आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
शाहपुर (मुज़फ़्फ़रनगर) : शाहपुर बुढाना मार्ग पर एक गांव है कसेरवा. मुस्लिम जाट बहुल इस गांव में ज़्यादातर किसान परिवार रहते हैं. गांव की आबादी तीन हज़ार से ज़्यादा है, लेकिन पूरे गांव में कहीं भी किसी से आप ‘हलीमा’ का पता पूछ सकते हैं.
हौसलों, उम्मीद व जीवट इच्छाशक्ति की मल्लिका यह लड़की इस गांव का सबसे चर्चित चेहरा है. हलीमा वही लड़की है, जिसे पूर्व में मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव ने अपने आवास पर बुलाकर मदद की थी.
हलीमा दोनों हाथों से माजूर (विकलांग) है और अपने सभी काम वो पैरों से करती हैं. सभी काम मतलब सिलाई-कढ़ाई, सफ़ाई, और खाना भी.
हलीमा बस इतना भर ही नहीं हैं. ये मुज़फ़्फ़रनगर राजकीय कॉलेज से फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई भी कर रही हैं.
हलीमा का घर इस कॉलेज से क़रीब 18 कि.मी. की दूरी पर है. इसके लिए एक बस और 2 ऑटो बदलने पड़ते हैं. लेकिन हलीमा हर दिन कॉलेज जाती हैं.
हलीमा की अम्मी सईदा (53) के मुताबिक़, जब वो पैदा हुईं तो इसके अब्बू घर के कोने में बैठकर रोने लगे. उन्होंने कहा इसकी शादी कैसे होगी. यह कैसे अपनी ज़िन्दगी जिएगी! पिछले दिनों हलीमा के अब्बू मोबिन की कैंसर से जूझते हुए मौत हो गई.
अब्बू के इंतक़ाल के बाद हलीमा की वकालत की पढ़ाई बीच मे छूट गई. अखिलेश यादव से मिली एक लाख रुपए की सहायता राशि उसके अब्बू के इलाज पर ख़त्म हो चुका था.
चार बीघा ज़मीन की खेती करने वाली हलीमा की मां सईदा जो थोड़ी देर पहले सर पर घास की गठरी लेकर आई थी, हमसे कहती हैं, यहां तो लोग अपनी सही सलामत लड़की को भी नहीं पढ़ाते. हलीमा के तो हाथ ही नहीं थे.
वो आगे बताती हैं कि छोटे भाई मुर्तज़ा के साथ यह स्कूल जाती थी, लेकिन पढ़ने नहीं, बल्कि उसकी रखवाली करने. एक दिन इसने भी कहा वो पढ़ेगी तो सरकारी स्कूल के हेडमास्टर ने उसका दाख़िला लेने से मना कर दिया.
हलीमा कहती हैं, उसके बाद मैंने एक निजी स्कूल में दाख़िला ले लिया. 3 साल बाद वही मास्टर जी घर आएं कि इस लड़की को हमारे स्कूल में भेज दो, हम मुफ़्त में पढ़ाएंगे. मैंने उन्हें याद दिलाया कि सर आपने मुझे कहा था बिना हाथ वाली लड़की कैसे पढ़ेगी तो मैंने आपको पैर से अ आ लिखकर दिखाया था. मगर आपने तब दाख़िला नहीं दिया.
हलीमा की पढ़ाई में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका शाहपुर के कस्तूरबा गांधी विद्यालय की प्रमुख गीता कुमारी ने निभाई है.
हलीमा कहती हैं, वो ही सही मायनों मे गुरु कहलाने की हक़दार हैं.
गीता हमसे कहती हैं कि, हमने उसे एक विशेष परीक्षा के बाद सीधे कक्षा—6 में दाख़िला दिया वो सामान्य लड़कियों से अलग थी. उसकी महत्वकांक्षा बहुत प्रबल थी. उसमें जानने और समझने की अभिलाषा दूसरे बच्चों से ज़्यादा थी. हमारे यहां उसने आठवीं तक पढ़ाई की. वो अपने पैरों से लिखती थी.
हलीमा की मां अपनी भीगी आंखों से यह बताती हैं कि, जब वो छोटी थी तो एक बार उसे तेज़ बुख़ार हो गया. मैं अपने मायके में थी. पड़ोस की एक औरत ने कहा सईदा इसे दवाई मत दिलाना. इसकी ज़िन्दगी जहन्नम है, मर जायेगी तो आज़ाद हो जाएगी. उस पड़ोसन की बात मेरे भाई ने सुन ली और उसे घर से तुरंत निकाल दिया. मैंने यह बात आकर अपने शौहर से बताई. उन्होंने मुझसे कहा सईदा यह लड़की मुझे अपने दूसरे बच्चों से ज़्यादा प्यारी है, मगर उसके बाद वो फिर रोये.
हलीमा इस गांव में एलएलबी में दाख़िला लेने वाली पहली लड़की थी. अब फैशन डिजाइनिंग करने वाली पहली लड़की है.
गांव के बाहर बैठे जमील हमें बताते हैं कि, इस लड़की के पढ़ाई करने हिम्मत के बाद हमारे गांव में लड़कियों में पढ़ने की जो ललक पैदा हुई है, वो बेमिसाल है.
यहां लड़कियां पढ़ती नहीं हैं. अब बिना हाथ वाली पढ़ेगी तो सलामत को शर्म आएगी ही.
इसी गांव के ज़िला पंचायत सदस्य अतहर अली खान हलीमा को अखिलेश यादव के पास लेकर गए थे. वो बताते हैं, यह लड़की हमारे गांव की गौरव है. इसके हौसलों की उड़ान ने कई दरवाज़े खोल दिए हैं.