तीन दशकों से भोपाल गैस पीड़ितों के संघर्ष की आवाज़ रहे अब्दुल जब्बार का निधन

By अनुज श्रीवास्तव, TwoCircles.net 

भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले 62 वर्षीय अब्दुल जब्बार का गुरुवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. वे भोपाल गैस पीड़ितों के हित में काम करने वाले एनजीओ के संयोजक थे. इलाज के लिए उन्हें भोपाल के अस्पताल में भर्ती कराया गया था.


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दिल का दौरा पड़ने से हुआ निधन

उनका इलाज कर रहे डॉ. अब्बास ने मीडिया को बताया कि जब्बार डायबिटिक और हार्ट पेशेन्ट थे. गुरूवार की रात उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा, पहली बार रात नौ बजे और दूसरी बार रात लगभग दस बजे. जब्बर के घर वालों के मुताबिक उन्हें गैंगरीन भी था इस कारण पैरों की उंगलियां खराब हो गई थीं. परिजनों ने उन्हें 2 महीने पहले कमला नेहरु अस्पताल में भारती कराया. वहां डॉक्टरों ने उनकी उंगलियां काटने की बात कही. कमला नेहरु अस्पताल में हालत नहीं सुधर रही थी इसलिए उन्हें बीएमएचआरसी लाया गया. वहां भी उनकी हालत नहीं सुधर रही थी. हफ्ते भर पहले ही उन्हें निजी अस्पताल में भर्ती किया गया था.

उन्हें बेहतर इलाज की ज़रुरत थी पर हमारा सिस्टम आम आदमी के इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों को बेहतर बनाने की नीयत नहीं रखता है. आर्थिक तंगी से जूझता जब्बार का परिवार उन्हें किसी बड़े प्राइवेट अस्पताल में नहीं लेजा पा रहा था. और गुरूवार की रात तीन दशकों से लाखों गैस पीड़ितों के संघर्ष की आवाज़ रहे अब्दुल जब्बार ख़ामोश हो गए.

 

सरकार सुध लेती तबतक देर हो चुकी थी

इलाज के पैसे जुटाने के लिए कुछ सामजिक कार्यर्ताओं और उनके दोस्तों ने मिलकर सोशल मीडिया पर एक मुहीम चालाई. सोशल मीडिया के इस कैम्पेन से मध्यप्रदेश सरकार भी थोड़ा हरकत में आई. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जब्बार से मिलने अस्पताल पहुचे. गुरूवार को मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी ट्विट कर उनके इलाज का खर्च उठाने की बात कही, पर तब तक बहुत देर चुकी थी.

 

भोपाल गैस त्रासदी में जिन हज़ारों लोगों की मौत हुई उनमें अब्दुल जब्बार के माता-पिता भी थे. छत्तीसगढ़ के सामजिक कार्यकर्ता नन्द कश्यप त्रासदी के उस समय को याद करते हुए बताते हैं कि “गैस काण्ड के बाद कुछ हफ़्तों तक लोगों को उस इलाके में जाने की इजाज़त नहीं थी. लगभग एक महीने बाद मैं पीड़ितों की सहायता के लिए कुछ दवाएं लेकर वहां पंहुचा. लोग पीड़ितों की सहायता में सबसे आगे खड़े रहने वाले 20 साल के एक जोशीले नौजवान बातें करते थे…वो नौजवान अब्दुल जब्बार था.”  इसके बाद वह ताउम्र इस त्रासदी के पीड़ितों के लिए संघर्ष करते रहे. गैस त्रासदी के पीड़ितों में खुद जब्बार भी एक थे. उनके फेफड़ों और आंखों पर गैस रिसाव का गंभीर असर हुआ था. उन्हें एक आंख से बेहद कम दिखाई देने लगा था..

