ईद की खरीदारी करके घर लौट रहा चाकुओं से गोद कर मारा गया जुनैद ,जेएनयू का गुमनामी के अंधेरे में खो गया नजीब , ‘मेरी दोष मेरी जाति है’ जैसे दर्द लिखकर जान दे देने वाला रोहित वेमुला और पुलिस कस्टडी में मार दिया गया इंजीनियर ख़्वाजा यूनुस की 17 साल सँघर्ष करने वाली मां समेत मां तो सबकी एक है। सबका दर्द एक जैसा है। सब अपने जिगर के लाल को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ रही है। लड़ाइयां लंबी हो गई है। थका देने वाली इन लंबी लड़ाइयों के दरमियाँ यह मां का ही जिगरा है कि गुप्त अंधेरे में भी उसकी औलाद की मुहब्बत उसे कमज़ोर हो चुकी उसकी हड्डियों के बाद भी हाथ पैर मारने से रोक नही पा रही है। टीसीएन इन सभी माँ से बात करके उनके दर्द को आपसे साझा कर रहा है। इस रिपोर्ट में आप जेएनयू के लापता छात्र नजीब की अम्मी फ़ातिमा नफ़ीस से रूबरू हो रहे हैं..
आस मोहम्मद कैफ़ ।Twocircles.net
“भारत जैसे बड़े देश मे हमारी जैसी तक़लीफ़ को जीने वाली हजारों मां है,वो घुट-घुट कर जी रही है। तक़लीफ़ उनकी भी हमारी तरह ही है। किसी को हमारी लड़ाई पर्सनल लग सकती है मगर यह पर्सनल है नही। इंसाफ के लिए हमारी जद्दोजहद हमारी खुद की लडाई तो है मगर वो सिर्फ हमें खुद को इंसाफ नही देगी बल्कि एक रास्ता खोल देगी जिसमे कोई और नजीब नही होगा! जुनेद नही होगा!
रोहित भी नही होगा! मुझे तो उम्मीद है कि मेरा नजीब एक दिन वापस आएगा! सायरा (जुनेद की मां) और राधिका (रोहित की मां) के पास यह उम्मीद भी तो नही है, आपने कभी किसी मां को थकते हुए नही सुना होगा,बहुत गहरी नींद में सो रही मां भी अपने बच्चे की एक करवट पर उसे दूध पिलाने के लिए उठ जाती है क्योंकि मां कभी थकती नही है और मैं भी नही थकी हूँ”
यह कहने वाली उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके के बंदायू जनपद की फ़ातिमा नफ़ीस अपने गुमशुदा बेटे नजीब की बरामदगी के अत्यधिक प्रयासों और कभी न टूटने वाली हिम्मत का प्रतीक बन चुकी हैं। आजकल वो घर है।बंदायू में यहीं उनका मायका है और ससुराल भी। बीमार शौहर की खिदमत में जुटी मुस्तक़िल (अनवरत) लगभग साढ़े चार के अपने सँघर्ष में 55 साल की फ़ातिमा नफ़ीस के तक़लीफ़ से भरे हुए चेहरे के तमाम रंग दुनिया भर ने देंखे है। हर उम्मीद के दरवाज़े को इस आम हाड़मांस की असाधारण औरत ने खड़खड़ाया है।
55 साल की फ़ातिमा नफ़ीस ने पुलिस की ज्यादतियों को झेला है। भूखी प्यासी धरने पर बैठी है। आंखों में खत्म हो चुके पानी के बाद भी वो दहाड़े मार के रोई है। उसके गले से निकली हुई चीख भले ही उसके जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटी में साइंस पढ़ने वाले उसके बेटे नजीब तक न पहुंची हो मगर इन्ही चीखों ने हर एक इंसान की छाती में एक हूक सी जरूर उठा दी है।
फ़ातिमा नफ़ीस कहती है” मेरा लाल नजीब ग़ायब नही हुआ है उसे ग़ायब किया गया है। अब देखना यह है मेरी मौत से पहले वो मुझे मिलता है या नहीं,मेरा दिल यह कभी नहीं मान सकता है कि वो इस दुनिया मे नही है।”
