संयुक्त राष्ट्र में उठा भारत में दलित महिलाओं के साथ बढ़ते उत्पीड़न का मामला

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली : भारत में दलित महिलाओं पर बढ़ते उत्पीड़न व शोषण का मुद्दा अब अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफॉर्मों पर भी उठने लगा है.


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गत 21 जून को #UDHR (मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा 1948) की 70वीं वर्षगांठ के अवसर पर जिनेवा में आयोजित ‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद’ के 38वें सत्र में ‘ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच’ ने भारत में दलित महिलाओं द्वारा झेली जा रही जाति आधारित हिंसा से जुड़ी रिपोर्ट व वीडियो जारी करते हुए दलित महिलाओं के मानवाधिकारों के मुद्दों को उठाया.

TwoCircles.net के साथ ख़ास बातचीत में मंच की राष्ट्रीय लीगल कोऑर्डिनेटर सविता अली ने बताया कि, मंच की ओर से हमारी महासचिव आशा कोटवाल जिनेवा गई थी, उन्हीं की अगुवाई में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के समक्ष रिपोर्ट पेश की गई, साथ ही एक डॉक्यूमेन्ट्री भी दिखाई गई.

सविता अली का कहना है कि, पहली बार संयुक्त राष्ट्र में मंच ने पूरी दुनिया के सामने भारत में दलित महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न की सच्चाई को सामने रखा. पूरी दुनिया को ये बात पता चली कि भारत में हर दिन तीन दलित महिलाओं का गैंग-रेप होता है और हमारी सरकार व प्रशासन कुछ नहीं करती हैं.

उनका कहना है कि, इस रिपोर्ट को पेश करने का मक़सद सिर्फ़ और सिर्फ़ जाति आधारित हिंसा की समस्या से लड़ने के लिए सही नीति और क्रियान्वयन से जुड़े सुझावों को संयुक्त राष्ट्र के भीतर और बाहर खोजना और इस दिशा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साझेदारी बनाना था.

वहीं आशा कोटवाल ने TwoCircles.net के साथ ख़ास बातचीत में कहा कि, एक तरफ़ तो हमारे पीएम मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत को सुपर पावर बनाने की बात करते हैं, वहीं देश में मानवाधिकारों की हालत दिन बदिन बदतर होती जा रही है. हमारी संस्था लगातार हर मामले की जानकारी सरकार से साझा करती रही है, लेकिन किसी के भी ओर से कोई ध्यान नहीं दिया गया.

वो बताती हैं कि, हमें उम्मीद है कि जल्द ही संयुक्त राष्ट्र भारत सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करवाएगा और उचित क़दम उठाने के लिए कहेगा, क्योंकि भारत ने भी ‘मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा 1948’ पर हस्ताक्षर किया है. हमारा देश भी इसके प्रति जवाबदेह है.

बता दें कि ‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद’ के 38वें सत्र में ‘जातिगत बर्बरता के विरुद्ध आवाज़ें : भारत में दलित महिलाओं की कहानियां’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में खुले तौर पर इस बात का ज़िक्र किया गया है कि किस तरह मोदी सरकार में दलित महिलाओं को अत्यंत क्रूर हिंसा और दोषियों की रक्षा के लिए अधिकारियों के बीच मिलीभगत की एक विशेष संस्कृति का सामना करना पड़ रहा है.

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अपने साथ होने वाले बलात्कार और हिंसा की घटनाओं में बरती जाने वाली ढ़िलाई और पुलिस की संलिप्तता के ख़िलाफ़ दलित महिलाएं कैसे अपना विरोध दर्ज करा रही हैं.

इस रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में दलित महिलाओं को अक्सर आधुनिक बंधुआ मज़दूरी के लिए मजबूर किया जाता है और बंधुआ मज़दूरी एवं वेश्यावृति में झोंकने के वास्ते उन्हें मुख्य रूप से निशाना बनाया जाता है. सिर पर मैला ढोने का अमानवीय काम करने को मजबूर की गईं लगभग 98 फ़ीसदी महिलाएं दलित समुदाय से आती हैं.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के हवाले से इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 15 साल की उम्र तक पहुंचते–पहुंचते तक़रीबन 33.2 फ़ीसद दलित महिलाएं शारीरिक हिंसा की शिकार होती हैं.

ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव आशा कोटवाल ने इस कायक्रम के दौरान कहा कि, भारत में दलित महिलाओं के मानवाधिकार रक्षक भारी ख़तरों का सामना करते हुए भी जाति के ख़िलाफ़ लड़ाई को साहसपूर्वक जारी रखे हुए हैं. हमारी कहानियां पीड़ित होने की कहानी नहीं है. हम दुनिया को यह ज़ाहिर कर देना चाहते हैं कि हमारी लड़ाई उन लोगों के ख़िलाफ़ है, जो ऐसा ज़हर और पूर्वाग्रह फैलाते हैं, जो हमारे जीवन के अधिकार में रुकावट पैदा करते हैं.

वे आगे कहती हैं, ‘मेरी बहनों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों को लगातार अपने अंदर छुपाते हुए, मेरा देश खुद को एक वैश्विक ताक़त के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकता. जाति-आधारित उत्पीड़न हमारी ज़िन्दगियों पर क़हर बरसाता है, इसकी जड़ें गहरी बैठी हुई हैं, उससे निपटने के नाम पर सिर्फ़ खानापूर्ति के लिए प्रस्तुत किए गए क़ानूनी और विकासात्मक दृष्टिकोण के पाखंड का हम पर्दाफाश करेंगे.

नेशनल फेडरेशन फॉर दलित वीमेन (NFDW) की राष्ट्रीय संयोजक व राइट  to लाइवलीहुड अवॉर्ड (वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार) —2006 की विजेता डॉ. रूथ मनोरामा का कहना है कि, ‘समुदाय की महिलाओं की रक्षा के लिए बनाए गए संवैधानिक एवं क़ानूनी प्रावधान, विकास योजनाएं, संस्थान और प्रक्रियाएं सब अनुचित हैं; वे जाति आधारित हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने में बेअसर और बेकार साबित हुए हैं. नस्लवाद के ख़िलाफ़ विश्व सम्मेलन के बाद से, दलित महिलाओं ने संवाद में शामिल होने और अपने ख़ास मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के किसी भी मौक़े को हाथ से जाने नहीं दिया है. लेकिन भारत द्वारा इसे गंभीर रूप से अवरुद्ध किया जा रहा है.’

‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद’ के इस सत्र में विशेषज्ञों के पैनल में संयुक्त राष्ट्र नस्लीय भेदभाव उन्मूलन समिति की सदस्य और 2016 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के समक्ष जातीय भेदभाव की वैश्विक परिघटना के बारे में अपनी पहली विस्तृत रिपोर्ट पेश करने वाली रीटा इजास्क, महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र विशेष संवाददाता दुब्रव्का सिमोनोविक और भारतीय सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर शामिल थीं.

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