अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बेतिया (बिहार) : तकनीक के इस दौर में जहां दिल्ली व लखनऊ जैसे अदबी शहरों से ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ की रिवायत तक़रीबन ख़त्म हो चुकी है. वहीं इस रिवायत को बिहार के पश्चिमी चम्पारण ज़िले के बेतिया शहर की नई नस्ल ने इसे अभी तक ज़िन्दा कर रखा है.
रमज़ान की पाक रातों में सहरी का वक़्त होते ही ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ की टोलियां अपने आस-पास के लोगों को अपने ख़ूबसूरत कलाम व आवाज़ से जगाने के लिए निकल पड़ते हैं. इस टोली में बच्चों से लेकर बूढ़े लोग भी शामिल होते हैं.
बेतिया शहर के गंज नं. दो मुहल्ला नाज़नी चौक के क़ाफिला सदा-ए-मोमिन के मुग़न्नी सरफ़राज़ साहिल अख़्तर बताते हैं कि बीच में यह रिवायत दो-तीन सालों के लिए बंद हो गई थी. इसे फिर से हम सब लोगों ने मिलकर ज़िन्दा किया है. क्योंकि मुझे लगता है कि ये रिवायत हमेशा ज़िन्दा रहनी चाहिए.
वो बताते हैं कि रात के क़रीब 12 बजते ही सब लोग एक तय स्थान पर जमा होते हैं. वहीं चाय के चुस्की के साथ क़ाफ़िला में पढ़े जाने वाले कलाम की प्रैक्टिस करते हैं. फिर जैसे ही रात के क़रीब डेढ़ बजते हैं. वो अपनी टोली लेकर निकल पड़ते हैं. लोगों को भी हमारा ये काम काफ़ी पसंद आता है. कई लोग हमारी पूरी टोली को इफ़्तार व सहरी की दावत दे चुके हैं.
वो आगे बताते हैं कि, क्योंकि हमारे शहर में हिन्दू-मुस्लिम दोनों आबादी रहती है. इसलिए हम इस बात का ख़ास ध्यान रखते हैं कि हमारे काम से हमारे किसी ग़ैर-मुस्लिम भाई को परेशानी न हो. इसलिए हम हिन्दू इलाक़े में पहुंचते ही ख़ामोश हो जाते हैं.
बताते चलें कि बेतिया शहर नाज़नी चौक के अलावा दो-तीन इलाक़ों में और भी ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ पाबंदी के साथ निकलता है. हालांकि पहले ये तक़रीबन सभी मुहल्लों से निकलता था.
42 साल के शफ़ीउल्लाह खान बताते हैं कि हम 25 साल से ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ में शामिल होते आए हैं. बचपन से मैंने इसे गाया है. वो बताते हैं कि पहले हमारे शहर में तक़रीबन 16 जगहों से ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ निकलता था, लेकिन अब बमुश्किल तीन-चार ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ ही निकलते हैं. लेकिन हम चाहते हैं कि ये रिवायत ज़िन्दा रहे. इंशा अल्लाह हम जब तक ज़िन्दा हैं, हमारा मुहल्ला ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ निकालता रहेगा.
1985 से अब्दुल हमीद लगातार ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ में शामिल होते रहे हैं. वो बताते हैं कि बीच में दो साल के लिए यह ज़रूर बंद हो गया था, लेकिन हम सब लोगों ने मिलकर इसे फिर से ज़िन्दा किया है. वो बताते हैं कि यह काम करके दिल को बहुत सुकून मिलता है.
स्पष्ट रहे कि ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ में रमज़ान पर लिखे अलग-अलग शायरों के कलाम पढ़े जाते हैं. शुरू के रोज़ों में आमद और फिर बाद में अलविदा या विदाई के कलाम होते हैं. ईद का चांद नज़र आते ही ये ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ पूरे शहर में घूमकर अपने ‘सलामी’ कलाम को पढ़ता है. ईद के दिन भी यही कलाम पढ़ा जाता है. ईद के दिन लोग खुशी इस टोली को ईदी देते हैं व सेवईयां खिलाते हैं. पहले शायरों के कलाम पढ़ने का अपना एक अलग तर्ज होता था. लेकिन अब नौजवान ज़्यादातर इसे फ़िल्मी गानों के तर्ज पर ही पढ़ते हैं. क़ाफिला सदा-ए-मोमिन इन दिनों ख़ास तौर पर शहर के मशहूर शायर एम.एम. वफ़ा के कलाम पढ़ती है. एम.एम. वफ़ा भी इसी नाज़नी चौक मुहल्ले में रहते हैं.
