आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
रुड़कली (मुज़फ़्फ़रनगर) : रुड़कली के शरणार्थियों को देखकर कलेजा मुंह को आता है. यह लोग बेहद बदतर हालात में रह रहे हैं.
दंगे के दौरान यह लोग जान बचाकर भाग आए थे, यहां उन्हें शरण दी गई थी. जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने यहां उनके लिए 36 मकान बनाकर दिए.
बताते चलें कि रुड़कली मुज़फ़्फ़रनगर जनपद के भोपा थाने के क़रीब एक गांव है, जिसके आसपास दर्जन भर मुस्लिम बहुल गांव हैं. चर्चित जॉली नहर कांड यहां से आठ किमी की दूरी पर हुआ था. गांव के दोनों तरफ़ 18-18 मकानों की दो बस्ती है और दोनों की हालात बेहद बदतर है.
गांव में प्रवेश करते हुए आपको गन्ने के कोल्हू के बीच से निकलकर बाई ओर घने जंगल में यह बस्ती मिलेगी. पूरी बस्ती तीन तरफ़ से ऊंचे गन्ने से घिरी हुई है. पहली नज़र में ऐसा लगता है कि हम जंगल में आदिवासियों के बीच जा रहे हैं. मगर इनका पहनावा आम आदमी जैसा है.
इस बस्ती में कुल 18 मकान हैं और यह जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ने इन्हें बनवा कर दिए हैं. मगर यहां साफ़-सफ़ाई और पक्की सड़क, बिजली, पानी जैसी कोई बुनियादी सुविधा हासिल नहीं है.
मकान बेहद बेतरतीब से बने हैं. इनके आगे बमुश्किल चार फीट का रास्ता है. पानी की निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है. बिजली नहीं है. राशन कार्ड और पहचान-पत्र ज़रूर बन गए हैं, जो वोट डालने के काम आते हैं.
मकान गहराई में है. उन पर दरवाज़े नहीं लगे हैं. यहां कुल 36 परिवार है. यहां कुल चार लोगों को मुआवजा मिला है. इनके घर ठीक बने हैं. हालांकि बारिश में यह सारे मकान टिप-टिप चुने लगते हैं और पूरे घर में पानी भर जाता है. सारे कपड़े और बिस्तर गीले हो जाते हैं.
बस्ती में हर एक आदमी का अलग दर्द है. यहां क़ौम के रहनुमाओं की कारगुज़ारियों पर गुस्सा भी आता है. दंगे में बचाकर यहां आए साबिर अली बता रहे हैं कि फुगाना के ज्यादातर लोग जोला, लोई और सराय में हैं, मगर वो अपने परिवार के साथ यहां आएं. वहां हमारा बड़ा घर था. 300 गज में और अच्छा काम था. हम लोग यहां इसलिए आएं, क्योंकि हम उस बुरे अतीत से बचकर भाग रहे थे. हम कभी नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी कभी उधर का रुख करें. हम ज्यादा से ज्यादा दूर जाना चाहते थे. हम सब भूलना चाहते हैं कि वहां बड़ा घर और अच्छा काम छोड़कर आए थे.
वो बताते हैं कि, यहां 100 गज का घर है और परिवार में 13 लोग. ज़मीन यहां प्रधान ने दी थी. मकान जमीयत ने बनवा दिया. चार साल से यहां बिजली नही हैं. बिजली की बात तो दूर उसके खम्भे भी नहीं हैं. पानी बाहर निकलने का रास्ता नहीं है. जंगल में कॉलोनी होने की वजह से मर्द औरतों को घर छोड़ते हुए डरते हैं और अगर घर छोड़कर ना जाए तो भूख परेशान करती है. सच कहें तो आसमान से गिर कर खजूर में अटक गए.
नूर मोहम्मद यहां रुबीना नाम की एक लड़की के पिता हैं. उनके 5 बेटियां हैं और एक बेटा. उनको यहां आप सबसे ज्यादा जागरूक आदमी कह सकते हैं. क्योंकि रुबीना यहां सबसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी लड़की है. उसने 9वीं तक पढ़ाई की है और यहां यह बड़ी बात है.
रुबीना की बहन बुशरा भी 8वीं पढ़ी है. अब इन्हें स्कूल से हटा लिया गया है. नूर मोहम्मद को इसका बहुत मलाल है. वो बताते है कि, स्कूल का रास्ता बेहद ख़तरनाक है दोनों तरफ़ जंगल है और वो यहां ख़तरा नहीं उठा सकते.
रुबीना कहती है, सच यह है कि अब्बू के पास हमें पढ़ाने का पैसा नहीं है. वो मज़दूरी करते हैं और हम 6 भाई-बहन हैं. अब वो खर्च नहीं उठा सकते. बस एक भाई है, उसे पढ़ा रहे हैं.
इन दंगों पीड़ितों के 36 परिवारों में बमुश्किल 5 बच्चे पढ़ने जाते हैं. यहां पास में ही मौलाना आज़़ाद कॉलेज है, जहां बारहवीं तक की पढ़ाई होती है. मगर वहां 500 रुपए महीने की फ़ीस देने के लिए इनके पास पैसे नहीं हैं और कॉलेज इस फ़ीस से कोई समझौता करने की तैयार नहीं हैं.
गांव में इस बस्ती को लेकर तरह-तरह की बात है. गांव के लोग बताते हैं, कुछ कथित ज़िम्मेदारों ने इस बस्ती के नाम पर बहुत सा पैसा खा लिया. नौजवान अब्दुल क़ादिर बताते हैं कि, दंगे के बाद जज़्बात में आकर मदद करने वालों ने एक बार भी पलटकर नहीं देखा कि यहां हम किस हाल में हैं.