Home Articles “दीन बचाओ, देश बचाओ” – इस आयोजन से चंद लोग परेशान क्यों?

“दीन बचाओ, देश बचाओ” – इस आयोजन से चंद लोग परेशान क्यों?

नूरुस सालेहीन, TwoCircles.net के लिए

रविवार दिनांक 15 अप्रैल 2018 को पटना के गांधी मैदान में इमारत-ए-शरिया और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बैनर तले “दीन बचाओ, देश बचाओ” विषय पर एक विशाल ऐतिहासिक जनसभा का आयोजन किया गया.

इस जनसभा की योजना तब बनाई गई थी, जब कई विरोधी आयोजनों के पश्चात् भी वर्तमान केन्द्र सरकार ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप करते हुए न्यायालय में विचाराधीन तलाक़ के मामले पर लोकसभा में आनन-फ़ानन में बिल पास करा लिया.

यह हस्तक्षेप अल्पसंख्यकों पर होने वाले निरंतर राजनैतिक एवं वैयक्तिक आक्रमण की कड़ी का एक ज्वलंत हिस्सा था. इससे पहले यूनिफार्म सिविल कोड के मामले पर केन्द्रीय सरकार लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया के कंधे पर बन्दूक़ रखकर गोली चलाने की भरपूर कोशिश तब कर चुकी थी, जब कमीशन के चेयरमैन माननीय जस्टिस बलबीर सिंह चौहान ने यूनिफार्म सिविल कोड पर आम नागरिकों की राय मांगी थी.

तब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दस्तख़ती मुहिम चलाकर लाखों की तादाद में आम मुसलमानों की राय से उन्हें रूबरू कराया था. जिसके बाद चेयरमैन जस्टिस बलबीर सिंह चौहान साहब का स्पष्ट बयान आया था कि ‘यूनिफार्म सिविल कोड संभव नहीं है और न ही यह कोई विकल्प है, पर्सनल लॉ को कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता क्यूंकि उन्हें संवैधानिक संरक्षण हासिल है.’

ज्ञात रहे कि इधर जब ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ की तैयारी चल रही थी. तभी मार्च 2018 में लॉ कमीशन के मेम्बर सेक्रेटरी संजय सिंह ने दोबारा उसी तर्ज़ पर फिर से पब्लिक अपील जारी कर यूनिफार्म सिविल कोड पर जनता की राय मांग डाली.

प्रथम दृष्टया छोटी-मोटी साज़िश सी लगने वाली हरकतें बाद में लगने लगी कि संघी विचारधारा से ओतप्रोत वर्तमान सरकार अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप के लिए नित नए तरीक़े अपनाने से बाज़ नहीं आने वाली. तत्कालीन तौर पर हमारे दलित समाज पर भी आक्रमण बढ़ने लगे, चाहे वह किसी शिक्षण संस्थान में शोध करने वाले छात्र हों या किसी गांव समाज का एक आम दलित नागरिक, उन्हें चौतरफा ज़िल्लत का शिकार बनाया जाने लगा. नवीनतम उदाहरण दलितों के आरक्षण को लेकर चल रहा मामला है.

इन सभी तथ्यों के आलोक में यह भी ध्यान रहे कि ‘दीन बचाओ, देश बचाओ’ की विशाल जनसभा केवल मुसलमानों के पर्सनल लॉ के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए नहीं थी, अपितु इसमें दलित समाज के बड़े बैनर तले उनके नुमाइन्दे भी शामिल हुए थे. जिसके फलस्वरूप ऐतिहासिक तौर पर बाबू जगजीवन राम के समय के बाद से पहली बार इतने बड़े पैमाने पर दलित मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की जा सकी.

अतः यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दरअसल यह देश एवं समाज के मज़लूमों की जनसभा थी, न कि केवल मुसलमानों की. दीन बचेगा, संविधान बचेगा, तभी वैयक्तिक पहचान के साथ देश का हर नागरिक लोकतान्त्रिक गरिमा के अधीन स्वतंत्र बचेगा और इस देश की संप्रभुता अछुन्न रहेगी.

जो लोग इस आयोजन का विरोध करते हुए यह कह रहे हैं कि यह एक राजनैतिक आयोजन था या किसी राजनैतिक लाभ के लिए किया गया तो उन्हें अपने संकुचित मानसिकता से इतर थोड़ा व्यापक ज्ञान के स्रोत पर भी ध्यान देना चाहिए. ऐसे लोग अक्सर व्हट्सऐप या फेसबुक में तैरने वाले छिछले ज्ञान को ही सात्विक वाणी मान लेते हैं. यह जगज़ाहिर है कि देश में जब जब कोई गैर-राजनैतिक आयोजन होता है या होने वाला होता है तो सभी राजनितिक पार्टियां इससे या तो जुड़ने का बहाना ढूंढती है या कुछ ऐसी चाल चल देती हैं, जिससे पूरा ध्यान भटक जाए और असल आयोजन का मक़सद कमज़ोर हो जाए.