छत्तीसगढ़ मुक्तिमोर्चा के कलादास डहरिया ने बताया कि “जब्बार बहुत मिलनसार व्यक्ति थे. उनसे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति उनका दोस्त हो ही जाता था. गैस पीड़ितों की हालत देख समाज के लोग उनके पास जाने उनकी मदद करने से कतराते थे लेकिन जब्बार भाई सभी की भरपूर सेवा करते थे. हर ज़रूरतमंद के लिए उनके घर का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता था.” उन्होंने बताया कि हिन्दू-मुस्लिम का जो ज़हर आज समाज में घोल दिया गया है जब्बर के संगठन में उसका कोई असर नहीं था वहां सब बराबर थे.  

दो दिसंबर 1984 की रात भोपाल की यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से जहरीली मिथाइल आइसोसाएनेट गैस लीक हुई. ज़हरीली गैस हवा में मिलकर तेज़ी से फ़ैल रही थी. 30 तन से भी अधिक ज़हरीली गैस का रिसाव का रिसाव हुआ था. तबाही ऐसी भयानक थी कि हवा जिस तरफ़ रुख़ करती लोग मरते चले जाते थे. उस रात वहां लगभग तीन हज़ार लोगों की मौत हुई. गैस से हुई कुल मौतों का आंकड़ा लगभग 15 से 20 हज़ार का है. इस घटना से लाखों लोग प्रभावित हुए.

इस त्रासदी के निशान भोपाल में अब भी देखे जा सकते हैं. गैस त्रासदी के पीड़ित आज भी उस रात को याद कर के समह जाते हैं.

भोपाल के राजेन्द्र नगर मोहल्ले में जहां जब्बार रहते थे वो इलाका युनियन कार्बाईट फैक्ट्री से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है. उस रात वे अपनी माता जी के साथ घर पर ही थे. घर में सो रहे लोगों की तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. एक-दो के साथ नहीं, पूरे मोहल्ले में यही हो रहा था. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि ये हो क्या रहा है. सांस नहीं ली जा रही थी. जब्बार माँ को स्कूटर में बिठा चालीस किलोमीटर दूर किसी जगह पर छोड़कर दूसरों की मदद के लिए वापस उस ज़हर में लौट आए. वे लौटे तो नज़ारा दिल दहला देने वाला था, लोग सोते-सोते मर गए थे कुछ सड़कों में पड़े तड़प रहे थे. कंसट्रक्शन कंपनी में बोरवेल लगाने की नौकरी करने वाले अब्दुल जब्बार उस रात जो शुरू हुआ तो अंत समय तक उसी जोश के साथ चलता रहा.

 

‘ख़ैरात नहीं रोजगार चाहिए’ का नारा

1987 में जब्बार ने भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन की स्थापना की. ये संगठन मुख्यरूप से उन विधवा महिलाओं के लिए संघर्ष करता है जिनके घरवाले गैस काण्ड में मारे गए थे. संघर्ष आगे बढ़ा और 1989 में गैस पीडि़तों को मुआवज़ा देने का ऐलान किया गया. तब उन्होंने स्वाभिमान केन्द्र की स्थापना की जिसमें महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई सिखाने का काम किया जाता था, ताकि ये महिलाएं स्वाभिमान से अपना जीवन जी सकें. लगभग 5 हजार महिलाएं इस मार्फ़त लाभान्वित हुई हैं. हालांकि मुआवज़ा भी सभी को और पर्याप्त मात्रा में नहीं मिला है, पर यदि वो मिल जाए तब भी मुआवज़ा न्याय नहीं होता है. खैरात नहीं रोजगार चाहिए के नारे के साथ अब्दुल जब्बार के नेतृत्व के में गैस पीडि़तों ने लगभग 20 हजार पोस्ट कार्ड प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भिजवाए थे. बड़े शर्म की बात है कि भारत की सरकार यूनियन कार्बाइड के चेयरमेन को उसकी मौत से पहले गैस पीडि़तों के न्याय के लिए भारत वापस नहीं ला सकी.

अपने एनजीओ के माध्यम से जब्बार पीड़ितों के परिवार की मदद करते थे और उनकी बात सरकार तक पहुचाते थे. उनके संगठन ने पीड़ितों, बचे लोगों और उनके परिवारों के लिए न्याय के लिए संघर्ष किया. समय समय पर प्रदर्शन कर सरकार के खिलाफ हल्ला भी बोला. केवल भत्ते और मुआवजे की मांग नहीं की, विशेष रूप से विधवाओं के लिए जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया, उनके लिए रोजगार की मांग भी की.