पांच साल पहले ग़ायब हुए नजीब के मामले में 2018 में सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट लगा दी थी। एमएससी बायोटेक्नोलॉजी के पहले साल का विद्यार्थी नजीब 15 अकटूबर 2016 को जेएनयू से ग़ायब हुआ था। नजीब की अम्मी फ़ातिमा के मुताबिक उन्हें नजीब के दोस्तों ने बताया था कि नजीब की छात्र संगठन एबीवीपी के लड़कों से कहा सुनी हुई थी जिसके बाद उसे बुरी तरह पीटा गया। अगले दिन जब वो रिपोर्ट लिखाने पहुंची और उन्होंने इन एबीवीपी के गुंडों का नाम एफआईआर में लिखने के लिए कहा तो पुलिस मुझे ऐसा नही करने दिया और वादा किया कि वो 24 घण्टे में नजीब को लाकर देंगे। फ़ातिमा कहती है कि उन्हें दिल्ली पुलिस ने गुमराह किया था ।
डायबिटीज और दूसरी कई बीमारियों से जूझ रही फ़ातिमा के पति बिस्तर से उठ नही पाते थे। परिवार कई तरह की मुश्किलों से जूझ रहा था इसके बाद नजीब को लेकर 200 से ज्यादा आंदोलन हुए। घर पर रहकर अपने बच्चों से पढ़ने वाली मां फ़ातिमा खुद की बीमारी और शौहर की तक़लीफ़ को भूलकर नजीब को तलाशने की जुस्तुजू में लग गई।
फ़ातिमा कहती है “मैं नजीब का फ़ोटो छाती से लगाकर खूब जोर से चिल्लाई मगर मेरी आवाज चौकीदार तक नही पहुंची मैंने कहना नही छोड़ा और उन्होंने सुनना शुरू नही किया,कई कई दिन मेरा गला दुखता था। दिल मे तो आज भी हवा सी भरती है। मेरा दर्द इतना है कि मैं कलेजा चीरकर नही दिखा सकती। मैं खुद पढ़ी नही थी। मैंने अपने बच्चें के दिमाग में बस पढ़ाई -पढ़ाई फ़ीड की।
वो बहुत क़ाबिल था उसने किया भी। एमएससी बायोटेक्नोलॉजी में दाखिला मिला उसे। पहले वो डोरमेंट्री में रहा फिर मैं अलग कमरे में उसके साथ रही। मैं खुश होती थी मेरा बच्चा कामयाबी की तरफ़ जा रहा था।फिर उसे नज़र लग गई! वो ग़ायब हो गया ।उस पर झूठ गढ़ लिए गए। मेरा आज भी यक़ीन है वो वापस आएगा। अब हमने पटियाला कोर्ट में पिटीशन दायर की है “
नजीब की गुमशुदगी को चर्चित बनाने में अंतरराष्ट्रीय शायर इमरान प्रतापगढ़ी की नज़्म ने अहम भूमिका निभाई है।दुनियाभर में उनकी यह नज़्म ‘सिम्बल ऑफ नजीब ‘ बन गई। इमरान बताते हैं कि मैं एक प्रोटेस्ट में नजीब की अम्मी से मिलकर लौट रहा था मैंने उस दर्द को महसूस किया, मैं नजीब की अम्मी की आवाज़ बनना चाहता था वो खुद बीमार थी। यह नज्म उनके दिल की आवाज़ थी। मैंने उनकी इस तक़लीफ़ को दुनियाभर में साझा किया।जेएनयू में जब मैंने यह पढ़ी तो नजीब की अम्मी भी वहां थी वो दहाड़े मारकर रोने लगी। मेरी जबान काँपने लगी। मैंने उनको गले से लगा लिया और कहा “अब मुझे ही नजीब समझ लेना अम्मी”।
फ़ातिमा कहती है “इमरान जैसे बच्चें ही मेरी ताक़त बने,पूरे देश की यूनिवर्सिटी के एक से एक क़ाबिल बच्चें मुझसे कहते थे अम्मी हम ही नजीब है। हम लडेंगे। सबने हिम्मत की। प्रदर्शन किया। वीडियो बनाई, शोर मचाया,ट्वीट किया मगर सरकार पर कोई फर्क नही पड़ा। उसने सुनी ही नही।सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट लगा दी और अदालत जाने के लिए एक साल में कागज़ दिए।”