आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
मेरठ : शास्त्रीनगर मेरठ का सबसे पॉश इलाक़ा है. यह वही इलाक़ा है, जहां कभी शायर बशीर बद्र रहते थे और एक बार दंगे में उनका घर जल गया था.
ये वह जगह है, जहां आम आदमी रहने की सोच भी नहीं सकता. मगर आजकल यह झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली और कूड़ा बीनकर रोटी कमाने वाली बच्चियों के ‘सपनों की राजधानी’ बन चुकी है. क्योंकि यहां मेरठ के फैज़-ए-आम डिग्री कॉलेज के माहिर केमेस्ट्री टीचर आई.ए. खान कूड़ा बीनने वाली लड़कियों को पढ़ाकर उनका मुस्तक़बिल सुधारने की क़वायद में जुटे हुए हैं.
प्रोफ़ेसर व एनसीसी कैप्टन इफ़्तेख़ार अली खान ज़िन्दगी जी नहीं रहे हैं, बल्कि ज़िन्दगी उन्हें जी रही है. इन्होंने शास्त्रीनगर में एफर्ट अकेडमी खोली है. यहां फ्री कोचिंग, फ्री यूनिफार्म और फ्री खाना सबको मिलता है.
आई.ए. खान ने दो साल पहले इस एकेडमी शुरुआत की थी. अब इसमें कूड़ा बीनने वाली और दूसरे गरीबों के 200 लड़कियां पढ़ती हैं. इनमें से 100 से ज्यादा लड़कियों के मां-बाप नहीं हैं.
ख़ास बात यह है कि आई.ए. खान इसके लिए कोई चंदा नहीं लेते हैं. बल्कि उनके मुताबिक़ वो अपनी पूरी तनख्वाह इस नेक काम में लगा देते हैं. उन्हें 78 हज़ार रूपए तनख्वाह मिलती है, बावजूद इसके 45 लाख रूपए बैंक से क़र्ज़ लेकर यह एकेडमी बनाई है.
इस अकेडमी में शिक्षण कार्य करने वाली हुमैरा बताती हैं कि, आई.ए. खान ने शादी नहीं की. वो इन लड़कियों को ही अपनी औलाद समझते हैं. यह लड़कियां इन्हें खान अंकल कहती हैं.
आई.ए. खान बताते हैं कि, मेरठ में सैकड़ों बच्चियां कूड़े के ढ़ेर में कूड़ा तलाशती हैं और अपना मुस्तक़बिल दफ़न करती हैं. इसलिए हमने एक बच्ची रोज़ अपनी एकेडमी में लाने का लक्ष्य बनाया है.
वो आगे बताते हैं कि, हमें इसमें कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा. इनमें से कई बच्चियां कभी स्कूल नहीं गई थी. उनका पहनावा बहुत ख़राब रहता था. दांत गंदे और नहाए हुए कई दिन हो जाते होंगे. यह वही बच्चियां हैं, जो बड़ा सा झोला कंधे पर लेकर घुमती रहती हैं. लोगों को इनमें से बदबू आती है. लेकिन हमें नहीं आई. हमने इनके परिवार वालों से बात की. कुछ इसके लिए तैयार नहीं थे और कुछ हिचक रहे थे. कुछ ने हम पर इल्ज़ाम भी लगाया. कुछ कहते थे कि जब आपको विदेश से पैसा आएगा तो हमें भी हिस्सा देना. कुछ ने बहुत गंदे आरोप भी लगाए.
आई.ए. खान कहते हैं, हमने लड़कियों की पढ़ाई पर काफी गंभीरता दिखाई. हमने कहा कि यूनिफार्म, किताबें और खाना भी हम देंगे. बस आप पढ़ने की इजाज़त दे दो. तब भी कुछ ही लोग तैयार हुए. दरअसल उनकी अपनी मजबूरियां थीं. एक बच्ची कूड़ा बीनकर 100-150 कमा लेती है. वो उसका लालच छोड़ नहीं पा रहे थे. कुछ जगह हमें सख्ती भी करनी पड़ी.
इनके मुताबिक़, एकेडमी में 2012 से 3000 लड़कियां शिक्षित हो चुकी हैं. यहां पांच प्रशिक्षित महिला टीचर इन लड़कियों को पढ़ाती हैं.
खान अंकल की इस ड्रीम एकेडमी में लड़कियों को सिलाई, कढ़ाई, ब्यूटीशियन और दूसरे रोज़गारपरक कोर्स भी कराए जा रहे हैं. इसके लिए भी अनुभवी टीचर अलग से रखे गए हैं.
वो बताते हैं कि, जब लोगों तक हमारी बात जाने लगी तो कुछ ऐसे परिवारों ने खुद हमसे संपर्क किया, जो अपने बच्चियों को पढ़ाना तो चाहते थे, मगर उनके पास पैसे नहीं थे. हमने उन्हें भी पढ़ाने का फैसला लिया. एकेडमी में अंग्रेज़ी माध्यम से बेहतरीन तालीम का इंतज़ाम किया.
खान अंकल के इस एकेडमी में सभी मज़हब की लड़कियां हैं. खान कहते हैं, इंसानियत को मज़हब में कमज़ोर ज़ेहन के लोग बांटते हैं. इंसानियत मज़हब से पहले आती है.
वो बताते है कि जब यह एकेडमी यहां शुरू की गई तो स्थानीय लोगों को बहुत बुरा लगा. वो देखते थे कि कूड़ा बीनने वाले बच्चियां यहां आ रही हैं. उन्हें यह बच्चियां गंदे लगते हैं, मगर अब वो समर्थन करते हैं. कुछ लोग कहते थे कि आप सिर्फ़ लड़कियों को क्यों पढ़ा रहे हैं. लड़कों को क्यों नहीं. हमारा जवाब था —लड़की का आत्मनिर्भर और शिक्षित होना सबसे बड़ी ज़रुरी है.
खान के मुताबिक़ वो इन बच्चियों में अपनी औलाद का अक्स देखते हैं. इसलिए वो नहीं चाहते कि उनकी बच्चियां ज़माने से पिछड़ जाएं, इसलिए वो कंप्यूटर की तालीम पर भी मेहनत करा रहे हैं.
लड़कियों की इस ज़िन्दगी बदलने वाली तरतीब के चलते उनमें पहला बदलाव तो यह आया है कि अब उन्होंने कूड़ा बीनना बंद कर दिया है. दूसरा वो साफ़-सुथरी रहने लगी हैं.
आई.ए. खान इस काम में इतनी लगन से लगे हैं कि 2012 के बाद से वो अपने लिए कपड़े नहीं खरीद पाए हैं. फिलहाल वाहन के तौर पर उनके पास एक पुराना स्कूटर है. मगर उनके हौसलों की उड़ान अब तक जारी है.