शाहनवाज़ नज़ीर, TwoCircles.net के लिए
मध्यप्रदेश की भोपाल सेंट्रल जेल में बंद 31 विचाराधीन क़ैदियों पर प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) का सदस्य होने का आरोप हैं.
मध्यप्रदेश पुलिस अभी तक इन पर सिमी का सदस्य होने का दोष साबित नहीं कर सकी है. दूसरी तरफ़ अदालत में चल रही कार्यवाही की प्रक्रिया इतनी सुस्त है कि इन मुलज़िमों के वक़ील भी इन्हें आरोपों से मुक्त नहीं करवा पाए हैं.
इन विचाराधीन क़ैदियों का केस लड़ रहे ज़्यादातर वक़ील दबाव में हैं. सरकार की एजेंसियां और स्थानीय मीडिया इन्हें स्वतंत्र होकर काम करने से रोकती हैं. स्थानीय मीडिया की एकपक्षीय रिपोर्टिंग का असर अदालत की कार्यवाही पर भी पड़ता है.
दबाव इस क़दर है कि अब वक़ीलों की मुलाक़ात अपने मुवक़्क़िलों से नहीं हो पाती. वक़ील परवेज़ आलम के मुताबिक़, उन्होंने आख़िरी बार अपने मुवक्किलों से मुलाक़ात साढ़े तीन साल पहले अदालत में हुई पेशी के दौरान की थी.
ज़ीनत अनवर जो 15 मुलज़िमों का केस देख रहीं हैं, वो आजतक अपने मुवक़्क़िलों से नहीं मिल पाई हैं. इन वक़ीलों का कहना है कि जब हम अपने मुवक़्किलों से मिल ही नहीं पाते तो डिफेंस कैसे तैयार करें?
वकीलों के सामने यह समस्या साढ़े तीन साल पहले शुरू हुई. अदालत में हुई पेशी से लौटते हुए कुछ क़ैदियों ने भड़काऊ नारेबाज़ी कर दी थी. लिहाज़ा, मध्यप्रदेश पुलिस ने इनपर आईपीसी की तीन धाराएं और यूएपीए के सेक्शन 10 के तहत एक नया मुक़दमा दर्ज कर दिया.
29 जून 2017 को अदालत ने इस केस में फैसला सुनाते हुए क़ैदियों को भड़काऊ नारेबाज़ी का दोषी क़रार दिया और तीन-तीन साल की सज़ा मुक़र्रर कर दी. मगर अदालत ने इन आरोपियों को यूएपीए के सेक्शन से मुक्त कर दिया.
वक़ील परवेज़ आलम कहते हैं कि, अगर इन्हें यूएपीए के तहत दोषी मान लिया जाता तो ये सिमी के सदस्य यानी कि आतंकवादी साबित हो जाते. मध्यप्रदेश पुलिस इन्हें सिमी का आतंकवादी साबित करने का एक और मौक़ा चूक गई.
इस कांड के बाद से इन विचाराधीन क़ैदियों की अदालत में पेशी बंद हो गई और सुनवाई वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए होने लगी और वक़ीलों का अपने मुवक़्क़िलों से मिलना बंद हो गया.
वकील परवेज़ आलम ने इसके बाद सीजेएम के वहां अर्ज़ी लगाकर अपने मुवक़्क़िलों से मिलने की मांग की. तब अदालत ने परवेज़ आलम को भोपाल सेंट्रल जेल में 20 मिनट की मुलाक़ात की इजाज़त दी, लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने तत्काल सेशन कोर्ट में रिवीज़न फाइल कर दिया कि वकील परवेज़ आलम को जेल जाकर क़ैदियों से मुलाक़ात करने से रोका जाए.
परवेज़ आलम के मुताबिक़, सेशन कोर्ट ने उसी दिन सुनवाई करते हुए फ़ैसला उनके हक़ में दिया. अदालत ने कहा कि जेल मैनुअल के मुताबिक़ क्लाइंट्स को अपने वकीलों से मिलने पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती. सेशन कोर्ट ने 20 मिनट मुलाक़ात की समय-सीमा भी हटा दी और कहा कि वकील को जितनी ज़रूरत है, वह अपने मुवक़्क़िल से मिल सकता है.
