खुर्रम मल्लिक, TwoCircles.net के लिए
प्रेम ताज महल जैसी अभिभूत कर देने वाली इमारत का निर्माण करवा देती है और घृणा बाबरी मस्जिद जैसी पूजनीय स्थल को ध्वस्त कर देती है.
दोनों ही इमारत हैं. दोनों ही प्रेम का संदेश देती हैं. दोनों को बनवाने वाले ने कभी धार्मिक चश्मे से इसे ना देखा होगा और ना ही सोचा होगा. दोनों के बनने का अपना इतिहास है.
एक के इतिहास से छेड़छाड़ करके उसे ढ़ाह दिया गया. दूसरे को ढ़हाने की पूरी तैयारी है.
यह बातें मैं एक मुसलमान बनकर नहीं, बल्कि इंसान बनकर लिख रहा हूं.
एक के बारे में कहा गया कि यह भगवान राम की जन्मस्थली है और इसे बादशाह बाबर ने उस वक़्त बना हुआ मंदिर को तोड़कर इसका निर्माण कराया था. जबकि दूसरे के बारे में यह अफ़वाह पूरे ज़ोर-शोर से फैलाया जा रहा है कि यह ताज महल नहीं, बल्कि तेजो महल है.
कहते हैं कि सरहदों की दीवारों से ज़्यादा ज़रूरी दिलों की दीवारों को जोड़े रखना है, क्योंकि सरहदों पर खींची गई लकीर को तो हम पल भर में मिटा सकते हैं, लेकिन दिलों में जो दरारें पड़ जाती हैं, उसे अगर समय रहते ना जोड़ा गया तो फिर वह नफ़रत व घृणा का रूप ले लेती हैं. और फिर शुरू होता है एक ऐसा तांडव जिससे पूरी सृष्टि में हाहाकार मच जाता है.
यह कैसी विडंबना है कि एक तऱफ तो हम ख़ुद को विकसित देश की सूची में लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, वहीं दूसरी ओर हम धार्मिक उन्माद को परस्पर बढ़ावा भी देते जा रहे हैं. क्या एक साथ यह दोनों विचारों का संगम होना मुमकिन है?
मेरे हिसाब से तो क़तई नहीं. हाँ! आप (विकृति मानसिकतावादी) सोचने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं.
25 साल हो गए बाबरी मस्जिद की शहादत को. लेकिन आज तक हम इस सोच से ख़ुद को बाहर नहीं निकाल पाए हैं. एक मायाजाल जिसमें हमें उलझाया गया और हम उलझते ही चले गए. ना जाने इस मायाजाल ने कितनों को लील लिया, बावजूद इसके इसमें उलझाने वाले तो “विकासशील पुरुष” की फ़हरिस्त में परस्पर आगे ही बढ़ते रहे. लेकिन इसमें फंसने वालों का हाल उस कुत्ते की तरह हो गया, जिसके पूरे बदन पर घाव की एक ऐसी परत जम चुकी है जिससे वो छुटकारा पाना तो चाहता है, परंतु कभी उसे वह घाव दिखे ही नहीं.
होना तो यह चाहिए था कि वो उस घाव का इलाज करवाने के लिए अच्छे डॉक्टर से सलाह लेता. भगवान के बनाए हुए अक़्ल का इस्तेमाल करता. लेकिन हाय रे इंसान… ख़ुद को देश के “विकास” रुपी रस्सी को मज़बूती से पकड़ने की जगह उसने “विनाश” रुपी ख़ंजर अपने हाथों में थाम लिया. और यहां से शुरू हुआ आस्था के पागलपन का वो खेल जिसने समूचे देश को धीरे-धीरे एक ऐसी कभी ना ख़त्म होने वाली जंग में बदल दिया, जिसका अंत सिर्फ़ और सिर्फ़ विनाश है.
पिछले 25 सालों से हम हर दिन मरे. हर पल… हर लम्हा… हमारा जीवन ऐसे ही हो गया है, जैसे देश की राजधानी दिल्ली के वातावरण में फैली वह धुंध, जिसमें न तो साफ़ दिखाई देता है और न ही पूरी तरह अंधकार होती है. और हम बस चले जा रहे हैं एक ऐसी डगर पर, जिसकी मंज़िल का पता हमें ख़ुद भी नहीं है.
बस एक भीड़ है और हम इसका हिस्सा बन जाने को अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हुए गर्व के साथ शामिल हो जाते हैं. हम यह भी नहीं समझ पाते कि ऐसी ही एक भीड़ दूसरी तऱफ भी है, जो आपके साथ बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार करने के लिए पूरी तरह उत्साहित है.
इस ख़ूनी खेल में कौन किसका ख़ून पीता है, कोई नहीं जानता. आँख तब खुलती है, जब आपका अपना कोई ख़ून में लतपत सड़क के किसी चौराहे पर नंगा पड़ा होता है और आवारा कुत्ते उसे नोच-नोचकर अपने पेट की आग बुझाते हैं.
हाँ! तब ही हमारे दिल में एक टीस उठती है. दर्द से आप बिलबिला उठते हैं. आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है. दिमाग़ की रगें फटने लगती हैं. दिल में एक अजीब सी हलचल मच जाती है. और तब एक सवाल हमारे सामने आ खड़ा होता है. और आप बड़बड़ाते हुए ख़ुद से कहते हैं कि “इसे क्यों मारा?”
एक जुमले में हमारे इस सवाल का जवाब है, लेकिन आज तक हम इसका जवाब नहीं ढूंढ पाए, क्योंकि हम आज तक उस मकड़जाल से निकल ही नहीं पाए हैं, जिसमें हमारे धर्म के ठेकेदारों ने हमें ऐसा उलझाया है कि हमने उसे ही कवच समझ लिया है.
अब तो ऊपर वाले से यही कामना है कि आगे आने वाली नस्लों को इस सवाल का सामना ना करना पड़े. नहीं तो इस देश में सिर्फ़ मंदिर, मस्जिद रहेगी, लेकिन उसमें पूजा या इबादत करने वाले लोग नहीं रहेंगे.
मेरे देशवासियों! सोचो, समझो, परखो, तोलो और फिर अपनी बात बोलो. यह जंग एक दिन तुम्हें भी लील लेगी. याद रखना! क्योंकि जंग में चलने वाले हथियार किसी विशेष वर्ग, धर्म, जात नहीं देखती, उसकी नज़र तो सिर्फ़ अपने शिकार पर होती है. और वह शिकार हिंदू भी हो सकता है और मुसलमान भी…
इसलिए मेरी आप सभी से यह विनम्रता पूर्वक निवेदन है कि अपने आपको देशहित के कामों में लगाएं. पढ़ें, ख़ूब पढ़ें, और बढ़ें. इससे आपका घृणा से भरा हुआ दिमाग़ भी विकसित होगा और देश का भी विकास होगा. और तब होगा ‘सबका साथ —सबका विकास’
यही मेरी मनोकामना है आप सभी देशवासियों से…
जय हिंद
(लेखक पटना में एक बिजनेसमैन हैं.)