“हालात तो सहाबा पर भी आए है, इससे भी मुश्किल आएं है अल्लाह हिम्मत देगा।”

तबलीग़ के साथ मेरे अनुभव

आसमोहम्मद कैफ़।Twocircles.net


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तबलीग़  जमात की इतनी  बैकवर्ड है कि मैंने अंग्रेजी बोलना ही इनसे सीखा था। मैं हिंदी मीडियम का छात्र रहा हूँ। 1999 में हमारे यहाँ इंडोनेशिया और फिलीपींस की जमातेें आई थी।तर्जुमानी करने के लिए इनके पास एक ही साथी थे।गर्मियों की छुट्टियां होने की वजह से पापा के कहने पर मैं इनकी कही गई बात को ट्रांसलेट करके मैं लोगो को बताता था। मैं पूरी जमात का प्रिय था।सिर्फ 13 साल का था। मैंने डेढ़ महीने से ज्यादा इनके साथ गुुुज़ारा। मुझे सबसे अच्छी बात यह लगती थी कि इनके ‘अमीर’ इत्तेफाक से उनका नाम भी (आस मोहम्मद ही था और वो हापुड़ के आसपास के थे)

ख़ुद बर्तन धोने बैठ जाते थे। सभी लोग बेहद विनम्रता से बात करते थे। नमाज़, क़ुरआन और हदीस से अलग बिल्कुल बात नहींं करते थे।राजनीतिक मसले इनके लिए अछूत थे। बस अल्लाह-अल्लाह करते थे। मैं आपको पूरे यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि मैंने तबलीग़ जमात एक ऐसी जमात के तौर पर महसूस किया जिसे गुस्सा नही आता था। तबलीग़ के लोगो का मानना था कि अगर हमारे थप्पड़ मारे तो चुप हो जाओ। आंखों में आंसू भरकर अल्लाह से कहो। पहले तो माफ़ कर दो। वरना सब्र  कर लो। तबलीग़ का सबसे बड़ा तर्क ही सब्र होता है।

तबलीग़ के लोग बहस से बचते हैं। जब भी कोई उनसे दुनियावी बात करने की कोशिश करता था। तो बेहद हिकमत से सिर्फ अल्लाह उसके रसूल और सहाबा(मोहम्मद साहब के वक़्त में उनके साथी) के बारे में ही बात करते थे। कुछ-कुछ सूफ़ीज़म जैसा।बस अपनी धुन में लगे रहना। तबलीग़ के नज़दीक हर एक बात की एक तरतीब(अनुशासनिक व्वयस्था) है। किरदार बेहतर अख़लाक की नुमाइश मैंने तबलीग में ख़ासतौर पर देखी। ग़ैर मुस्लिमों के साथ वो बेहद अच्छा व्यवहार करते थे। मेरी वजह से मेरे साथ पढ़ने वाले कुछ दोस्त भी मस्जिद आते थे। उन्हें भी अच्छा लगता था।

जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा मैं तबलीग़ से दूर हो गया। मुझे लगने लगा कि तबलीग़ तर्क की कसौटी पर नही है। उसका पूरा ध्यान दुआ और इबादत पर है। उसमें दुनियावी जिंदगी का प्रेक्टिकल एक्ट नही है। वो लोगो को दुनियावी जिंदगी से हटाकर सिर्फ साधु बनाना चाहती है। त्याग, तपस्या तबलीग़ का भी मोटो है। तबलीग दुनिया की हर चीज़ को फानी(मिटने वाली जो कभी नही रहेगी) मानती है और उनके लोगोंं का कहना है कि हमें यहां रहकर बस ख़ुदा की इबादत करनी है।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि तबलीग़ ने हर एक अच्छे काम के लिए नेकियों के लिए संख्या निर्धारित की है जिसके बारे में अक्सर लोग सवाल पूछते थे।जैसे सामूहिक नमाज़ पढ़ने पर 7 करोड़ नेकी मिलती है और अल्लाह के दो फरिश्ते हमारे कंधे पर हर वक़्त हमारे कंधे पर अच्छे और बुरे आमालों (कर्मों) का हिसाब लिखते हैंं।

इसके बाद तबलीग़ के लोगोंं ने बहुत कोशिश की वो मुझे चार महीने की जमात में ले जाएं मगर मैं कभी 3 दिन के लिए भी नही गया। मगर मुझे तबलीग़ अच्छी लगती थी। मैंने इनके इस सिद्धान्त को फॉलो किया कि किसी से भी नफ़रत नही करनी है। हमेशा खुद को जीरो समझना है और सिर्फ अल्लाह ही सब कुछ कर सकता है। इंसान की कोई औक़ात नहींं है। एक बार मैं हज़रत निज़ामुद्दीन मरकज़ भी गया। वहां तब मैं ज्यादा कुछ समझ नहींं पाया। वहां हर कोई कुछ न कुछ पढ़ रहा था। एक और बात मुझे सबसे अच्छी यह लगी कि तबलीग़ ने बेहद ग़रीब मुसलमानों को इज्जत दी। यही कारण है यह इतनी बड़ी संख्या में मज़बूत हुई। जैसे मेरे मौहल्ले के सब्ज़ी बेचने वाले, रिक्शा चलाने वाले, पानी का नल गाड़ने वाले जैसे मज़दूर तबक़े के लोगो को तबलीग़ से जुड़ने के बाद न केवल बराबरी और सम्मान मिला बल्कि इनमे से ही एक हफ्तेवार अमीर (मुख्य)भी बनता था।