परवेज़ आलम कोर्ट का यह ऑर्डर लेकर जब भोपाल सेंट्रल जेल पहुंचे, तब भी उनकी मुलाक़ात अपने क्लाइंट्स से नहीं हो सकी. यहां उन्हें मुलाक़ात से पहले एक फॉर्म भरने को दिया गया जिसमें परवेज़ आलम के मुताबिक़ परिजनों के मुलाक़ात का ब्यौरा था.
वकील परवेज़ ने यहां प्रतिवाद किया कि क़ैदी मेरे क्लाइंट्स हैं ना कि रिश्तेदार. मैं ऐसे फॉर्म पर दस्तख़त नहीं करूंगा.
परवेज़ का आरोप है कि इसके बाद वहां जेलर ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया और उन्होंने नज़दीकी पुलिस स्टेशन गांधी नगर जाकर इसकी शिकायत दर्ज करवाई. इस तरह अदालत का आदेश होने के बावजूद वकील अपने क्लाइंट्स से नहीं मिल सका.
वकील परवेज़ ने इसकी सूचना सेशन कोर्ट को भी दी, लेकिन अदालत ने इसका संज्ञान नहीं लिया.
परवेज़ कहते हैं कि कोर्ट को अधिकार था कि जेल प्रशासन पर अदालत की अवमानना का मामला चलाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
कुछ वक़्त पहले सिमी के विचाराधीन क़ैदियों के ज़्यादातर वक़ील एक डेलिगेशन लेकर मुलाक़ात के इरादे से भोपाल सेंट्ल जेल पहुंचे. इस डेलिगेशन में परवेज़ आलम के अलावा साजिद अली, लइक़ ख़ान, दीपचंद्र यादव समेत कई वक़ील थे, लेकिन इस बार भी इनकी मुलाक़ात नहीं हो सकी.
भोपाल सेंट्रल जेल में क़ैदियों से मुलाक़ात के लिए लोहे की जाली वाली व्यवस्था ख़त्म कर दी गई है. अब यहां शीशे की एक दीवार (टफ़न ग्लास) है जिसके दोनों तरफ़ फोन रिसीवर रखे गए हैं.
जेलर चाहते थे कि वकील भी अपने क्लाइंट्स से इसी टफ़न ग्लास के आमने-सामने बैठकर फोन से बात कर लें, लेकिन वकीलों ने ऐसी मुलाक़ात से मना कर दिया.
परवेज़ कहते हैं कि हमें नहीं पता कि टेलिफोन लाइन के तार कहां जुड़े हैं और हमारी बातचीत कहां रिकॉर्ड हो रही है. लिहाज़ा, हमने बात करना मुनासिब नहीं समझा.
ताज़ा हाल यह है कि अब इन क़ैदियों की पेशी वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए हो जाती है. वहां ये वक़ील अपने मुवक्किलों को सुन लेते हैं. अब इनसे भोपाल सेंट्रल जेल जाकर मुलाक़ात की कोशिश नहीं करते, क्योंकि जेल प्रशासन से लेकर शासन तक इन्हें रोकने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देता है.
ज़ीनत अनवर कहती हैं कि, एक वकील को क़दम-क़दम पर अपने मुवक़्क़िल से बात करनी पड़ती है, लेकिन इस केस में हमें यह सुविधा हासिल नहीं है. हमारे पास महज़ एक चार्जशीट है जिसके आधार पर हमें अपना डिफेंस तैयार करना होता है. आरोपी हर केस का सच जानते हैं लेकिन हमारी पहुंच उन तक नहीं है. कुल मिलाकर नाइंसाफ़ी हो रही है.
भोपाल सेंट्रल जेल के अधीक्षक दिनेश नरगावे कहते हैं कि, अब देशभर की जेलों में टफ़न ग्लास लगाए जा रहे हैं. वकीलों की उनके क्लाइंट्स से मुलाक़ात की भी यही व्यवस्था था. फोन टैपिंग के सवाल पर दिनेश नरगावे कहते हैं कि अब इतना तो सिस्टम पर भरोसा करना ही पड़ेगा क्योंकि यही एक विकल्प है.