आसमोहम्मद कैफ़ । Twocircles.net
दारुल उलूम देवबंद में महीनों से लाइब्रेरी में एक बड़ी कवायद जारी है। लाइब्रेरी इंचार्ज मौलाना शफ़ीक़ और उनकी टीम के 13 लोग अपनी धुन में रमे हुए हैं। ये लोग छुट्टी नही ले रहे हैं और अब इनके काम की कोई सीमा नही हैं। ऐसा करने का इन पर दबाव नही है,मगर ये जानते हैं कि जो कुछ ये करने जा रहे हैं वो तारीख़ के पन्नों में लिखा जाएगा। मौलाना शफ़ीक़ और उनकी टीम इतिहास में दर्ज होगी क्योंकि वो इतिहास को संजोने का काम कर रही है।
यह इतिहास 2 लाख किताबों में दर्ज हैं, जिनमें से 1563 किताबें सिर्फ हाथ से लिखी हुई है। इनमे मुग़ल बादशाह औरंगजेब के हाथ से लिखा हुआ मुकद्दस क़ुरान और जंतु विज्ञान पर लिखी गई इमामदीन जिकरिया की 750 साल पुरानी पांडुलिपि हैं। यहां 500 साल से लेकर 800 साल तक की पांडुलिपियों हैं। दारुल उलूम को बतौर हदिया (तोहफा अथवा दान) में मिली है। इन्हीं संजो कर रखने में दारुल उलूम ने काफ़ी गंभीरता और सावधानी बरती है।
यहां पुरानी किताबों का एक बड़ा जखीरा मौजूद है। 1563 पाण्डुलियों है। इसके अलावा हज़रत मुहम्मद साहब द्वारा मिस्र के बादशाह को लिखा गया पत्र, औरंगजेब के हाथ से लिखा हुआ क़ुरान, सोने से लिखा हुआ क़ुरान, एक ही पन्ने पर पूरा लिखा हुआ क़ुरान ,तौरेत, समस्त वेद,गीता महाभारत, रामायण जैसे अदुभुत ज्ञान की हस्तलिखित किताबें है। जिन्हें आधुनिक रूप से संरक्षित किया जा रहा है।
मौलाना अरशद क़ासमी बताते हैं ” दारुल उलूम के आलिमों का इल्म के लिए मुहब्बत का आलम यह है कि किताबों को जिंदा रखने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं जैसे इंतेकाल कर गए शैखुल हदीस मौलाना अंजर शाह कश्मीरी का एक मशहूर किस्सा है। एक बार वो मिस्र में गए और उन्हें एक पुरानी किताब मिली। जिसे उन्होंने पसंद किया मगर देने वाले ने असमर्थता जताई। तब मौलाना ने उसे पढ़ने के लिए मांगी और एक ही रात में उसे याद कर लिया वो लौट कर आये तो यहां आकर वो किताब लिख ली,अब वो ‘नुरुल इज़ा ‘ यहां सेलेबस में पढ़ाई जाती है “।
मौलाना शफ़ीक़ कहते हैं यही किताबें इल्म का दरिया होती है। इनपर रिसर्च की जाती है। हमारे यहां दुनियाभर के रिसर्च स्टूडेट आते हैं। हमें इनकी हिफाज़त करनी थी। इसके लिए मोहतमिम (कुलपति) मौलाना अब्दुल ख़ालिक़ मद्रासी खुद मुझे लेकर भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार गए।वहां से जानकारी हासिल की औऱ फ़िर तीन लोगो की एक टीम जम्मू में इसी विषय पर आयोजित एक सेमिनार में भाग लेनी गई। हमनें दिल्ली में ईरान कल्चर हॉउस से संपर्क किया। ईरान कल्चर हॉउस के लोग काफ़ी प्रोफेशनल और जानकार थे। वो सहयोग करने के लिए राजी हो गए। उन्होंने कहा कि वो सभी पांडुलिपियों को आधुनिक तकनीक से संरक्षित कर देंगे और मेहताना के तौर पर हर एक पांडुलिपि की एक प्रति लेंगे। इसके लिए हम तैयार नही हुए। मगर मौलाना अब्दुल ख़ालिक़ मद्रासी साहब जुनून की हद तक संजीदगी दिखा रहे थे। हमनें जानकारियां जुटाई,तकनीकी रूप से खुद को सक्षम किया। लॉकडाऊन के दौरान ‘बिस्मिल्लाह’कर दी।