 दोषियों को अब तक सजा नहीं

1988 में जब्बार के संगठन को पहली सफलता तब मिली जब सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ितों को गुज़ारा भत्ता देने की बात कही. इसके बाद 1989 में भारत सरकार और यूनियन कार्बाईट के बीच हुए समझौते में ये तय हुआ कि पीड़ितों को 25 हज़ार और मृतकों के परिजनों को एक लाख रूपये दिए जाएंगे. इसके बाद प्रोरेटा पर घायलों को 25-25 हजार और मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख अतिरिक्त मिला। उनके संगठन की लड़ाई के चलते ही वर्ष 2010 में भोपाल के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत ने यूनियन कार्बाइड के अफसरों को दो-दो वर्ष की सजा सुनाई, मगर इस पर अब तक अमल नहीं हुआ है.

अब्दुल जब्बार को याद करते हुए उनके दोस्त बादल सरोज ने लिखा है कि “अनगिनत साथी और कामरेड्स कमाए हैं जीवन मे, ऐसे कि जिन पर आंख मूंदकर  एतबार और भरोसा किया जा सकता है. मगर दोस्त इने-गिने हैं, भोपाल में तो और भी कम, जब्बार भाई उनमे से एक हैं. दोस्त यानि जिनसे बिना कहे सुने ही संवाद हो जाये, दोस्त याने जिनकी याद से ही मन प्रफुल्लित हो जाये, दोस्त मतलब जिनके साथ बैठने भर से हजार हॉर्स पावर की हिम्मत आ जाये, दिलोदिमाग ताजगी से भर जाये, दोस्त मतलब यह तय न कर पायें कि लाड़ ज्यादा है या आदर, दोस्त मतलब आल्टर ईगो. जब्बार हमारे दोस्त और हम जैसों के आल्टर ईगो हैं.”

बादल कहते हैं कि “भोपाल ने अनेक जहीन व्यक्तित्व और जुझारू लड़ाके दिए हैं, उनके बारे में सिर्फ जानने का मौका मिला, पापा के बेटे के नाते कुछ को देखने का उनसे मिलने का भी अवसर मिला. मगर जब्बार भाई स्ट्रगल-मेड आइकॉन हैं. गली के एक मकान से दुनिया के आसमान तक पहुंचे खुद्दार इंसान हैं. पिछली आधी सदी के भोपाल के जन संघर्षो के प्रतीक, सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही नहीं हर किस्म की जहरीली हवाओं के विरुध्द लड़ाई के सबसे सजग और सन्नद यौद्धा – एक  अजीमुश्शान भोपाली.” 

जब्बार से पहली मुलाक़ात के बारे में बादल बताते हैं कि “उनसे पहली मुलाकात दिवंगत कामरेड शैली के साथ 1992 के दिसम्बर में भोपाल की शर्मिंदगी के दिनों में हुई थी जब दिग्विजय सिंह, शैली, रामप्रकाश त्रिपाठी, हरदेनिया जी आदि की एक छोटी सी टीम जलते सुलगते भोपाल की आग बुझाने में लगी थी. जब्बार भाई उसके सबसे सक्रिय और जनाधार वाले हिस्से थे. आखिरी बार उनका मेसेज परसों आया था, जब उन्होंने सहयोग के लिए आभार व्यक्त करते हुए मिलने के लिये बुलाया था. अपने ठीक होने की आश्वस्ति जताई थी. हम कम्बखत पेंडिंग काम निबटाने और अखबार निकालने में ऐसे मशगूल और मशरूफ़  हुए कि चिरायु अस्पताल जाना आज के लिए टाल दिया.

अकेले एक शख्स का जाना भी संघर्षों की शानदार विरासत वाले शहर भोपाल को बेपनाह और दरिद्र बना सकता है. एक आवाज का खामोश होना भी कितना भयावह सन्नाटा पैदा कर सकता है – कल शाम से यह महसूस हो रहा है.

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