आरक्षण और जातिवाद पर कंगना को पत्रकार मीना का करारा जवाब

डियर कंगना रनौत,

आशा करती हूं कि आप एकदम अच्छी होंगी. कल मेरे सामने आपका एक ट्वीट आया जिसे पढ़कर बहुत दुख हुआ. शुरूआत में मैं आपको बेहद पसंद करती थी और आपकी लगभग सभी फिल्में देखती थी. आपका चुलबुलापन, आपकी एंक्टिंग, आपकी फिल्मों का विषय कई बार मुझे पसंद आई. लेकिन शायद असल जिंदगी में आप इससे बिल्कुल अलग हैं.


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शेखर गुप्ता, द प्रिंट के फाउंडर ने एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के लेख ‘Oprah Winfrey sent a book on caste to 100 US CEOs but Indians still won’t talk about it’  को शेयर किया हुआ था. आपने इस पर रिप्लाई करते हुए ट्वीट किया- पहला, आधुनिक भारतीयों (मॉडर्न इंडियन्स) ने कास्ट सिस्टम को नकार दिया है. दूसरा, गांव-कस्बों में भी सख्त कानून के तहत कास्ट सिस्टम अस्वीकार्य है… और तीसरा और सबसे जरूरी प्वाइंट आपने कहा कि हमारे संविधान ने आरक्षण को पकड़े हुआ है.

मैं आपसे इन्हीं प्वाइंट्स के इर्द-गिर्द बात करूंगी. कंगना जी मैं भी एक दलित समाज से आती हूं. अपने परिवार ही नहीं बल्कि खानदान की पहली लड़की हूं जिसने एम.फिल तक पढ़ाई की. मेरे घर में पढ़ाई का माहौल ही नहीं था. मेरे पापा-मम्मी मजदूर थे और मम्मी तो आज भी मजदूरी करती हैं, चिलचिलाती धूप में सर पर मिट्टी-पत्थर के तसले उठाती हैं. दोनों ही पढ़-लिखे नहीं थे. लेकिन हमेशा से अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा देखना चाहते थे. वे चाहते थे कि जो काम हमने किया है वो काम उनके बच्चों को ना करना पड़े. इसके बावजूद भी उन्होंने कभी पढ़ाई के लिए फोर्स नहीं किया. कभी डंडा लेकर हमारे पीछे नहीं दौड़े. उनका कहना था कि पढ़ाई के लिए खुद में लगन होनी चाहिए. हम पांच-बहन भाई थे लेकिन धीरे-धीरे सबने पढ़ाई छोड़ दी लेकिन मैंने पढ़ाई का साथ नहीं छोड़ा. बचपन में अपने आप से एक वादा किया था कि जब तक पढ़ाई की सीढ़ी खत्म नहीं होगी तब तक पढ़ती जाऊंगी, चाहे बिल्कुल पासिंग मार्क्स ही क्यों ना आए. लेकिन उस समय अपने आप से वादा करते समय भूल गई थी कि कितना भी पढ़ लो आगे चलकर इन सीढ़ियों में दलित होने के कारण कांटें बिछे हुए मिलेंगे. आपको पता होना चाहिए कि आज जो शिक्षा मैं हासिल कर पाई हूं वो सब सिर्फ आरक्षण की वजह से ही संभव हो पाया है.

मैं दिल्ली जैसे शहर में पली-बढ़ी हूं इसलिए आरक्षण के महत्व को समझ पाई, इसलिए अपना अधिकार भी ले पाई. लेकिन आज भी लाखों-करोड़ों लोग हैं जो दलित/पिछड़ी जाति के कारण पढ़ना तो दूर अपनी बात भी कथित सवर्णों के आगे नहीं रख पाते हैं. उन्हें नहीं पता आरक्षण और शिक्षा उनका मूलभूत अधिकार है.

आपने अपने ट्वीट में कहा कि आधुनिक भारतीय जाति व्यवस्था को नकार रहे हैं. जैसा कि मैंने बताया मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूं. आपको जानकर हैरानी ही होगी शायद कि मैंने एक इंटरनेशनल संस्थान में नेौकरी भी की है और वहां भी मुझे जातिवादी प्रोग्रेसिव-लिबरल और आपके अनुसार मॉडर्न इंडियन्स मिले जिनकी वजह से मैं अपनी नौकरी खो चुकी हूं क्योंकि मैं एक दलित हूं. वे नहीं चाहते थे कि मैं उनके बराबर में बैठ कर काम करूं इसलिए उन्होंने मुझे निकालना सही समझा.

