अफ़शां खान
दिल्ली के क़रीब एक छोटे से गांव में निठारी की कोठी नम्बर—5, मुल्क का एक ऐसा ख़ौफ़नाक पता है, जिसका ज़िक्र हो जाए तो सबके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सच पूछे तो यहां इंसान नहीं, बल्कि इंसानी शक्ल में दरिन्दे रहते थे, जो जानवरों से भी गए गुज़रे थे. कैसे इन्होंने बच्चों को पकाकर अपनी भूख मिटाई होगी? किस दिल से उन्होंने ऐसा किया होगा? क्या सच में ये इंसान नहीं थे? क्या सच में इनकी इंसानियत मर गई थी?
मुझे नहीं लगता है कि निठारी कांड से जुड़े तथ्यों, क़िस्से-कहानियों को आपके समक्ष फिर से रखने की अधिक ज़रूरत है. बावजूद इसके मुझे लगता है कि मुल्क के ज़्यादातर लोग इसे थोड़ा-बहुत ज़रूर याद रखा होगा या फिर अधिकतर भूल गए होंगे. वैसे भी यह हमारे मुल्क की विडंबना ही है कि यहां का समाज हर घटना पर आंसू ज़रूर बहाता है, लेकिन अफ़सोस कुछ ही दिनों में फिर ख़ामोश हो जाता है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि आज पूरे 11 साल बाद उन ‘दरिंदों’ का क्या हुआ और आगे क्या होगा? हद तो यह है कि पूरे 11 साल बीत गएं, लेकिन ये मामला अभी तक निचली अदालतों में ही चक्कर काटता रह गया. ये कोई पहला मामला नहीं है. ऐसे भी कई जघन्य मामले हैं, जो अदालतों में देरी की वजह से लोग भूलने लग जाते हैं. अगर ऐसे ही धीमी रफ़्तार से अदालतें चलेंगी तो यक़ीनन ज़्यादातर लोग इन जघन्य कांडों को भूल जाएंगे. और जब लोग भूल जाएंगे तो न न्याय का अर्थ रह जाता है और न ही उसके सबक़ का.
यहां यह भी बताते चलें कि सीबीआई की विशेष अदालत के इस फैसले के साथ इस निठारी कांड में कोली को 8वीं बार और पंधेर को दूसरी बार फांसी की सज़ा सुनाई गई है. आगे भी इनके लिए हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के रास्ते खुले हुए हैं और इन अदालतों के बाद राष्ट्रपति कार्यालय का दरवाज़ा भी इनके लिए बचा हुआ है. अब देखना दिलचस्प होगा इनमें अब कितने साल और लगेंगे?
बहरहाल, सीबीआई की विशेष अदालत के इस फैसले से इस ‘दुलर्भतम कांड’ के कई पीड़ितों व उनसे जुड़े लोगों के दिल को सुकून ज़रूर मिला होगा. पिंकी की मां को दिल को कुछ देर के लिए ही सही, ये तसल्ली ज़रूर हुई होगी कि मेरी बच्ची के अपराधी को फांसी की सज़ा मिल गई है. क्योंकि उस बेचारी मां को यह नहीं पता कि आगे उसे और कितना अदालतों का चक्कर काटना है, क्योंकि असल इंसाफ़ अभी बाक़ी है…