अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
अमरोहा : कहते हैं कि 1262 में जब हज़रत सैयद शर्फुद्दीन शाह विलायत यूपी के मुरादाबाद के अज़ीज़नगर आए तो यहां के भटियारों ने उन्हें फ़क़ीर समझ कर आम और रोहू मछली दिया. शाह विलायत यहीं रूक गए. आपने अजीजनगर को आम रोह कहा, जो आगे चलकर अमरोहा हो गया. हज़रत सैयद शर्फुद्दीन शाह विलायत को ‘सुलतान-ए-अमरोहा’ कहा जाता है. अमरोहा में स्थित इनका मज़ार पूरे देश में काफी मशहूर है. कहा जाता है कि यहां सांप-बिच्छू का डंक किसी को नहीं लगता है. चुनाव के आख़िरी समय तक यूपी के ज़्यादातर प्रत्याशी अपनी जीत की दुआ के लिए इस मज़ार की ज़ियारत ज़रूर करते हैं.
इस बार अमरोहा जिले में बेहद ही दिलचस्प लड़ाई है. समाजवादी पार्टी का गढ़ माने जा रहे इस चुनाव क्षेत्र में इस बार सपा मुश्किल में है. पिछले विधानसभा चुनाव में सपा ने यहां की चारों सीटों (धनौरा, नौगवां सादात, अमरोहा और हसनपुर) पर क़ब्ज़ा जमाया था, लेकिन इस बार ये सीटें सपा के हाथ से खिसकती नज़र आ रही हैं.
अमरोहा विधानसभा सीट से सपा को तुर्क बिरादरी के विरोध का सामना करना पड़ सकता है. इसकी वजह मौजूदा विधायक व कैबिनेट मंत्री महबूब अली के भाई का हिस्ट्रीशीटर शौकत पाशा के मर्डर में रोल को बताया जा रहा है. तुर्क बिरादरी के आरोपों के मुताबिक़ महबूब अली के भाई भूरा अली ने शौकत पाशा को अपने समधी के पेट्रॉल पम्प पर बुलाकर हत्या करवा दी थी.
65 साल के तसव्वूर हुसैन का कहना है, ‘मंत्री महबूब अली ने बहुत काम किया है. लेकिन इस बार हमारा ‘महबूब हटाओ’ अभियान चल रहा है. हिन्दू-मुस्लिम सभी मिलकर इसी एजेंडे पर वोट करेंगे.’ 40 वर्षीय मो. आश्कार भी कहते हैं, ‘गांव-मुहल्ले की सियासत से लेकर राज्य की सियासत तक सारे पद मंत्री महबूब के घर में ही है. लोगों में गुस्सा है, आख़िर ऐसा क्यों? शौकत पाशा के मर्डर में मंत्री महबूब का नाम है, लेकिन पुलिस उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है.’
49 साल के क़ासिम अली स्पष्ट तौर पर बताते हैं, ‘तुर्क बिरादरी हमेशा से महबूब का साथ देती आयी है. लेकिन इस बार तुर्क बिरादरी खासतौर पर महबूब अली से नाराज़ है. सच पूछे तो विकास पर मर्डर भारी पड़ रहा है.’
लेकिन 42 साल के नवाब आलम अपनी वोट अखिलेश यादव को ही देने की बात कहते हैं, क्योंकि उन्होंने विकास किया है. तुर्क हैं, फिर भी अखिलेश को वोट? इस सवाल पर वो मुस्कुराते हैं और फिर बोलते हैं, ‘कुछ मसला है मेरा. मेरे बहनोई ही मंत्री जी को चुनाव लड़वा रहे हैं, इसलिए मेरा वोट तो उधर ही जाएगा.’
55 साल के विक्रम सिंह कहते हैं, ‘हमारी पूरी जाटव बिरादरी के लोग वोट बहन जी को देंगे. अखिलेश ने तो हमारे लिए कुछ भी नहीं किया. बसपा सबकी पार्टी है. इसके शासन में सबकुछ दुरूस्त रहता है.’ मो. इमरान, जुनैद और शोएब का कहना है, ‘हमारा वोट तो अखिलेश यादव को ही जाएगा.’
