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महिलाओं की दुनिया का एक कड़वा सच

(Photo By: Fahmina Hussain)

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

महिला दिवस हर साल की तरह आया और चला गया. खानापूर्ति के लिए महिलाओं पर जमकर भाषणबाज़ी की गई और सशक्तिकरण के बड़े-बड़े दावे पेश किये गए. लेकिन हमारे समाज में आज भी कथनी और करनी में बहुत फ़र्क़ रहा है.

महिलाएं चाहे काम के मामले में पुरूषों से कहीं आगे ही हो, लेकिन मज़दूरी में वे हर जगह मात खाती नज़र आती हैं. चाहे दिल्ली जैसे महानगर में बन रही कोई आलीशान इमारत का काम हो या फिर सरकारी योजनाओं के अंतर्गत चलाया जा रहा कहीं किसी शहर में कोई काम. घरेलू काम से लेकर खेत-खलिहानों और फिर बड़े ठेकों तक में भी न्यूनतम मज़दूरी की बात महिलाओं के लिए अधिकतर बेमानी ही साबित हुई है.

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा 2017 के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स की बात करें तो भारत 144 देशों की सूची में 108वें नंबर पर आता हैं. इस रैंक से साफ़ तौर पर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मज़बूत और गहरी हैं.

इतना ही नहीं, मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स के 2017 के आंकड़ों की बात करें तो भारत में महिलाएं 25 फ़ीसद कम वेतन पाती हैं.

रोज़गार के क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 लागू किया जा चुका है, लेकिन क़ानून लागू होने के बाद भी रोज़गार के क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव को अभी तक कम नहीं किया जा सका है.

समाज भी है ज़िम्मेदार

बैंक में कार्यरत गुफ़राना अंसारी बताती हैं कि एक मुस्लिम परिवार जन्म लेने के बाद उन्हें बहुत सी बुनियादी हक़ के लिए लड़ना पड़ा है. शादी के पहले पढ़ाई के लिए उन्हें बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. चूंकि वो एक मिडल क्लास परिवार से ताल्लुक़ रखती थी, जहां अक्सर लड़कियों के पढ़ाई को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है. लेकिन इन सबके बाद भी घर के पास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर उन्होंने बीकॉम की पढ़ाई पूरी की. आज पढ़ाई के बदौलत वो बैंक में नौकरी कर रही हैं.

वो आगे कहती हैं सुनने में अच्छा लगता है कि मैं एक बैंक में नौकरी करती हूं. एक सशक्त महिला में मेरी गिनती आती है, लेकिन ये वास्तविकता से कोसों दूर की बात है. मेरी पूरी सैलरी मेरे पति लेते हैं, जिस पर मेरा अधिपत्य नहीं है. ये वास्तव में तो शोषण नहीं है लेकिन उससे कम भी नहीं आंका जा सकता.

वहीं सरकारी स्कूल की महिला शिक्षिका आनंदी बताती हैं कि, क्लास में अटेंडेंस की बात करें तो क्लास में लड़कियों की उपस्तिथि बहुत कम होती है.

वो आगे बताती हैं कि चूंकि अधिकांश लड़कियां गरीब परिवार से होती हैं, इसलिए घर के सभी काम को निपटा कर ही स्कूल आना होता है. हालांकि पहले के मुक़ाबले लड़कों से अधिक लड़कियों की एनरोलमेंट है.

रुक़साना जो एक हॉउस वाईफ हैं. कहती हैं कि उन्हें पढ़ने का शुरू से बहुत शौक़ रहा है, लेकिन वो सिर्फ़ उर्दू और क़ुरआन ही पढ़ पाई हैं. उनके अब्बा मस्जिद के इमाम रहे हैं, जो स्कूल जाने के शख्त ख़िलाफ़ रहें. वो कभी स्कूल कॉलेज नहीं गई.

वो कहती हैं कि, शुरू से ही उनके घर में औरतों के पढ़ाई-लिखाई को अच्छा नहीं समझा जाता है. इसलिए मेरी तीनों बहनों की पढ़ाई मदरसे तक ही सीमित रही.

वो कहती हैं, उनके घर पर्दा को आज भी बहुत एहतियात और सख़्ती से फॉलो किया जाता है. ससुराल में भी इस्लामिक माहौल है.

हालांकि रुक़साना की एक बेटी है, जो इंग्लिश मीडियम स्कूल में 10वीं क्लास में पढ़ती है. इस पर वो कहती हैं कि अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए उन्हें बहुत लड़ना पड़ा, जिसके बाद उनकी बेटी स्कूल जा पाई.