Home Lead Story लॉकडाऊन: इंसानियत कराह रही थी, फ़रिश्तोंं ने अपने आग़ोश में ले ली!

लॉकडाऊन: इंसानियत कराह रही थी, फ़रिश्तोंं ने अपने आग़ोश में ले ली!

अपनी मां मधु के साथ शंशाक
लॉकडाऊन की दिल को सुकून देने वाली कहानियां-1

आस मोहम्मद कैफ ।Twocircles.net

25 मार्च से 130 करोड़ की आबादी ‘लॉक’ है।

कम से कम भारत जैसे देश मे यह विकट परिस्थितियां पैदा करने वाली बात है। विकट परिस्थिति भी है और बन भी रही है। संकट के इस समय मे कुछ लोगोंं ने अपनी उच्च स्तर की नैतिकता और चरित्रवानिता से फ़ख्र की कहानियां लिख दी हैंं। ये मध्यम दर्जे के आम लोग हैंं। मानवता और समाज के प्रति इन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी को समझा। मज़लूमों के दर्द को महसूस किया और उसे साझा किया। आम मध्यम दर्जे के सामान्य लोगोंं की तरह इनके घर मे भी वो सभी समस्याएँ है जो एक मध्यमवर्गीय परिवार में होती हैंं। ये लोग न तो नेता हैंं, न ही अभिनेता हैंं, न मशहूर खिलाड़ी है और न ही सेलिब्रिटी। ये आम लोग हैंं। आप और हमारे बीच से। इन सभी लोगोंं को हम लिख नही सकते मगर इन कुछ लोगोंं को उन सभी का प्रतिनिधित्व मान लिया जाए।

लखनऊ के 80 साल के क़ुली मुजीबुल्लाह

 80 साल के लखनऊ के रेलवे स्टेशन पर बोझा ढोने वाले मुजीबुल्लाह को प्रियंका गांधी ने चिट्ठी लिखी और कहा कि आप जैसे महान लोग भी इस दुनिया मे रहते हैं आप पर नाज़ होता है। अधिकारी और मीडियाजन जो उनसे मिलने पहुँचा उसने बेहद अदब और एहतराम के साथ उनका अभिवादन किया। स्थानीय पलायन कर रहे मजदूरों ने उन्हें ‘पीर फ़क़ीर’ और सूफ़ी संत कहना शुरू कर दिया।
लखनऊ स्टेशन पर मुजीबुल्लाह

अक्सर स्टेशन पर क़ुरान और गीता पढ़ते नज़र आने वाले इस सबसे बुजुर्ग क़ुली ने बस यह किया था कि जब 3 मई को मजदूरों को ले जाने वाली श्रमिक ट्रेन स्टेशन पर आ गई तो इन्होंने मजदूरों के बैग और बक्से कंधों पर उठे लिए और साथी क़ुलियों से भी अपील की कि इन ग़रीबों से पैसे न लिए जाएं। 80 साल के मुजीबुल्लाह जब ख़ुद अपने कंधों पर मज़दूरों का सामान लेकर चले तो मज़दूरों के साथ चल रही उनके परिवार की महिलाएं फूट-फूटकर रो पड़ींं। मुजीबुल्लाह 50 साल से लगातार स्टेशन पर है। क़ुलियों में उनकी बहुत इज्ज़त है। इसके तुरंत बाद कई क़ुलियों ने उनसे सामान लेकर अपने कंधे पर रखने की कोशिश की मगर वो नहींं माने। इसके बाद क़ुलियों ने किसी मज़दूर से उनके सामान ढोने का पैसा नही लिया।

मुजीबुल्लाह कहते हैं,  ‘हम उनसे पैसे कैसे ले सकते थे जिन्हें खुद पैसे की ज़रूरत थी। मैं 6 किमी चलकर स्टेशन आता हूँ, मेरे पास यही था जो मैं इन मज़दूरों को दे सकता था। चाहता तो मैं यह था कि इन्हें अपना कलेजा निकाल कर दे दूं। मगर मेरी इतनी ही हैसियत थी।’