वहीं 48 साल के अरविन्द कुमार की मानें तो भाजपा के भी ज़्यादातर कार्यकर्ता डॉ. केएस सैनी को टिकट मिलने पर अभी तक नाराज़ हैं. अरविन्द बताते हैं, ‘भाजपा ने राम सिंह या अतुल जैन का टिकट काटकर अच्छा नहीं किया. ये होते तो मुसलमान भी भाजपा को वोट करते हैं, लेकिन भाजपा के इस उम्मीदवार का खामियाजा चुनाव में भुगतना पड़ेगा.’
दरअसल, इस बार अमरोहा की पूरी राजनीति विकास पर न होकर जाति-बिरादरी और शौकत मर्डर केस के इर्द-गिर्द घूम रही है. वैसे अखिलेश से तो यहां के ज़्यादातर लोग नाराज़ नहीं लगते, मगर महबूब अली को लेकर उनकी नाराज़गी साफ़तौर पर झलक रही है. उनका कहना है कि वे अखिलेश के साथ हैं, मगर यहां का प्रत्याशी उन्हें पसंद नहीं है. इनके इस नाराज़गी का सीधा लाभ यहां के बसपा प्रत्याशी नौशाद अली को मिलता दिख रहा है.
जानकारों के मुताबिक़ अमरोहा विधानसभा सीट मुस्लिम बहुल है. यहां 2 लाख 65 हज़ार वोटरों में क़रीब दो लाख मुसलमान वोटर हैं, जिसमें क़रीब 50 हज़ार से अधिक की आबादी तुर्को की है. वहीं क़रीब 15 हज़ार सैफ़ी बिरादरी के भी लोग हैं और बसपा प्रत्याशी इसी बिरादरी से आते हैं. इसके अलावा यहां क़रीब 30 हज़ार जाटव भी हैं. इनको लेकर ये तय माना जा रहा है कि इस बार इनका वोट बसपा को ही मिलेगा.
हालांकि नौशाद के लिए भी यह लड़ाई इतनी आसान नहीं है. अय्यूब अंसारी की पीस पार्टी ने मोहम्मद रिज़वान और ओवैसी की मजलिस ने शमीम अहमद के रूप में अपने प्रत्याशी उतारकर इस चुनावी जंग को और भी दिलचस्प बना दिया है. ओवैसी ने काफी चालाकी के साथ तुर्क कार्ड खेला है. उनका प्रत्याशी भी तुर्क समुदाय से आता है. ऐसे में मजलिस का ये प्रत्याशी तुर्कों का वोट काटने में कामयाब होता है तो बसपा का खेल भी यहां बिगड़ सकता है, लेकिन फिलहाल ऐसा होता यहां दिख नहीं रहा है.
अमरोहा की सियासी महाभारत सपा के लिए यक़ीनन चुनौती बन चुकी है. ये सीट हारने की सूरत में पार्टी का रिकार्ड तो ख़राब होगा ही, साथ ही इसका असर अमरोहा के बाक़ी सीटों पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है. ऐसे में सपा उम्मीद कर रही है कि महबूब अली वोटिंग से पहले तुर्क मतदाताओं की नाराज़गी किसी भी तरीक़े से दूर सकें, जिसकी कोशिशें अभी जारी हैं. ये कोशिशें कितना कामयाब रहेंगी, इसका फैसला 11 मार्च को होना है. यहां मतदान 15 फरवरी है.
बताते चलें कि 2012 विधानसभा चुनाव में महबूब अली ने अमरोहा विधानसभा सीट से 60807 वोट हासिल करके पहले स्थान प्राप्त किया था. वहीं भाजपा के राम सिंह 39002 वोट, बसपा के शाहिद 32886 वोट पाकर क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान पर रहे थे. वहीं नौशाद अली 24768 वोट पाकर चौथे स्थान पर थे, तब नौशाद ने पीस पार्टी से चुनाव लड़ा था.
स्पष्ट रहे कि इस बार अमरोहा विधानसभा सीट से 13 उम्मीदवार मैदान में हैं. भाजपा से कुंवर सैनी, बसपा से नौशाद अली, सपा से महबूब अली, रालोद से सलीम खान, पीस पार्टी से मोहम्मद रिज़वान, ओवैसा की पार्टी मजलिस से शमीम अहमद और राष्ट्रीय किसान मज़दूर पार्टी से मो. शोएब चुनावी मैदान में हैं. वहीं खुर्शीद अहमद, यासिर अब्दुल्लाह, मो. हसीन, शशि, भोले और धर्मवीर सिंह सैनी बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं.