Home Dalit क्या है भीमा कोरेगांव का इतिहास और 200 साल बाद की सियासत?

क्या है भीमा कोरेगांव का इतिहास और 200 साल बाद की सियासत?

एंग्लो-मराठा युद्ध (फोटो: विकीपीडिया)
एंग्लो-मराठा युद्ध (फोटो: विकीपीडिया)

कलीम अज़ीम, TwoCircles.net के लिए

1 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा के बीच पुणे ज़िले के ‘भीमा कोरेगांव’ में लड़ाई हुई थी. इस लड़ाई में मुख्य रुप अंग्रेज़ और पेशवाओं के नेतृत्व वाले मराठा आमने-सामने थे. उस समय अंग्रेज़ों की फौज में बड़ी संख्या में ‘महार’ सैनिक थे. लड़ाई में पेशवाओं की हार हुई और जीत का सेहरा ईस्ट इंडिया कंपनी की महार रेजिमेंट के सिर बंधा.

महार समुदाय उस वक़्त महाराष्ट्र में अछूत समझा जाता था. जिस समुदाय को पेशवा अछूत मानते थे, उन्होंने ही चित्तपावन ब्राह्मण समझे जाने वाले पेशवा बाजीराव द्वितीय को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था. क़रीबन 800 ‘महार सैनिकों’ ने महाराष्ट्र से पेशवा साम्राज्य का अंत कर दिया था.

याद रहे कि इस घटना के 40 साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को हिन्दुस्तान से खदेड़ने के लिए 1857 में जो ग़दर मचा था, उस क्रांतिकारी आंदोलन में महार समुदाय अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ खड़े थे. 

ब्राह्मण पेशवाओं को हराने वाला यह वही समाज था, जिन्हें पेशवा राजाओं ने गले में हांडी और पैर पर झाडू बांधकर जीने के लिए मजबूर किया था. ताकि पैर के झाड़ू से दलितों के कथित ‘अपवित्र’ पैरों के निशान मिटते चले जाएं.

इस दलित समुदाय की अगर परछाई भी अगर पड़ जाती तो ब्राह्मण उन्हें जानवरों की तरह पिटते थे. हज़ारों साल सामाजिक बहिष्कार झेलने के बाद जिन समुदाय ने उन्हें ‘अछूत’ की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर कर दिया था, उन्हीं महार यानी दलित समुदाय ने ब्राह्मणों के राज्य का सफ़ाया कर दिया था.

ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक़ पेशवा के 500-600 सैनिक इस लड़ाई में मारे गए थे. इतिहासकारों की माने तो दलित इसे चित्तपावन ब्राह्मण व्यवस्था से प्रतिशोध लेने का अवसर बताते हैं.

महारो के साथ इस लड़ाई में राज्य के कई पिछड़े समुदाय के लोग शामिल थे, जिन्हें ब्राह्मणों ने चतुर्थ वर्ण व्यवस्था में क़ैद कर दिया था. उन पिछड़े समाज के लिए भी पेशवाओं को हराना फ़ख़्र की बात थी. इसी वजह से दलित समुदाय इसे अस्मिता की लड़ाई मानते हैं.

साल 1927 में बाबासाहब अम्बेडकर ने इस वॉर मेमोरियल का दौरा किया. इसके बाद महार समुदाय ने पेशवाओं पर मिली जीत की याद में इस दिन को मनाना शुरू किया. हर साल एक जनवरी को ‘भीमा कोरेगांव’ में लड़ाई के शहीदों का नमन कर पेशवा के हार को याद किया जाता है.

इस मौक़े से राज्यभर से दलित समुदाय के लोग यहां जुटते हैं. राज्य सरकार का भी एक अभिवादन कार्यक्रम यहां हर साल होता है.

इस साल इस जंग के हुए 200 साल पूरे हो चुके हैं. इसके उपलक्ष्य में पुणे स्थित ‘शनिवार वाडा’ (पेशवा राजाओं का मुख्यालय) में एक सम्मेलन ‘एल्गार परिषद’ की ओर से आयोजित  किया गया था. इस समारोह में कई संगठन शामिल थे.

इस कार्यक्रम के बाद यहां जमा हुए लोगों को एक रैली के साथ भीमा कोरेगांव जाना था. पर इसका विरोध किया गया.

अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ ने पुणे पुलिस से अनुरोध किया कि दलितों को ‘शनिवार वाडा’ में प्रदर्शन करने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए. इस संबंध में एक पत्र पुणे की मेयर मुक्ता तिलक को भी दिया गया.

ऐसा भी कहा जाता है कि ब्राह्मण महासंघ ने मेयर पर दबाव बनाया कि दलितों के इस सम्मेलन की अनुमती किसी भी सूरत में न दिया जाए.

पुणे महानगर पालिका में बीजेपी की सत्ता है. तो बात मुंबई यानी सीएम तक भी पहुंची, पर दलित संगठन सम्मेलन करने की ज़िद पर अड़े रहें. जैसे-तैसे सम्मेलन की परमीशन मिल गई. रविवार को आयोजित इस सम्मेलन में जिग्नेश मेवानी, उमर ख़ालिद, बाबासाहब अम्बेडकर के पौत्र प्रकाश अम्बेडकर, सोनी सोरी, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला, उल्का महाजन आदि ने भीमा कोरेगांव के 200 साल पुरे होने के उपल्क्ष्य में अपनी बात रखी. जारी…

(लेखक महाराष्ट्र से निकलने वाली मराठी पत्रिका ‘सत्याग्रही विचारधारा’ के कार्यकारी संपादक हैं.)