Home Lead Story बीड़ी ही बना जीने का सहारा…

बीड़ी ही बना जीने का सहारा…

निकहत प्रवीन

भागलपुर (बिहार) : बड़ा बेटा उसके बग़ल में बैठा था और छोटे बेटे को गोद में लिए, सिर झुकाए वो लगातार बीड़ी बनाए जा रही थी. आप कब  से इस काम को कर रही हैं? और कोई काम क्यों नही करती? कई बार पूछने पर उसने डबडबाती आंखों और लड़खड़ाती ज़बान से जवाब दिया बचपन से

ये कहानी है बिहार के ज़िला भागलपुर के हबीबपुर मोहल्ले में रहने वाली 27 वर्षीय रुख़साना खातुन (बदला हुआ नाम) की, जो बीड़ी बनाकर अपना और परिवार का पेट पाल रही हैं. अपनी दुख भरी कहानी सुनाते हुए कहती हैं, बचपन को सही से जानती भी नहीं थी कि मेरी शादी हो गई. जब कुछ होश संभाला तो समझा कि ससुराल क्या होता है. ससुराल में ज्यादा लोग नही थें. सास-ससुर के अलावा बस मैं और मेरे पति थें. पति पास के किराने दुकान में दोस्त के साथ काम करते थें. ठीक ठाक कमा लेते थें तो घर चल जाता था. सास भी कुछ घरों में झाड़ू-पोछा का काम करती थीं. हां, मुझे कभी साथ काम करने को नहीं कहा.

सब ठीक ही चल रहा था कि पहले सास और फिर ससुर का इंतक़ाल हो गया. उसके बाद जैसे मेरी दुनिया ही बदल गई. सदमें से मेरे पति पहले बीमार हुए और फिर उनकी आवाज़ चली गई. जितना करा सकती थी उतना इलाज कराया. मौलवी को भी दिखाया, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ.

इलाज कराते-कराते कब सारे पैसे खर्च हो गए पता ही नहीं चला. अब तो हालत ये है कि वो न तो कुछ बोल पाते हैं न सही से चल-फिर पाते हैं. ऐसे में काम करने बाहर कैसे जाएं.

मुझे मालुम नहीं था कि ज़िंदगी में ऐसा भी मोड़ आएगा, लेकिन क्या करती. घर चलाना था. तीन बच्चों को पालना था. तब मैंने पास के घर में काम करने वाली अपनी एक सहेली से बात की कि वो बीड़ी बनाने का काम मुझे भी दिलवा दे. कम से कम घर बैठे कुछ पैसे आ जाएंगे. अब तो इसी काम से सब चल रहा है.

क्यों कोई और काम क्यों नहीं किया? सवाल के जवाब में वो कहती हैं, पढ़ी- लिखी तो हूं नहीं और क्या काम करती? हां, मेरी सास जिन घरों में काम करती थी, वहां कोशिश की थी. लेकिन उन्होंने काम करवाने से मना कर दिया.

बीड़ी बनाने का काम ही क्यूं चुना? मेरे इस पर वो कहती हैं, हमारे मुहल्ले में कई ऐसे घर हैं, जहां औरते सवेरे-सवेरे घर का काम करके सारा दिन बीड़ी बनाती रहती हैं. बचपन में मैंने भी अपने नाना के साथ मिलकर ये काम किया है. तब तो डांट भी खानी पड़ती थी, लेकिन तब ये कहां जानती थी कि बचपने में किया गया खेल ही एक दिन मुझे काम आएगा.

अच्छा तो रोज़ की कमाई कितनी हो जाती है और कितनी बीड़ी एक दिन में बना लेती हैं?  इस सवाल के जवाब में वो कहती हैं, रोज़ की कमाई एक जैसी नहीं. जितनी बीड़ी बनाओ उसी हिसाब से पैसा मिलता है. जैसे 500 बीड़ी बना लूं तो 60 रुपए तक मिल जाते हैं. उससे कम हो तो पैसे कम और ज्यादा बनाओ तो ज्यादा पैसे. लेकिन अकेले हाथों से 500 बीड़ी बनाना आसान नहीं. कुछ घरों में सारा परिवार इसी काम में लगा हुआ है वो ज्यादा बीड़ी बना पाते हैं और कमाते भी मुझसे अच्छा हैं. पर मैं जितना कमा पाती हूं उसी में खुदा का शुक्र अदा करती हूं. कम से कम किसी के सामने भीख तो नहीं मांगती.

इस काम को करने में परेशानी नहीं होती? ये पूछते ही थोड़ी देर के लिए वो ख़ामोश रही फिर कहने लगी, सबसे ज्यादा परेशानी तो तब हुई थी जब छोटा बेटा पैदा होने वाला था. नौ महीने उसे पेट में लेकर बीमार पति, दो बच्चे और बीड़ी बनाने के काम को मैंने कैसे संभाला है, ये मैं ही जानती हूं. जैसे-जैसे दिन बढ़ रहे थे, उस हालत में बैठकर बीड़ी बनाने में पूरा शरीर जवाब दे देता था.

वो आगे कहती हैं, कई लोगों ने ये भी कहा कि ऐसी हालत में बीड़ी बनाउंगी तो होने वाले बच्चें पर भी असर पड़ेगा, लेकिन मैं उसके बारे में सोचती या परिवार के बारे? इसलिए मैंने काम को जारी रखा. अल्लाह का शुक्र है कि बेटा सेहतमंद पैदा हुआ. शायद ऊपर वाला भी मेरी मजबूरी समझता है. बस उसी का नाम लेकर हर रोज़ ये काम करती हूं. इतना कहते ही वो दुबारा उसी धुन के साथ बीड़ी बनाने में जुट गई.

रुख़साना खातुन का हौसला हम सबको प्रेरणा देता है. लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि हबीबपुर मुहल्ले में ऐसी न जाने कितनी रुख़साना हैं और पूरे बिहार में न जाने कितने ऐसे परिवार हैं जो बीड़ी बनाकर किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं. लेकिन उन्हें इसका भरपूर लाभ नहीं मिल पा रहा. सरकार यदि इस क्षेत्र से जुड़े सभी परिवारों की सुध लें, विशेषकर महिलाओं की स्थिति पर ध्यान केन्द्रित कर उन्हे रोज़गार के अन्य विकल्प उपलब्ध कराए तो बेहतर होता.

(लेखिका चरखा फीचर्स के साथ बतौर सम्पादक जुड़ी हुई हैं.)