ख़ालिद अनवर के विधान परिषद नामांकन की जिस बात को कीचड़ के रूप में उछाला जा रहा है तो बता दूं कि उसकी घोषणा आयोजन के पहले ही कर दी गई थी. और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी घोषणा एक दिन में नहीं की जाती. नीतिश कुमार ने मुसलमान कौम की कम-अक़ली को भांपते हुए एक मास्टर स्ट्रोक खेला और आयोजन के क़रीब अपना पासा फेंक दिया. इसके जाल में खुद को बहुत होशियार और कारगर समझने वाले पत्रकार और विद्वान लोग फंस गए और दिग्भ्रमित होकर उसी दिशा में बह गए, जिस दिशा में भेजने की मंशा विरोधियों ने पाल रखी थी. वो तो अच्छा हुआ अहमद अशफ़ाक़ करीम काफ़ी पहले राज्यसभा के सांसद बना दिए गए थे, वरना उनके नामांकन को भी नीतिश के बजाए आरजेडी या लालू के हाथों बिकने का फ़रमान दे देते ये बुद्धिजीवी पत्रकार महोदय लोग.

जब जब दीन बचाने की दावत दी जाएगी है, तब तब मुसलमान साथ देगा, चाहे ख़ालिद अनवर हो, अशफ़ाक़ करीम हो, नूरुस सालेहीन हो या कोई और अल्लाह और मोहम्मद (सल.) का नाम लेवा हो. चाहे वह मुसलमान किसी भी राजनैतिक संगठन से जुड़ा हो.

कल को अगर मुख़्तार अब्बास नक़वी भी दीन की हिफ़ाज़त के मसले पर साथ आने की ख्वाहिश ज़ाहिर करेंगे तो हमें उन्हें भी क़लमा पढ़ाकर शामिल करने का फ़राख़ दिली वाला जज़्बा रखना चाहिए.

कुछ विरोधी पत्रकारों ने पत्रकारिता की रेखांकित मर्यादा को लांघते हुए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना मोहम्मद वली रहमानी का चारित्रिक हनन ही कर डाला. बड़े ही शर्म की बात है और बहुत अफ़सोस होता है ऐसी विचारधारा को पालने वालों पर.

मौलाना मोहम्मद वली रहमानी वह शख्सियत है जिसने हिन्दुस्तानी मुसलमानों को 21वीं सदी में यह सन्देश दिया कि शिक्षा से किस तरह मुस्लिम समाज अपना नाम रौशन कर सकता है. रहमानी-30 को अगर भूल गए हैं तो याद दिला देता हूं. इसकी मक़बूलियत और कामयाबी की हक़ीक़त का जायज़ा लेने बीबीसी और रशिया टूडे जैसे विश्व स्तरीय मीडिया संस्थान आए. इससे पढ़कर आईआईटी करने वाले अलुमनाई आज इसी तर्ज़ को अपनाकर अलग-अलग जगह शिक्षा जगत में नए आयाम स्थापित कर रहे हैं. इस संस्थान को खड़ा करने वाला शख्स किसी राजनैतिक लाभ के लिए मुसलमानों का सौदा करेगा? 22 साल एमएलसी रहने और इस कार्यकाल में दो बार उप-सभापति रहने वाले को जनसभा आयोजन कर राजनैतिक लाभ प्राप्त करने की मंशा रखने वाला बताना एक घटिया सोच से ऊपर और कुछ नहीं.

कांग्रेस में रहकर कांग्रेसियों को अपनी धमक से जन विरोधी फ़ैसलों को बदलने के लिए बाध्य करने वाले को किसी कुर्सी की ज़रूरत नहीं. आरटीई एक्ट -2009 में व्यापक रूप से संशोधन का मसौदा देना और तत्कालीन शिक्षामंत्री से उन संशोधनों को आरटीई एक्ट में शामिल करवाने का श्रेय है मौलाना मोहम्मद वली रहमानी को. यह बातें मैं इसलिए बता पा रहा हूं क्योंकि मुझे इस तरह के कामों को उनके क़दमों में रहकर सीखने का मौक़ा मिला है.

बात तो यह भी समझ नहीं आती कि अगर मौलाना रहमानी नीतिश कुमार के हिमायती ही थे तो जो आक्रामक बयान इस जनसभा में दिया गया और नीतिश की सहयोगी राजग सरकार पर सीधा वार किया गया वो क्या था? शायद आप ने आयोजन की हक़ीक़त से रूबरू होना ज़रूरी ही नहीं समझा और चंद फेसबुक और व्हाट्सऐप मैसेजेज की बुनियाद पर अपनी राय बना डाली. लोगों के पेट में तब दर्द नहीं होता, जब मुसलमान या दलित किसी राजनीतिक पार्टी की रैली या जनसभा में परोक्ष रूप से सहयोगी भीड़ के रूप में शामिल होता है. लिबरल सेकूलरों के पेट के साथ-साथ दिमागों में दर्द तो तब होने लगता है, जब यही मज़लूम कौमें अपने दम पर जनसभाओं का आयोजन करने आगे आती हैं.

मुसलमान चुप रहे तो कायर, डरपोक; मुसलमान अपने दम पर अपने रहनुमा इदारों और मक़बूल उलमा-ए-दीन के दम पर कुछ करे तो दलाली और सौदेबाज़ी. जम्हूरियत में उठी हुई आवाज़ की भी अपनी अलग धमक होती है, उसकी पासबानी भी लाज़मी है.

(नूरुस सालेहीन पुर्तगाली भाषा विशेषज्ञ और कोइम्ब्रा विश्वविद्यालय, पुर्तगाल के अलुमनस हैं.)