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‘नेताजी’ को तो सब जानते हैं, लेकिन इन्हें ‘नेताजी’ बनाने वाले आबिद सफ़रानी को जानते हैं क्या?

उमर अशरफ़, TwoCircles.net के लिए

अपने जीवन में सुभाष चन्द्र बोस कई ऊंचे ओहदे पर रहें. उन्होंने प्रतिष्ठित इंडियन सिविल सर्विस ज्वाईन किया. वो कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. फ़ॉर्वाड ब्लॉक के संस्थापक सदस्य रहे. पर उन्हें जो ख्याती आज़ाद हिन्द फ़ौज में मिला वो कहीं नहीं मिला.

सुभाष चन्द्र बोस के आज़ाद हिन्द फ़ौज तक पहुंचने की बहुत ही लम्बी कहानी है. जिसकी शुरुआत 16 जनवरी 1941 को होती और ख़ात्मा 18 अगस्त 1945 को होता है.

इन पांच सालों में सुभाष चन्द्र बोस के साथ एक शख़्स परछाई की तरह खड़ा रहता है और ये शख़्स कोई और नहीं बल्कि “जय हिन्द” जैसा  इंक़लाबी नारा देने वाले आबिद हसन सफ़रानी हैं. सफ़रानी ने ही सुभाष चंद्रा बोस को सबसे पहले जर्मनी में “नेताजी” कह कर पुकारा था, जिसके बाद ये लक़ब पुरे हिन्दुस्तान में मशहूर हो गया.

कौन हैं आबिद हसन सफ़रानी?

आबिद हसन सफ़रानी का जन्म 11 अप्रैल 1911 को वर्तमान में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की संयुक्त राजधानी हैदराबाद में अमीर हसन के घर हुआ, जहां उन्हें ज़ैनुल आबिदीन हसन के नाम से पुकारा गया. बाद में यही ज़ैनुल आबिदीन हसन आबिद हसन के नाम से मशहूर हुए.

उनकी मां का नाम फ़रक़ुल हाजिया बेगम था, जो ख़ुद एक महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं. अपनी मां की आज़ादी की लड़ाई की भावना से प्रेरित होकर आबिद हसन सफ़रानी ने देश की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने का निश्चय किया.

उन पर आज़ादी की लड़ाई की छाप इतनी गहरी पड़ी कि उन्होंने आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए अपने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और 1931 में साबरमती आश्रम पहुंचे, जहां उन्होंने एक कुछ समय गुज़ारा. बाद में उन्होंने सोचा कि केवल सशस्त्र संघर्ष ही भारत को स्वतंत्रता दिला सकता है. इस प्रकार उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ काम करना शुरू कर दिया.

सफ़रानी जेल यात्रा

आबिद हसन सफ़रानी ने क्रांतिकारी संघ के एक सदस्य के रूप में नासिक जेल में रिफ़ाइनरी को नष्ट करने के प्रयास में हिस्सा लिया. जिसके परिणामस्वरूप उन्हें एक साल की जेल की सज़ा हुई. लेकिन ‘गांधी-इरविन संधि’ की वजह से उन्हें सज़ा के पूरा होने से पहले ही रिहा कर दिया गया.

आबिद हसन सफ़रानी लगभग एक दशक तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा लिया.

सुभाष चन्द्र बोस से मुलाक़ात

बाद में वे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी गए, जहां उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज के नेता सुभाष चंद्र बोस से मुलाक़ात की.

आबिद हसन सफ़रानी ने सुभाष चंद्र बोस के साथ काम करने के लिए जर्मनी में अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी थी.

पहली बार जर्मनी में आबिद हसन की मुलाक़ात सुभाष चंद्रा बोस से उस समय होती है, जब कलकत्ता में अपने घर नज़रबंद ‘बोस’ बीमा एजेंट मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के रूप में भतीजे शिशिर बोस की मदद से दिल्ली, पेशावर होते हुए क़ाबुल पहुंचते हैं. और फिर वो आरलैण्डो मैजोन्टा नाम के इटालियन नागरिक बनकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचते हैं.

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत को आज़ाद कराने को लेकर सशस्त्र संघर्ष के लिए समर्थन जुटाने जर्मनी गए बोस ने वहां भारतीय युद्ध क़ैदियों और अन्य भारतीयों से मिले और उनसे अपनी लड़ाई में शामिल होने की अपील की. आबिद हसन भी सुभाष चंद्रा बोस से मिले और उनकी देशभक्ति और बलिदान की भावना से प्रेरित होकर अपनी पढ़ाई ख़त्म कर उनके साथ काम करने की बात कही.

किताब ‘लींजेंडोट्स ऑफ हैदराबाद’ में पूर्व नौकरशाह नरेंद्र लूथर लिखते हैं, ‘नेताजी ने हसन पर ताना मारते हुए कहा कि अगर वह इस तरह की छोटी चीज़ों को लेकर चिंतित हैं तो वह बड़े उद्देश्यों के लिए काम नहीं कर पाएंगे. यह सुनकर हसन ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और नेताजी के सचिव और दुभाषिए बन गए.’

