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मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ से कोसों दूर है बिहार का ये इलाक़ा

(Photo By: Fahmina Hussain)

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

रोहतास : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की माने तो बिहार में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के तहत पिछले एक हफ़्तों में 8 लाख 50 हज़ार से अधिक शौचालय बनाए गए हैं, यानी हर घंटे 5059 शौचालयों का निर्माण बिहार के अलग-अलग हिस्सों में किया गया है. बावजूद इसके रोहतास ज़िले के बेश्तर इलाक़े, मोदी के इन शौचालयों से कोसों दूर हैं. 

400-500 की मुस्लिम आबादी वाली ये झोपड़-पट्टी बस्ती रोहतास ज़िले के मकराइन में बसी है. यहां 30-35 झोपड़ियों में एक बड़ी आबादी अपनी ज़िन्दगी बसर करने को मजबूर है. इन झोपड़-पट्टी में रहने वालों के लिए हर बदलता मौसम सितम बनकर आता है.

(Photo By: Fahmina Hussain)

इस झुग्गी में रहने वाले सभी मुस्लिम परिवार हैं, जो हाईवे की ट्रकों को सजाने का काम करते हैं. यहां एक तरफ़ इनके आश्रय की मूल समस्या है, वहीं दूसरी तरफ़ देश के नागरिक होने के बाद भी पहचान-पत्र व आधार के आभाव में सभी सरकारी सुविधाओं से महरूम हैं.

28 साल की शकीला ख़ातून कहती हैं, सबसे ज़्यादा परेशानी यहां शौचालय और पानी की है. पास में रेलवे कॉलोनी है, वहीं के लोगों ने एक सरकारी नल लगवा दिया है. दिन में दो बार ही पानी आता है. कभी-कभी तो पीने के लिए भी पानी नहीं बचता है. ऐसे हाल में पानी आने तक का इंतज़ार करना पड़ता है.

वो आगे कहती हैं, सरकार जगह-जगह सार्वजनिक शौचालय बनवा रही है. लेकिन हमारी इस झुग्गी वाली आबादी में दूर-दूर तक ऐसा कुछ नहीं है. पीछे बड़ा नाला है, जहां झाड़-जंगल हैं. बस वहीं सब लोग शौचालय के लिए जाते हैं.

वहीं रुख़्साना बताती हैं, बरसात के दिनों में तो बहुत दिक़्क़त होती है. रास्ता कीचड़ बन जाता है और शौच के लिए जाने पर तो कभी-कभी सांप तो कभी कोई और जानवर निकल आता है.

रुख़्साना आगे बताती हैं, नहाने के लिए यहां कोई इंतज़ाम नहीं है. औरतें चादर की आड़ करके नहाती हैं. लेकिन वो भी खुले में नहाने जैसा ही है. फ्लाईओवर पर से आने-जाने वाले सभी देखते हैं.

वो आगे बताती हैं, कुछ लोग तो इतने बुरी नज़र रखने वाले होते हैं कि वो फ्लाईओवर पर गाड़ी रोक कर हम औरतों को नहाते देखते हैं. कुछ लोग तो रात में पीकर झुग्गियों में घुस जाते हैं. हम लोग घर में मर्द न रहें तो हमारी इज़्ज़त भी महफूज़ नहीं है.

(Photo By: Fahmina Hussain)

अलग-अलग झुग्गियों में रहने वाले लोगों से हुई बातचीत के दौरान ये बात खुलकर सामने आई कि सरकार की स्वच्छता अभियान से ये इलाक़ा कोसों दूर है. आस-पास के इलाक़ों की भी यही हालत है.  पानी के अभाव में यहां के लोग गंदे हालात में रहने पर मजबूर हैं. हद तो यह है कि खाने के बर्तन भी बड़े नाले के पास वाली जगह पर धुले जाते हैं, जो गंदगी और बीमारियों का एक बड़ा कारण है.

यहां दूसरी झुग्गियों में रहने वाले स्थानीय लोग भी प्राथमिक उपचार जैसी सुविधा के लिए सरकारी अस्पताल पर निर्भर हैं. बरसात में यहां बच्चे बीमार हो जाते हैं.

यहां के लोग बताते हैं कि ठंड में अलाव जलाकर तो रात गुज़र जाती है, लेकिन गर्मी और बरसात में बद से बदतर हालात में ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है.

इन्हीं झुग्गियों में रहने वाले मोहम्मद वकील बताते हैं, गर्मियों में बाहर सड़क पर सोना पड़ता है. प्लास्टिक-बोरे से बनी इन झोपड़ियों की दीवारें इतनी गर्म हो जाती हैं कि लोगों का उसमें रहना मुश्किल हो जाता है.

वो आगे बताते हैं कि, कई बार तो आंधियों में उनका घर उजड़ जाता है, जिसको फिर से बसाना पड़ता है.

(Photo By: Fahmina Hussain)

समस्याएं यहीं ख़त्म नहीं होती. 35 साल के अब्दुल्लाह जो पेशे से मज़दूर हैं, बताते हैं कि, यहां रहते हुए क़रीब 20 साल से अधिक हो गए हैं. लेकिन अब तक न उनके पास न वोटर आईडी है ना ही आधार कार्ड. कितनी बार वार्ड अध्यक्ष से वोटर लिस्ट में नाम चढ़वाने का अनुरोध कर चुके हैं, लेकिन वो हम लोगों की सुनते ही नहीं हैं.

डेहरी-डालमियानगर नगर निकाय के एक अधिकारी का कहना है कि, मकराइन में रह रहे मुस्लिम झुग्गी रेलवे की ज़मीन पर है. रेलवे की ज़मीन होने की वजह से नगर निकाय या नगर पार्षद उस पर कोई सरकार आवंटित काम नहीं करा सकती है. हालांकि ये लोग काफ़ी सालों से रह रहें हैं.

राशन कार्ड और वोटर लिस्ट में नाम ना होने के सवाल पर कहतें हैं, “ये मेरा काम नहीं, बल्कि नगर पार्षद का काम है.”

ग़ौरतलब रहे कि उच्चतम न्यायालय के आदेश पर नवंबर 2016 में गठित एक समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के शहरी क्षेत्रों में 90 फ़ीसदी बेघर लोगों के पास आश्रय का कोई ठिकाना नहीं है.

आंकड़ों के मुताबिक़ केन्द्र सरकार की पहल पर देश भर में 30 नवंबर, 2017 तक 1331 आश्रय स्थलों को मंज़ूरी दी गई है. इनमें से सिर्फ़ 789 आश्रय स्थल ही कार्यरत हैं. वहीं बिहार को मंजूर 114 आश्रय स्थलों में सिर्फ 31 बन सके जबकि उत्तर प्रदेश को मंजूर 92 आश्रय स्थलों में महज 5 आश्रय स्थल कार्यरत हैं.