फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
रोहतास (बिहार) : आजकल अख़ाबर के पन्ने ‘ट्रिपल तलाक़’ के ख़बरों से भरे पड़े हैं. ‘फ़ोन पर पत्नी को तलाक़ दिया’, ‘पत्र लिखकर तलाक़ दे दिया’, ‘एसएमएस से तलाक़ दे दिया’, ‘फ़ेसबुक पर तलाक़ दे दिया’. और ऐसी न जाने कितने शीर्षक के साथ हर रोज़ अख़बारों में ‘ट्रिपल तलाक़’ से संबंधित ख़बरें दिख रही हैं. ऐसा लग रहा है कि ‘ट्रिपल तलाक़’ देने वाले सारे मर्द बिहार, वो भी ख़ास तौर पर रोहतास की ज़मीन पर उतर आए हैं. और ‘ट्रिपल तलाक़’ देने वालों की जैसी बाढ़ सी आ गई है.
इन ख़बरों को पढ़ने के बाद हर किसी के मन में सिर्फ़ यही ख्याल आता है कि ये मुस्लिम मर्द कितने अजीब होते हैं. अपनी बीवियां कपड़ों की तरह बदलते हैं. जब इनका अपने उस बीवी से दिल भर जाता है, उसे ‘ट्रिपल तलाक़’ दे देते हैं.
शायद कुछ ऐसे ही सवाल मेरे भी मन में आएं, लेकिन हमने समाज में रह रहे लोगों से यह जानने की कोशिश की कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में ‘ट्रिपल तलाक़’ के कितने मामले देखें हैं, या फिर जाने हैं और सुलझाने की कोशिश की है. इस पर चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं.
नीलकोठी की रहने वाली हसीना पेशे से उस्तानी हैं. लेकिन जहां एक तरफ़ वो बच्चों को दीनी तालीम देती हैं वहीं उनके शौहर आए दिन शराब पीते हैं. वो कहतीं हैं कि, औरत चाहे तो क्या नहीं कर सकती है. मर्द तलाक़ और शरीयत का ग़लत फ़ायदा उठाते हैं, वहीं औरत भी उन ग़लतियों में शामिल होती हैं. मेरे शौहर शराब की हालत में कितनी बार तलाक़ दे चुके हैं, लेकिन मैं ऐसे किसी तलाक़ को नहीं मानती, जो तलाक़ पर ख़त्म हो जाए.
बिहार के डेहरी ऑन सोन में रहने वाली 34 साल की ज़रीना खान हमें बताती हैं कि उन्होंने अपनी खानदान में ही दो तलाक़ें देखी हैं. अपने उन रिश्तेदारों का नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बताती हैं कि जिनके दो बेटियां थीं तीसरे बच्चे पर ये शर्त उनके पति ने रखी अगर बेटी हुई तो तलाक़ दे दूंगा और फिर जिस दिन उनकी बेटी हुई तलाक़ दे दिया, लेकिन घर वालों ने और ख़ासकर पत्नी ने इस तलाक़ को ही मानने से इंकार कर दिया. इस बात को गुज़रे आज आठ साल से ज्यादा हो चुके हैं और दोनों मियां-बीवी साथ ही हंसी-खुशी रहते हैं.
रोहतास की रहने वाली नुज़हत कहती हैं कि मुस्लिम समाज में तलाक़ एक बहुत बड़ी समस्या है, लेकिन वो शरीयत के हिसाब से ‘तीन तलाक़’ को हराम कहा गया है. सरकार ‘तीन तलाक़’ को जिस तरह राजनैतिक मुद्दा बना रही है, वो कोई राजनैतिक नहीं, बल्कि हमारे समाज में रह रहे उन मर्दों की सोच है, जो तलाक़ और अपने हक़ का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं.
मेरे तीन तलाक़ के उन घटनाओं के बारे में पूछने पर जो किसी मैसेज या फ़ेसबुक या ईमेल के द्वारा दी जाती है, नुज़हत मुस्कुराते हुए कहती हैं कि अपने पूरे 40 साल की ज़िन्दगी में इस तरह की कोई घटना नहीं सुनी न देखी है. नुज़हत की तरह यहां मैंने क़रीब पचासों मुस्लिम महिलाओं से बात की और जानना चाहा कि उन्होंने खुद ऐसे कितने मामले देखे हैं, तो एक ही जवाब था –ये सवाल जाकर मोदी जी से पूछो!
इसी तरह भभुआ के रहने वाले क़ाज़ी इस्लामुल हक़ से बातचीत करने पर वो कहते हैं कि शरीयत इस तरह की तलाक़ की इजाज़त नहीं देता है, बल्कि उसके भी बहुत से नियम हैं. वो काफ़ी नाराज़ होते हुए कहते हैं कि ये सारा दोष मीडिया का है और उन औरतों का जो इस्लाम और शरीयत को सही से नहीं जानती. इस्लाम में जितना हक़ औरतों को दिया गया है उतना किसी भी धर्म में नहीं है.
अगर सरकारी आंकड़ें की बात की जाये तो जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत की जुमला तलाक़शुदा महिलाओं में 68 प्रतिशत औरतें हिंदू हैं, जबकि मुस्लिम तलाक़शुदा महिलाओं की संख्या 23.3 प्रतिशत है. उनमें भी ट्रिपल तलाक़ के मामले मुश्किल से एक या दो फ़ीसद ही होंगे.
स्पष्ठ रहे कि इस्लाम न तो ट्रिपल तलाक़ के लिये प्रोत्साहित करता है और न ही बहु-विवाह के लिए, और यह चीज़ें मुसलमानों में आम भी नहीं हैं. सर्वेक्षण के अनुसार बहुत कम लोग ही तीन तलाक़ का रास्ता अपनाते हैं और वह भी अज्ञानता के कारण. मगर इसके बावजूद अगर कोई तीन तलाक़ देता है या किसी का तीन तलाक़ देना साबित हो जाता है तो यह बतौर पति-पत्नी के इस जोड़ी के जीवन पर ज़रूर प्रभावित होगा.