ये ना सिर्फ उस संस्थान की बात है बल्कि हर जगह हर फिल्ड में देखा जा सकता है. कहीं भी आपको दलित-ओबीसी-आदिवासी समाज के लोग उच्च पदों पर नहीं दिखेंगे. हां, अगर कुछ जगह दिखेंगे तो वो सरकारी आंकड़ा होगा, जहां आज भी आरक्षण है और उनकी मजबूरी है हमारे समाज के लोगों को रखना क्योंकि उनके लिए सीट रिज़र्व होती है. वहां भी कई बार चालाकी कर दी जाती है, खैर उस पर अभी बात नहीं.

अगर आपको लगता है कि आरक्षण का गलता फायदा उठाया जाता है या संविधान की वजह से आरक्षण के अंतर्गत आने वाले समाज ने इसे जबरदस्ती पकड़ कर रखा हुआ है… तो मैं आपसे जानना चाहती हूं कि क्या कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के 31 जजों में आज भी दलित समाज से केवल एक जज है, ओबीसी के दो और एसटी का तो एक भी नहीं है.  क्या कारण है कि मेनस्ट्रीम मीडिया में एक भी संपादक दलित समाज से नहीं है.

आपने कहा कि आरक्षण की वजह से मेरिटधारी डॉक्टर, इंजीनीयर, पायलट आदि को काफ़ी नुकसान होता है. लेकिन क्या इन आंकड़ों पर आपको गुस्सा नहीं आता! अगर हम सिनेमा की ही बात करें तो मुझे सिनेमा में भी कोई बड़ा नाम याद नहीं आता जो इस समाज से हो. अब आप और आप जैसे जाति पर गर्व करने वाले यहां कहेंगे कि क्या सिनेमा में भी आरक्षण लागू करवा दें! तो मैं यहां कहना चाहूंगी कि मैं भी चाहती हूं कि आरक्षण खत्म होना चाहिए लेकिन उससे पहले आप और आप जैसे सवर्ण जाति पर गर्व करना तो छोड़े. वे लोग अपनी जाति पर गर्व करते हैं और दूसरों की जाति को गाली बना देते हैं. आपको याद है ना सलमान खान, शिल्पा शेट्टी, सोनाक्षी सिन्हा और युवराज सिंह जैसे आदि मॉडर्न इंडियन्स ‘भंगी’ जैसा दिखना नहीं चाहते. उनके लिए भंगी समाज के लोग आज भी गाली बनाने के काम आते हैं. मुझे लगता है जितने नाम मैंने गिनाए हैं वे आपके अनुसार मॉडर्न इंडियन्स तो होंगे ही..!

इसी जाति के कारण संस्थागत मर्डर हो जाते हैं जो सबकी नजरों में सुसाइड होता है लेकिन असल में तो वो सवर्णों द्वारा मर्डर किया जाता है. जैसे रोहित वेमुला, पायल तड़वी… इनमें एक नाम मेरा भी होने जा रहा था. यही मॉडर्न इंडियन्स उस समाज को परेशान करने में कोई मौका नहीं छोड़ते जो दलित और पिछड़े हैं. आपने कहा कि अब जाति व्यवस्था स्वीकार्य नहीं है लेकिन इसे भी आप तब समझ पाती जब आप अपनी राजपूत जाति होने पर गर्व करना बंद कर देती. क्योंकि आज भेदभाव का तरीका बदल गया है. इस समाज के साथ यही गर्वित रहने वाला समाज उठता-बैठता है, खाता-पीता है लेकिन उसके साथ और उसके नीचे काम नहीं करना चाहता. अगर गलती से कोई वहां तक पहुंच भी जाता है तो उसे निकालने की पूरी राजनीति खेलनी शुरू कर दी जाती है.

कंगना जी क्या आपने कभी पता करने की कोशिश की है कि सीवर साफ करने वालों की जाति क्या होती है! वैसे तो पता करने की आपको यहां जरूरत नहीं क्योंकि वे सब एक ही समाज के हैं… क्या आपके मन में कभी ये सवाल नहीं आया कि वे सब एक ही समाज के क्यों हैं, किसी दूसरे समाज के या किसी सवर्ण समाज के क्यों नहीं..! क्यों उनकी मौत पर भी इस मॉडर्न इंडिया और मॉडर्न इंडियन्स के बीच चुप्पी रहती है.!!