मेरठ का युवक ‘शंशाक’ जो ईमान के लिए हिन्दू कट्टरपंथियों से भिड़ गया

सब्जी वालों का नाम पूछकर मारपीट की सबसे पहली घटना मेरठ के शास्त्रीनगर से सामने आई। शास्त्रीनगर मेरठ का वही इलाका है जहां से मिले सबक़ के बाद बशीर बद्र साहब को दर्दनाक शायरी करनी पड़ी। यहींं उनका घर जलाया गया था। शंशाक यहां के सेक्टर 11 में अपनी माँ और पत्नी के साथ रहते हैं वो पेशे से टरबाइन इंजीनियर है। शंशाक के घर के पास एक मुस्लिम युगल रहता था। यहां वो ही अकेला मुस्लिम परिवार था।

अप्रैल के मध्य में जब तबलीग़ जमात के ख़िलाफ़ नफ़रत अपने उरूज पर थी तो इसी शास्त्री नगर के सेक्टर 13 में कोरोना के दो मरीज़ मिल गए। इसको तत्काल साम्प्रदयिक रंग देने की क़वायद शुरू हो गई। स्थानीय स्तर पर हिंदू संगठनों से जुड़े लोगों ने अल्पसंख्यको के विरुद्ध ज़हरीली बातें करनी शुरू कर दींं। किरायेदार मुस्लिमोंं को घर ख़ाली करने के लिए कह दिया और उन पर कटाक्ष किए जाने लगे।

शंशाक शर्मा के पड़ोस में ही रहने वाले मुस्लिम परिवार के साथ भी यही हुआ। उनका उत्पीड़न किया जाना लगा। उन्हें कोरोना फैलाने वाला बताया जाना लगा। शंशाक पूरी ताक़त से इस परिवार के पक्ष में खड़े हो गए और उन्होंने कहा कि कोई भी इनके साथ बुरा बर्ताव न करें। बात बढ़ी तो शशांक ने ख़तरा उठाते हुए इस परिवार को लॉकडाऊन में ही सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने में मदद की। शंशाक बताते हैं, ‘इसके बाद मेरे घर पर भारी भीड़ आ गई। मैं घर नही था। मेरी माँ वहां थींं। उन्होंने कहा कि मेरे बेटे ने बिल्कुल सही किया। मेरे साथ मेरी मां थींं।अब मुझे कोई परवाह नही थी। मैंने यह अपने ‘ईमान’ के लिए किया। यही मेरा धर्म था। अब यह हुआ है जो नेता इस परिवार के उत्पीडन में अगुआ था उसे कोरोना हो गया है।’

अमर मोरे, लातूर: मरुड के एक साधारण इंसान का असाधारण कारनामा 

लातूर ज़िला अक्सर किसानों की समस्याओं को लेकर चर्चा में रहता है और पानी की कमी से जूझता रहता है। महाराष्ट्र के इस ज़िले में मरुड़ नाम वाले गांव में 5 हज़ार की आबादी है। इस कोरोना संकट काल में एक 27 साल के युवक अमर मोरे संकट से निपटने के लिए बेहतरीन काम किया। एक शुगर फैक्ट्री में काम करने वाले इस युवक ने इस मुश्किल समय में पूरे गांव के लिए एक कार्ययोजना पर काम किया। इसमें विधवाओं को रोजगार मिला। सीमा पर ड्यूटी कर रहे पुलिसकर्मियों को नियमित खाना मिला। 7000 से ज्यादा मास्क लोगों में मुफ़्त बांटे गए। पूरा गांव योजनाबद्ध तरीके से सेनिटाइज किया गया।

अमर मोरे

ईद के मौके पर रिसर्च कर 193 परिवारों को सेवई किट दी गई। 3500 ऐसे लोगों को जिनके पास राशन नही था। उनको ज़रूरत की चीजें पहुंचाई गईंं। ख़ाना बदोश लोगोंं को राशन पहुंचाया गया। मेडिकल सुविधाएँ दी गईंं, लगातार जागरूकता फैलाई गई। अमर मोरे कहते हैं,  ‘यह मेरे अकेला का काम नही है। मुझे एक एक समर्पित टीम का साथ मिला। हम पढ़े-लिखे लोग थे, इसलिए एक सिस्टम बनाकर व्यवस्थित तरीक़े से सब किया। कम से कम हमनें यह सुनिश्चित किया कि हमारे गांव में सब कुछ ठीक रहे।अब इसे बेहतरीन मॉडल कहा जा रहा है तो यह भी गांव वालों की ही तारीफ़ है।’