बोस को मिला ‘नेताजी’ का लक़ब

सुभाष चंद्रा बोस को “नेताजी” पुकारे जाने के बारे में लेखक सैय्यद नसीर अहमद अपनी किताब “द इमोर्टल” में लिखते हैं कि, जर्मनी में ही आबिद हसन ने सुभाष चंद्र बोस के लिए पहली बार ‘नेताजी’ शब्द का उपयोग किया. बाद में सुभाष चंद्र बोस पूरे देश में आबिद हसन द्वारा दिए गए लोकप्रिय शब्द ‘नेताजी’ के नाम से मशहूर हुए.

‘जय हिन्द’ नारा दिया

लेखक नसीर अहमद के अनुसार हसन बाद में इंडियन नेशनल आर्मी में मेजर बन गए और उन्होंने ‘जय हिन्द’ का नारा भी दिया था.

जय हिन्द नारे का ज़िक्र करते हुए नरेंद्र लूथर लिखते हैं, ‘नेताजी अपनी फ़ौज और आज़ाद हिन्दुस्तान के लिए एक हिन्दुस्तानी अभिभावन संदेश चाहते थे. बहुत सारी सलाहें मिलीं. हसन ने पहले ‘हैलो’ शब्द दिया, इसपर नेताजी ने उन्हें डपट दिया. फिर उन्होंने ‘जय हिंद’ का नारा दिया, जो नेताजी को पसंद आया और इस तरह ‘जय हिंद’ आईएनए और क्रांतिकारी भारतीयों के अभिवादन का आधिकारिक रूप बन गया. बाद में इसे देश के आधिकारिक नारे के तौर पर अपनाया गया.’

सुभाष चंद्रा बोस की जीवनी “ब्रादर्स अगेंस्ट द राज” लिखने वाले लियोनार्ड अब्राहम गौरडौन के अनुसार भी “जय हिन्द” का नारा आबिद हसन ने ही दिया था.

बोस के निजी सचिव

आबिद हसन सफ़रानी नेताजी सुभाष चंद्रा बोस के किस तरह क़रीबी थे, इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि आबिद ने 1942 से लगभग दो वर्षों के लिए नेताजी के सचिव के रूप में भी काम किया और दुनिया भर में उनके लिए बड़े पैमाने पर यात्रा की.

हिन्दुओं के सम्मान में बदला अपना नाम

फ़ौज में झंडे के रंग को लेकर तनातनी थी, जहां हिन्दु सिपाही भगवा रंग चाहते थे, वहीं मुसलमान सिपाही हरे रंग की मांग कर रहे थे. अंत में हिन्दु सिपाहियों ने अपनी मांग वापस ले ली, जिसका असर आबिद पर बहुत हुआ. उनकी मज़हबी हुरमत की क़दर करते हुए आबिद हसन कहलाने वाले इस अज़ीम शख़्स ने अपने नाम के आगे हिन्दुओं के पवित्र मज़हबी रंग भगवा जिसे “सैफ़रान” कहते हैं लगा लिया और अपनी मौत तक आबिद हसन ‘सफ़रानी’ कहलाए.

सफ़रानी ने राष्ट्रीय गीत लिखा

उर्दु और फ़ारसी पर अच्छी पकड़ रखने वाले आबिद हसन सफ़रानी ने 1943 में आज़ाद हिन्द सरकार के लिए क़ौमी गीत “शुभ सुख चैन की बरखा बरसे, भारत भाग है जागा पंजाब, सिन्ध, गुजरात, मराठा, द्राविड़ उत्कल बंगा” आज़ाद हिन्द रेडियो के मुमताज़ हुसैन की मदद से लिखा जिसे कैप्टन रामा सिंह ने कम्पोज़ किया था, ये रविंद्र नाथ टैगोर के “जन गन मन” पर ही अधारित था.

लाल क़िले में ट्रायल

दुसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद आबिद हसन को अंग्रेज़ों ने भारतीय राष्ट्रीय सेना के दूसरे कमांडरों के साथ गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया था.

बोस के परिवार से नज़दीकियां

नेताजी सुभाष चंद्रा बोस के भतीजे अरबिंदो बोस की शादी आबिद हसन सफ़रानी की भतीजी से हुई जिसका नाम सुरैया हसन था. वो आबिद के बड़े भाई बदरुल हसन की बेटी थी, जो ख़ुद स्वतंत्रता सेनानी थे और गांधी जी के बहुत ही क़रीबी थे.

आज़ादी के बाद सफ़रानी

जब 1947 में भारत को आज़ादी मिली तो अबिद हसन पंडित जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर विदेश मामलों के मंत्रालय में शामिल हो गए. उन्होंने पेकिंग (अब बीजिंग) और क़ाहिरा में पहले सचिव के रूप में काम किया. उन्होंने दमिश्क़, बग़दाद और डेनमार्क में कॉन्सल जनरल के रूप में भी काम किया.

सैय्यद आबिद हसन सफ़रानी ​​सेवानिवृत्ति के बाद अपने शहर हैदराबाद लौट आए जहां उन्होंने 5 अप्रैल 1984 को 73 साल की उम्र में अंतिम सांस ली.