आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
दुल्हेड़ा (शाहपुर) : आज से चार साल पहले मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में जहां एक ओर एक संजीव बालियान पर दंगा भड़काने का आरोप है, वहीं एक दूसरे संजीव बालियान ने इंसानियत के लिए बहुत बड़ा काम किया. दंगे के समय इन्होंने न सिर्फ़ 400 मुसलमानों की जान बचाई, बल्कि आज भी वो गांव में मुसलमानों की हर संभव मदद करने की प्रयास में जुटे हुए हैं. मुसलमान इन पर कितना भरोसा करते हैं, इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि पूरे मुज़फ़्फ़रनगर में सिर्फ़ इन्हीं के गांव के मुसमलान अपने गांव वापस लौटे.
इस गांव का नाम दुल्हेड़ा है. ये चर्चित गांव कुटबा के क़रीब है. संजीव बालियान इस गांव के प्रधान थे. मुसलमानों के कई संस्थान इन्हें सम्मानित कर चुके हैं. लेकिन मुसमलानों के इस ‘ईनाम’ से इनकी प्रधानी छीन चुकी है. संजीव इस बार 300 वोट से प्रधानी का चुनाव हार चुके हैं. अब अरविन्द बालियान इस गांव के प्रधान हैं.
संजीव कहते हैं कि उन्हें दंगे के बाद मुसलमानों को गांव से सुरक्षित निकाल कर ले जाने के बाद चुनाव में बदला चुकाना पड़ा. जाटों ने मुझ पर मुसलमान-परस्त होने का इल्ज़ाम लगा दिया. लेकिन मुझे अपनी करनी पर कोई पछतावा नहीं है. मैंने सबकुछ इंसानियत के लिए किया. मुसलमान मेरी बहुत इज़्ज़त करते हैं और झगड़ा न चाहने वाले जाट भी मेरे साथ हैं.
Twocircles.net के साथ बातचीत में संजीव बालियान मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि, पुरबालियान में हिन्दू जाट और मुस्लिम जाट आपस में भिड़ गए थे, जिसमें काकड़े गांव के कुछ लोगों की मौत हो गई. इस घटना के बाद आसपास के सभी जाट बहुल गांव में हलचल होने लगी. 7 सितम्बर की रात ‘क़त्ल की रात’ थी. जोली नहर की अफ़वाह भी बड़े पैमाने फैल गई थी. अचानक से जाटों में यह बात होने लगी कि मुसलमानों ने बड़ी संख्या में जाटों को मार डाला है. जोली नहर में सैकड़ों लोगों को मारकर डाल दिया है. यह अफ़वाहें झूठी थी, मगर रात के अंधेरे में ख़ूब चल रही थी.
वो आगे बताते हैं कि, पूरी रात दहशत में गुज़री. 7 सितम्बर को नंगला मंदौड़ से महापंचायत से लौटते हुए सभी लोग अपने घर नहीं पहुंचे थे. कुछ लोग सुरक्षित स्थान देखकर रुक गए थे. घर वालों ने समझा वो नहीं बचे. इन सब अफ़वाहों और आशंकाओं के बीच 8 सितम्बर को सूरज की पहली किरण के साथ मुसलमानों पर हमला होने लगा. कुटबा पास का गांव है. वहां कई मुसलमानों के मारे जाने की ख़बर हमारे गांव में पहुंची तो मुसलमान और भी डर गए और एक जगह इकट्ठा होने लगे. गांव में लगभग 400 मुसलमान थे. मुझे लगा कि इनकी कोई ग़लती नहीं है और गांव का प्रधान होने के नाते इनको बचाने की ज़िम्मेदारी मेरी है.
संजीव कुछ पल रूकते हुए फिर आगे बताते हैं, मैं इनके पास गया. उनका भय इनकी आंखों में दिख रहा था. यह सभी थर-थर कांप रहे थे. मैंने इन्हें हिम्मत दी. मगर उस समय कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा था. मैंने तेज सिंह, तेजेन्द्र और हरवीर को साथ लिया और इनके लिए घर खाना बनवाया. अपने ट्रैक्टर ट्रॉली से इन सभी से बात करके पलड़ा गांव के पूर्व प्रधान तस्लीम की हिफ़ाज़त में छोड़ आया. अब ये लोग यहां सुरक्षित थे. अब मैं पूरी तरह तसल्ली-बख्स था. ज़िन्दगी में सबसे अधिक तसल्ली उसी दिन मिला.
संजीव आठवीं तक पढ़े-लिखे हैं. उनके अनुसार जाट अब पछता रहे हैं. वो कहते हैं कि, जाटों से ग़लती हुई, मगर भाजपाई मानसिकता वाले अब भी ज़हर फैलाना चाहते हैं. मुझे आज भी ऐसे लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है. मगर मैं जानता हूं कि मेरे इस काम से मानवता का अच्छा संदेश गया. ये अलग बात है कि भाजपाई मानसिकता वाले लोग मुझे यह कहना शुरू कर दिया है कि मैं मुसलमान हो गया हूं. लेकिन मैं आजीवन मानवता के लिए काम करता रहूंगा.
बताते चलें कि दंगे के बाद जब लाख कोशिशों के बाद भी मुसलमान अपने गांव नहीं लौटे, लेकिन पूरे मुज़फ़्फ़रनगर में दुल्हड़ा ही एकमात्र ऐसा गांव है, जहाँ मुसलमान लौट आए. यहां मुसलमानों के 23 परिवार वापस आ गए हैं.
संजीव बालियान को उनके इस शानदार प्रयास के लिए मुज़फ़्फ़रनगर की मुसलमानों की संस्था ‘पैग़ाम-ए-इंसानियत’ की ओर से ‘फ़ख्र-ए-मुज़फ़्फ़रनगर’ के ख़िताब से भी नवाज़ा गया है. उन्हें यह सम्मान देने के लिए कमिश्नर डीएम और एसएसपी सभी पहुंचे.
‘पैग़ाम-ए-इंसानियत’ के अध्यक्ष आसिफ़ राही कहते हैं कि, मुज़फ़्फ़रनगर को ऐसे ही लोगों ने ज़िन्दा रख रखा है, वर्ना लाखों लोगो की गर्म खून वाली माटी में मुट्ठी भर लोग ही बहकाए जा सके, क्योंकि सियासत को लहू चूसने की लत है, बाक़ी सब खैरियत है…