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लोकतंत्र की कुछ अपेक्षाएं भी हैं…

डॉ. मो. मंजू़र आलम

किसी भी देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जनतांत्रिक अपेक्षाओं का इतना महत्व है, जितना किसी इंसान के लिए सांस का. बल्कि लोकतांत्रिक देश में जनतंत्र को बाक़ी रखना ही उसकी असली आत्मा है.

लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए समय पर चुनाव होना ज़रूरी है, ताकि चुनाव की अहमियत शेष रहे और जनता और चुने हुए प्रतिनिधियों को यह एहसास रहे कि फिर से एक दूसरे का सामना होना है. जनप्रतिनिधि अपने किए हुए वायदों को याद रखें और उन्हें पूरा करने की कोशिश करें. मतदाता वायदे न पूरा होने पर निर्वाचित जनप्रतिनिधि की जगह दूसरे जनप्रतिनिधियों को निर्वाचित कर सकें. जनता और नेता एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों एक दूसरे की ज़रूरत हैं और यह रिश्ता जितना खुशगवार रहे, लोकतंत्र के लिए उतना ही अच्छा है.

चुनाव होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी यह है कि चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी हो. और उनका अपराधों से पाक होना भी ज़रूरी है.

पहले चुनाव बूथ पर क़ब्ज़ा करके किसी भी उम्मीदवार या पार्टी को वोट दिया जाता था जिसे आम भाषा में बूथ कैप्चर कहा जाता था. अब जब से ईवीएम अर्थात इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से वोट डाले जा रहे हैं तो उनमें तमाम ख़राबियों की शिकायत मिलती रहती हैं. और आजकल तो कमाल हो गया है कि मशीन ही वोट देने लगी हैं.

हद तो यह है कि मध्य प्रदेश में प्रदर्शन के लिए तैयार रखी गई मशीन में जब राज्य सरकार के अधिकारियों की मौजूदगी में तीन बार बटन दबाए गए और तीनों बार एक ही निशान पर वोट पड़ गए तो हंगामा हो गया. मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए चुनाव आयोग के अधिकारियों के पसीने छूटने लगे कि वह क्या कहें और क्या न कहें. इसका मतलब है कि मामला कहीं ऊपर ही ऊपर है और उन अधिकारियों को भी सच्चाई की जानकारी नहीं है.

चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी वातावरण में हो, इसके लिए इस बिन्दु पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि जिन लोगों को चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी दी जा रही हो, उनका किसी पार्टी या लीडर की तरफ़ झुकाव न हो और वह अपने इस रिश्ते को निभाने न लगें. हालांकि किसी भी व्यक्ति का किसी न किसी पार्टी या लीडर की तरफ झुकाव हो सकता है. लेकिन चुनाव में लगाए गए अफ़सरों को अपनी इस भावना को किनारे रखकर चुनाव की ज़िम्मेदारियों को निभाना चाहिए, ताकि चुनाव निष्पक्ष हो.

कभी-कभी यह भी सुनने को मिलता है कि बूथ पर मशीन ख़राब हो गई फिर दूसरी मशीन मंगवाई गईं तो कभी उसी मशीन को ठीक किया गया. इसके बावजूद वोट डाले गए. निर्वाचन आयोग से मांग की गई कि अमुक बूथ पर बेहतर ठंग से चुनाव नहीं हुआ है, इसलिए वहां दोबारा वोट डलवाए जाएं. लेकिन वोट नहीं डलवाया जाता. परिणाम आने के बाद मालूम होता है कि जीतने और हारने वाले उम्मीदवार के बीच अन्तर सिर्फ़ सौ वोट या उससे भी कम का है. ऐसे में इसका गहराई से एहसास होता है कि अगर अमुक बूथ का चुनाव दोबार कराया जाता तो शायद परिणाम अलग होता. अब सवाल ये है कि क्या ऐसे में परिणाम आने के बाद कोई कार्रवाई की जा सकती है और ऐसी स्थति में निर्वाचन आयोग का क्या रोल होना चाहिए?

