मानी जाएगी और हलाला करना पड़ेगा.

(हलाला का अर्थ पत्नी को दूसरी शादी करनी पड़ेगी और अगर वह उस दूसरे पति से तलाक़ लेती है या दूसरा पति उसे तलाक़ देगा और उसकी इद्दत की अवधि पूरी होगी, फिर वह पहले पति से विवाह कर सकती है.)

अगर हम इतिहास में जाते हैं तो हज़रत मोहम्मद (सल्ल0) साहब के समय में अगर कोई शख्स तीन बार तलाक़ देता या कहता था तो उसे एक समझा जाता था और वही प्रक्रिया अपनाई जाती थी तलाक़ अल अहसन में अपनाई जाती है.

इसका ज़िक्र क़ुरान के सूरे अल बकर (Ch -2  V-228-240) सूरे अल तलाक़ (Ch-65 V-1-7) में मिलता है. हज़रत मोहम्मद के बाद यही प्रक्रिया आगे चलकर खलीफ़ा हज़रत अबू बकर के समय अपनाई गई. उनके बाद खलीफा हज़रत उमर के वक्त दो साल तक तो यही तरीक़ा अपनाया गया. परन्तु बाद में तीन तलाक़ को तलाक माना गया और उसे तलाक़ मान लिया जाता था.

इस मसले को लेकर उलमों में इख्तीलाफ़ है कुछ पहले तरीक़े को सही मानते (तलाक अल अहसन) और कुछ हज़रत उमर के तरीक़े को तीन तलाक़ मतलब एक तलाक़ और तलाक़ हो जाना एक मुसलमान की हैसियत से हमे वह चीज़ अपनानी चाहिए, जो क़ुरान में है और जो हज़रत मोहम्मद (सल्ल.) ने अपनाई (सुन्नत), मगर मुसलमान खासकर भारत का मुसलमान इस तरीक़े को नहीं अपनाता, जबकि इस्लामिक मुल्कों में तलाक़ अल अहसन को ही अपनाया जाने लगा है और वह तीन तलाक़ को एक तलाक मानते हैं. इसलिए यहां भी शरियत लॉ में कोडिफिकेशन की बहुत आवश्यकता है.

(लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सरोजिनी नायडू सेन्टर फॉर विमेन्स स्टडीज़ की विधिक व जेंडर एक्सपर्ट हैं.)