मौलाना शफ़ीक़ बताते हैं इन किताबों में यूनानी चिकित्सा, जीव जंतु, कानून ,इतिहास ,धर्म ,संस्कृति,ब्रह्मांड ,ग्रहों की रहस्य से जुड़ी जानकारी है। मौलाना शफ़ीक़ एक बेहद महत्वपूर्ण बात बताते हैं जैसे वो कहते हैं सैकड़ो किताबों को नष्ट होने के डर से सदियों से खोला ही नही गया है।
यहां सुनहरे पन्ने पर मुग़ल बादशाह औरंगजेब के हाथ का लिखा हुआ 24 वा पारा भी है। स्पेशलिस्ट एक दिन में 150- 200 पन्ने संजो रहे हैं। इन्हें स्कैन ,लेमिनेट और डिजिलाइज्ड किया जा रहा है। दारुल उलूम में एक नई लाइब्रेरी का निर्माण हुआ है। इसके बाद यह किताबे वहां शिफ्ट की जाएंगी। अब तक 1 लाख पन्ने संजोय जा चुके हैं। 50 लाख पन्नों का संरक्षण अभी बाकी है।
लाइब्रेरी के इंचार्ज मौलाना शफ़ीक़ बताते हैं कि संरक्षण करते समय ये लड़के पहले कच्ची पेन्सिल से क्रमांक डालकर पाण्डुलियों के पन्ने अलग करते हैं और फिर अपनी ट्रांसपेरेंट गोंद का लेप लगाकर इन्हें खास तरह के टिश्यू ग्लास क्लॉथ से लैमिनेट कर सुखाते है। फिर इन्हें क्रमवार सहेजा जाता है। जिल्दसाजी से पहले स्कैन करके डिजिटल रूप में सुरक्षित किया जाता है। हम यहां दुनियाभर की 20 भाषाओं में लिखी हर धर्म की किताबों के बारे में ऐसा कर रहे हैं।
दारुल उलूम की लाइब्रेरी का सालाना बजट 50 लाख रुपये है। यहां मौजूद 95 फ़ीसद किताबे हदिया में मिली है। यह बजट दारुल उलूम के बजट में शामिल है। देवबंद के समीर चौधरी बताते हैं अभी तो दुनिया यह जानती ही नहीं है कि दारुल उलूम के पास ऐसी बेशकीमती किताबें है। डिजिटल होने के बाद तो पूरी दुनिया के इल्मजगत तहलका मच जाएगा। हालात यह है कि अभी से नेशनल अर्काइवज ऑफ इंडिया ,मलेशिया ,सऊदी अरब और ईरान ने इसमे बेहद रुचि दिखाई है और मदद ऑफर की है मगर जानकारों के मुताबिक दारुल उलूम इस काम मे मदद नही चाहता है।
मौलाना शफ़ीक़ बताते हैं इन किताबों को छूने से डर लगता था जैसे ही इन्हें हाथ लगाते तो कागज़ टूट कर गिर जाता था। अब ये जिंदा हो रही है,ये बात करेंगी। इल्म की रोशनी बाहर आएगी। डिजिटल रूप में आने के बाद ये हजारों सालों तक सुरक्षित हो जायेगी। 1907 में बनी ये लाइब्रेरी भी आधुनिक हो गई है। दारुल उलूम के भीतर ही 20 करोड़ रुपये की लागत से अब एक नई लाइब्रेरी बन गई है।
इन किताबों को इसी साल यहां शिफ्ट किया जा सकता है।