सवाल ये भी है कि चुनावी मशीन के ग़लत रवैये और ख़राब प्रोग्रामिंग के बाद किसी पार्टी की बहुमत के साथ जीत हो गई. मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी बना दिए गए, लेकिन लोगों ने सत्ता में मौजूद पार्टी को वोट ही नहीं दिया था. ऐसे में अगर जनता पिछले चुनाव को रद्द करके नए चुनाव कराने के लिए अदालत में अपील करती है तो न्यायालय की क्या भूमिका होगी?

जब कोई मामला हद से आगे बढ़ जाए तो बिना किसी अपील के भी सर्वोच्चय न्यायालय सरकार के रवैये पर टिप्पणी करने समेत बेहतर स्थति पैदा करने का निर्देश देता है. क्या लोकतंत्र के ख़तरे बढ़ जाएं तो भी सर्वोच्चय न्यायालय लोकतंत्र को बचाने के लिए क़दम उठा सकता है और यह क़दम क्या होगा?

जब चुनाव डर और धमकी भरे माहौल में हो और किसी ख़ास समुदाय को धमकी दी जा रही हो कि अमुक पार्टी को वोट नहीं दिया तो खैर नहीं है. ऐसे में शांति-व्यवस्था बहाल रखने और पारदर्शी वातावरण में चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग और पुलिस की है. पुलिस अगर अपनी ज़िम्मेदारी बेहतर ढंग से नहीं निभा रही है तो पुलिस के उच्च अधिकारी और न्यायपालिका की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वो पुलिस और शांति भंग करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करें?

इसी तरह चुनाव के अवसर पर नफ़रत फैलाने वाले और झूठी ख़बरों के ज़रिए माहौल तैयार करने वालों के ख़िलाफ़ क्या चुनाव आयोग और न्यायपालिका कार्रवाई नहीं कर सकते?

मेरी इन बातों को न्यायपालिका से सम्बंध रखने वाले वकीलों, जजों और निर्वाचन के कामों से जुड़े लोग किस तरह लेते हैं, नहीं मालूम. क्या उनके ज़ेहन में भी इस तरह के प्रश्न उठते हैं और क्या उनके जवाब तलाश करने का हौसला उनके दिलों में भी है. क्या वे भी महसूस करते हैं कि इन मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए और चुनाव में सुधारों की अगर गुंजाइश है तो निकालनी चाहिए, क्योंकि निर्वाचन जितना निष्पक्ष और पारदर्शी होगा, लोकतंत्र उतना ही मज़बूत होगा.

लोकतंत्र की मज़बूती देश की मज़बूती है और जब मुल्क मज़बूत होगा तो देश विकासशील देशों की सूची से निकल कर विकसित देशों में शामिल होगा. इस तरह देखा जाए तो किस तरह चुनावी सुधार देश की तरक्क़ी से जुड़े हुए हैं और उन सुधारों से देश का कितना बड़ा फ़ायदा है.

देश का कोई भी नागरिक मुल्क से बड़ा नहीं. इसलिए देश के हित को नज़रअंदाज़ करके किसी पार्टी या व्यक्ति फ़ायदा पहुंचाना तो दूर उसकी फिक्र रखना भी एक अपराध है और उस अपराध की क़ानून में जो सज़ा हो, खुद उसका अन्तःकरण उसकी निंदा करता रहेगा.

सम्भव है कि कोई सवाल करे कि इन दिनों दिल की आवाज़ कौन सुन रहा है. लेकिन यह पूरी सच्चाई नहीं है. आज भी देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्होंने अन्तःकरण की आवाज़ पर बड़ी से बड़ी नौकरी और पद छोड़ दिया है, क्योंकि आला कमान के निर्देश के बावजूद उन्होंने ग़लत ढ़ंग से किसी मामले को निबटाने से इंकार कर दिया. दुनिया में आज भी देशप्रेमी और अन्तःकरण वाले लोगों की कमी नहीं है और इस विषय पर मेरे दृष्टिकोण पर यह लोग ज़रूर विचार करेंगे. 

(लेखक आॅल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव हैं.)