अगर यहां भी आपको कुछ नज़र नहीं आता तो आपको एक बार उत्तर प्रदेश और बिहार घूम कर आना चाहिए. शायद आपने डोम समाज का नाम सुना हो..! आज भी डोम समाज के लोग गांव से बाहर रखे जाते हैं. वे गांव के अंदर तक नहीं आ सकते फिर किसी से मिलना, बैठना, खाना-पीना तो दूर की बात है. क्या वो आज के मॉडर्न इंडिया में फीट नहीं बैठते.!

उनका खाना-पानी सब अलग होता है.

अगर आपने थोड़ा सा पढ़ा हो और इस समाज को जानने की रूचि रही होगी तो आपने देवदासी प्रथा के बारे में जरूर सुना होगा. आपने मुलाकरम (ब्रेस्ट टैक्स) के बारे में जानती होंगी. पिछड़े जाति के समाज की महिलाओं को मंदिर में भेज दिया जाता था और वहां पर उनका यौन शोषण किया जाता है. इसी तरह मुलाकरम में भी होता था. पिछड़ी जाति की महिलाओं को अपना ब्रेस्ट ढ़कने की अनुमति नहीं थी. अगर कोई ढ़क लेता तो उसे टैक्स देना होता था. ये सब इसी समाज से आने वाली महिलाओं के साथ ही होता था.

मैंने हाल ही में बाबा साहेब आंबेडकर की ‘वेटिंग फॉर अ वीजा’ की कहानियां पढ़ी. जहां उनकी जाति के वजह से उनकी डिग्रियां, उनका तज़ुर्बा, उनकी काबिलियत, उनकी शिक्षा सब ताक पर रख दिया गया. लोगों को याद रहा तो केवल उनकी जाति, जिसकी वजह से उन्हें एक नहीं बल्कि कई बार प्रताड़ित किया गया. क्या आपको उनकी काबिलियत पर भी शक है..! उन्होंने सब बहुत करीब से देखा तभी वे संविधान में आरक्षण का प्रावधान कर के गए. नहीं तो जहां-तहां उनके समाज के लोग शिक्षा और आरक्षण की वजह से दिख जाते हैं वे कभी ना दिख पाते.

आपने कहा कि गांव-कस्बों में सख्त कानून के तहत जाति व्यवस्था स्वीकार्य नहीं है. वैसे तो मैंने काफ़ी कुछ इस बारे में ऊपर बता ही दिया है लेकिन अगर आपको अभी भी विश्वास ना हो कि जाति की खाई इस देश में कितनी गहरी है तो आपको ये जानने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी है. आपको बस रोज़ाना कोई भी एक न्यूज़ पेपर उठाना है और पढ़ना है. आपको रोज़ाना कोई एक ख़बर तो मिल ही जाएगी कि जाति की वजह से कहीं किसी को मार दिया तो कहीं किसी का रेप कर दिया, कहीं मॉबलिंचिंग कर दी तो कहीं मरने पर मजबूर कर दिया गया. मैंने ऐसी कई स्टोरी भी की हैं अगर आप कहेंगी तो उनके लिंक आपको भेज दूंगी कि जाति की वजह से किसी को क्या-क्या खोना पड़ता है.

जिस समाज से मैं आती हूं वहां रहकर तो यही लगता है कि हमें ऊंचे सपने देखने का कोई हक़ नहीं. मैं भी पढ़-लिखकर अच्छी जगह नौकरी करना चाहती थी. कुछ करना चाहती थी. लेकिन मुझे अपनी जाति की वजह से नौकरी गंवानी पड़ी. सबके सामने सच बोलने की हिम्मत की तो कहीं भी नौकरी नहीं मिल रही. फिर भी मैंने आज भी सच का साथ नहीं छोड़ा है. बावजूद इन सबके मैं बाबा साहेब के संविधान पर यकीन रखती हूं कि आज नहीं तो कल जरूर अच्छा होगा.

आशा करती हूं ये सब जानने के बाद आप अपना नज़रिया बदलेंगी. बातें तो बहुत हैं जो आपको बताना चाहती हूं लेकिन आज बस इतना ही.

धन्यवाद और आभार –
मीना कोतवाल 
(टीसीएन से जुड़ी रही मीना कोटवाल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और उन्होंने ये लेख ‘द वायर’ के लिए लिखा है.)
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