जब मैं थोड़ा सा बड़ा होने लगा तो मेरे आसपास कुछ जमात ए इस्लामी के कार्यकर्ताओं ने मुझे मुतासिर करके समझाना चाहा कि दीन के साथ साथ दुनियावी इल्म बहुत जरूरी है। तबलीग़ सिर्फ दीन पर बात करती है। इसलिये पढ़े लिखे नौजवानों को जमात ए इस्लामी को समझना चाहिये और दीन और दुनिया मे सामंजस्य बैठाना चाहिए। तबलीग़ के प्रति इनमे बहुत नाराज़गी थी।

मेरे शिया दोस्त बनने लगे। मेरे आसपास के लोग शियाओं के बारे में बुरा भला कहते थे। मगर मैं जानबूझकर उनके नज़दीक हुआ। कई परिवारों का सदस्य जैसा हो गया। वो मुझे प्यार करते थे। मेरी समझ विकसित होने लगी थी। वहां मैंने यह महसूस किया कि वो तबलीग़ से ज्यादा जमात ए इस्लामी को कट्टर समझते थे। जबकि तबलीग़ के लिए वो कहते थे। ये कुछ नही जानते। बेवक़ूफ है। शिया समुदाय के लोगोंं के अपने अलग ही तर्क हैंं। अपना अलग ही सुनाते थे। तबलीग से वो ज्यादा नाराज़ थे। इसकी वजह सहाबा(मोहम्मद साहब के वक़्त के साथी) के आपसी इख्तिलाफ़ (मतभेद)थे।तबलीग़ सबसे ज्यादा गुणगान ही सहाबा का करती हैं। हयातुस्ससहाबा (सहाबा की ज़िंदगी) तबलीग़ के साहित्य में की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है।

थोड़ा और सयाना हुआ तो कुछ बरेली वाले दोस्त बन गए। इनमे वो लोग थे जो सीधे आला हज़रत से ताल्लुक रखते हैं। तबलीग़ के नाम पर यह भी मुंह सिकोड़ लेते थे जबकि शियाओं के प्रति ये नरम थे।इनका यह मानना था कि तबलीग़ देवबंद के संरक्षण में चलती है और देवबंद उनका राइवल (प्रतिद्वन्दी) है।

पिछले तीन साल में तबलीग़ जमात को लेकर मेरा ख्याल नकारात्मक हो गया। अब तक मैं यह समझता था कि इन्हें दुनियावी चीज़ों से कोई मतलब नही है और ये लोग लालची नही है। इस दौरान तबलीग़ में वर्चस्व को लेकर लाठी डंडे चल गए। षड्यंत्र हुए। साज़िशों के बीच गुटबाजी हुई और तबलीग दो फाड़ हो गई है। मौलाना साद ने बेहद आपत्तिजनक बातें कही और देवबंद दारुल उलूम ने उनके ख़िलाफ़ फतवा दे दिया। दारुल उलूम से किसी की असहमति हो सकती है। मगर तमाम फिरक़े इस बात पर एक राय है कि यहां आलिम बहुत अच्छे जानकारी वाले हैं।

इन दिनों यह देखने मे आया कि तबलीग़ के लोग मौलाना साद का महिमा मंडन करने लगे और उनके बारे में अजीब-अजीब क़िस्से गढ़ने लगे। जैसे ‘हज़रत जी’ ने फूंक मारकर मरीज़ ठीक कर दिया। मौलाना साद जब मरकज़ आते थे तो लोगो मे उनसे हाथ मिलाने के लिए भारी भीड़ में होड़ लगती थी। उनकी ख़िदमत दौड़ दौड़ के जाती थी। मौलाना साद का वर्चस्व बहुत बढ़ गया। इसी से वो अति आत्मविश्वास में आ गए। तबलीग़ दो फाड़ हो गई।दारुल उलूम देवबंद से मौलाना साद की बात बिगड़ गई। जमात जाकर मस्जिदों में ठहरती थी। वहां के इमामों की जड़ें दारुल उलूम में थी। सहयोग कम होने लगा। तबलीग़ के काम मे कमी आई। अब यह कोरोना एपिसोड हो गया।

मौलाना साद के पुराने जानकर कहते हैं कि ये सब इनकी ज़िद और अतिआत्मविश्वास दिखाने की उनकी आदत की वजह से हुआ। तबलीग़ की ख़ूबी ही ये थी कि उसने आम आदमी को भी सम्मान दिया। मगर मौलाना साद ख़ुद को अतिविशेष की श्रेणी में ले आए। उनके ख़ास चेले उनके बारे झूठ फैलाने लगे। वो तरह-तरह के क़िस्से गढ़ने लगे।

जहां तक तबलीग़ का सवाल है। उसने अब तक खुद को राजनीति से दूर रखा है। वो तमाम मुस्लिम संगठनों की आंख में पहले से खटकती रही है। क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि तबलीग़ मुसलमानों को ‘अल्लाह मियां की गाय’ बना रहा है। इस पूरे प्रकरण के बाद तबलीग़ के लोगोंं मेंं किसी तरह की कोई शिकन नही है। वो बिल्कुल भी घबरा नही रहे हैं। उनका आज भी मौलाना साद में अटूट विश्वास है। तबलीग़ के लोग अपना पसंदीदा वाक्य बोल रहे हैं “हालात तो सहाबा पर भी आए है, इससे भी मुश्किल आएं हैंं, अल्लाह हिम्मत देगा।” तबलीग़ के लोग एक और बात कहते हैं। वो वो कह रहे हैं यह भी अल्लाह की तरफ़ से है। जो मुसलमान कल तक हमारे ख़िलाफ़ खड़े थे आज वो ही हमारे लिए हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं।

(लेखक 20 साल से ज़मीनी पत्रकार है और टीसीएन के प्रमुख संवाददाता है)

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