एम.एम. वफ़ा बताते हैं कि, जबसे होश संभाला है, तब इस रिवायत को देख रहा हूं. मैं खुद भी बड़ों के साथ इसमें शामिल होता रहा हूं. बाद में मेरी इतनी दिलचस्पी हुई कि मैंने भी रमज़ानी कलाम लिखना शुरू कर दिया. सैकड़ों ऐसे कलाम लिखें, जो अलग-अलग क़ाफ़िलाओं में पढ़े जाते रहे हैं.
वो बताते हैं कि पहले का दौर अलग था. बड़े बुजुर्गों की भी इसमें दिलचस्पी हुआ करती है. तब लोगों के पास मोबाईल नहीं हुआ करते थे. मस्जिदों से सायरनों की आवाज़ नहीं आती थी. तब इसकी बहुत अहमियत थी. लेकिन अच्छा है कि इस मुहल्ले के नौजवानों ने इस रिवायत को ज़िन्दा रखा है.
शहर के एक और मशहूर व बुजुर्ग शायर अबुल ख़ैर निश्तर बताते हैं कि, 1938 में यहां रहने वाले मो. शाकिर अली बस्तवी ने इसी गंज नं. दो, नाज़नी चौक मुहल्ला से सहरी में जगाने के मक़सद से ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ का आग़ाज़ किया था. तब क़ाज़िम चौधरी का इसमें काफी अहम रोल रहा था. उन्होंने ही स्थानीय शायरों के साथ-साथ बाहर के शायरों के कलाम यहां क़ाफ़िला में गाने वालों को पेश किए.
वो बताते हैं कि, 1963 तक रमज़ान पर जो ताज़गी बख्श शायरी हुई, वो एक अलग तरीक़े की शायरी थी. शहर के पुराने लोगों को उसके बोल आज भी थोड़ा बहुत ज़रूर याद होंगे.
फिर वो आगे बताते हैं कि, जब 1965 में उस ज़माने के मशहूर शायर नाज़िम भारती इस बेतिया शहर में आकर बसे तो ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ का क्रेज अपने उफान पर पहुंच गया. उसी दौर में इसी गंज नं. दो मुहल्ले में ‘क़ाफ़िला सदा-ए-मोमिन’ क़ायम हुआ. नाज़िम भारती बहैसियत बड़े शायर बड़े ज़ौक-शौक़ से इस क़ाफ़िला के लिए लिखना शुरू किया. उनकी शायरी काफी अलग तरह की रही. उसमें एक अलग तरह की फ़िक्र रहती थी. जैसे रमज़ान के आमद पर लिखे उनके इस नज़्म के एक टुकड़े को ही देख लीजिए…
उठो! कलमा-ए-हक़ पढ़ो और पढ़ाओ
ज़मीं से फ़लक तक इबादत सजाओ
ये माह-ए-मुकर्रम, ये नूर-ए-मुजस्सम
मुजाहिद की ताक़त, शहीदों का दम-खम
इसी राहे रौशन को अपना बनाओ
उठो! कलमा-ए-हक़ पढ़ो और पढ़ाओ
निश्तर के मुताबिक़, 1966 से 1986 तक ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ का यहां ज़बरदस्त क्रेज रहा. अलग-अलग शहरों में मुक़ाबला हुआ. बेतिया का ‘क़ाफ़िला सदा-ए-मोमिन’ बिहार के दूसरों ज़िलों में भी जाकर मुक़ाबले में हिस्सा लिया और जीत हासिल करके लौटी. मुक़ाबला का ये दौर आठ-दस साल पहले तक जारी रहा है. अब लोगों की दिलचस्पी इसमें इतनी बची नहीं रह गई है. लेकिन इस रिवायत को यक़ीनन ज़िन्दा रखने की ज़रूरत है. निश्तर अपनी बात नाज़िम भारती के इस कलाम से ख़त्म करते हैं…
हो गया मोमिनो! हाय दिन ये तमाम
हर तरफ़ से यही आ रही है सदा
अलविदा, अलविदा, अलविदा, अलविदा…
बताते चलें कि 70 साल के अबुल ख़ैर निश्तर भी अपने जवानी के दिनों में ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ में खुद भी शामिल होते रहे हैं और इसमें पढ़ने के लिए रमज़ानी कलाम लिखते रहे हैं. इनके रमज़ानी कलाम का एक संलकन ‘अल्फ़ाज़ की खुश्बू’ प्रकाशित हो चुकी है.
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