Home Dalit विशेष : कांशीराम परिनिर्वाण दिवस पर एच -एल दुशाध का लेख

विशेष : कांशीराम परिनिर्वाण दिवस पर एच -एल दुशाध का लेख

जिसकी जितनी संख्या भारी : बदल सकती है राजनीतिक परिदृश्य !

एच.एल.दुसाध,Twocircle.net के लिए

चुनाव जीतने में नारे बहुत अहम् रोल अदा करते हैं, ऐसा राजनीति के तमाम पंडित ही मानते हैं. उनका मानना है कि चुनावों में उठाये जाने वाले नारे जहां एक ओर पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करते हैं, वहीं दूसरी ओर वोटरों को पार्टी के एजेंडे की झलक दिखाकर पार्टियों के पक्ष में माहौल बनाते हैं. लेकिन एक उम्दा नारा जहां पार्टी के पक्ष में जनसैलाब पैदा कर सकता है, वहीं गलत नारा पार्टी की लुटिया भी डुबो सकता है. नारे क्या कमाल दिखा सकते  हैं, इसका प्रमाण हमने हाल के वर्षों भारत और अमेरिका में देखा. 2014 में भारत में नरेंद्र मोदी ने जो ‘अच्छे दिन आएंगे’ का नारा दिया, उसमें पिछली सरकारों से हताश-निराश लोगों में उम्मीद की किरण दिखी और लोग भाजपा को वोटों से लाद दिए. साढ़े चार साल बीत जाने के बाद भी यह नारा आज भी चर्चा में है. मोदी की तरह ही 2016 में डोनाल्ड ट्रंप ने ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’(अमेरिका को फिर से महान बनाना है) का जो नारा दिया, वह मोदी के अच्छे दिन जैसा जादू किया. और अमेरिका में अश्वेतों के बढ़ते प्रभाव से हताश गोरे प्रभुवर्ग  को, जिनकी संख्या 70 प्रतिशत से ज्यादा है, ट्रंप का नारा इतना स्पर्श किया कि उन्होंने एक निहायत ही विवादित और अराजनैतिक व्यक्ति को दुनिया का सबसे शक्तिसंपन्न राष्ट्राध्यक्ष बना दिया. उस नारे के असर को ट्रंप आज भी नहीं भूले हैं, इसलिए उन्होंने 2020 के लिए यह नारा स्थिर कर लिया है- ‘अमेरिका को महान बनाये रखना है(कीप अमेरिका ग्रेट)’!

बहरहाल जो ट्रंप मोदी से खासा प्रभावित रहे हैं, उन्होंने 2020 के लिए अपना चुनावी नारा स्थिर कर लिया है,किन्तु आगामी कुछ महीनों में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में जो आम चुनाव होने जा रहा है, उसके लिए मोदी की ओर से कोई ऐसा नारा नहीं उछाला गया है,जो अच्छे दिन जैसा प्रभाव डाल सके. भारत सहित दूसरे देशों के चुनावी इतिहास के बेहतरीन से बेहतरीन नारों को भी मिलान कर सकता है. जी हां, बात जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी की हो रही है. मोदी ने अपने कार्यकाल के स्लॉग ओवर में सवर्ण आरक्षण का जो छक्का मारा था , उससे जहां एक ओर उनकी पार्टी और सवर्ण वर्ग में उत्साह का संचार हुआ, तो वहीं दूसरी ओर वंचित बहुसंख्य वर्ग में उग्र प्रतिक्रिया भी हुई. और वह प्रतिक्रिया ‘जिसकी जितनी संख्या भारी’ उसकी उतनी भागीदारी’ के रूप में सामने आई. 7 जनवरी को मोदी मंत्रिमंडल द्वारा गरीब सवर्णों को दस प्रतिशत देने की खबर आते ही सोशल मीडिया मीडिया पर जिसकी जितनी संख्या भारी का नारा  उभरने लगा और 9 जनवरी की रात राज्यसभा में सवर्ण आरक्षण का प्रस्ताव पास होते-होते, सोशल मीडिया पर इसका सैलाब पैदा हो गया. यूं तो सवर्ण आरक्षण के विरुद्ध जिसकी जितनी सख्या भारी के रूप अपनी भावना प्रकटीकरण करने के लिए सबसे पहले तो बहुजन बुद्धिजीवी सामने थे. किन्तु थोड़े से अन्तराल में ही दलित-पिछड़े समाज के नेता भी  होड़ लगाने लगे. इनमे कुछ सत्ता पक्ष के नेता रहे भी रहे. ऐसे नेताओं में पहला नाम सामाजिक न्याय की प्रखर प्रवक्ता अनुप्रिया पटेल का है. उन्होंने 8 जनवरी को, जिस दिन सवर्ण आरक्षण बिल लोकसभा में पेश हुआ, घोषणा कर दिया कि  जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी के आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए.अनुप्रिया पटेल की तरह ही तेज तर्रार राजद के तेजस्वी यादव, सपा के धर्मेन्द्र यादव सहित ने अन्य कई नेताओं ने अपने-अपने अंदाज में पुरजोर तरीके से इसकी मांग उठाया थे.

काबिले गौर है कि जिसकी जितनी संख्या भारी के जनक बसपा के संस्थापक अध्यक्ष कांशीराम रहे, जिन्होने  प्रायः चार दशक पहल वोट हमारा राज तुम्हारा..तिलक तराजू इत्यादि जैसे नारों के साथ जिसकी जितनी संख्या भारी का नारा दिया था. इसलिए यह बसपा पेटेंट नारा है, जिसका बहुजन बुद्धिजीवी तो गाहे बगाहे इस्तेमाल करते रहे ,पर गैर-बसपाई नेता पूरी तरह परहेज करते रहे. किन्तु सवर्ण आरक्षण के बाद  बुद्धिजीवियों के साथ विभिन्न बहुजनवादी दलों के नेता भी दलगत बंधन तोड़कर सोत्साह यह मांग उठाने के लिए आगे बढ़े.और जब 22 जनवरी को विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति में 13 बिंदु वाले आरक्षण रोस्टर (13 प्वाइंट रोस्टर) का मार्ग प्रशस्त हुआ, पहले से ही सवर्ण आरक्षण से आक्रोशित बहुजन बुद्धिजीवियों और नेताओं में जिसकी जितनी संख्या भारी की मांग और तीव्रतर हुई.

यदि हम स्वाधीन भारत के चुनावों में उछाले गए चर्चित नारों पर दृष्टिपात करें, तो बिना कोई खास मगजपच्ची किये हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते है कि जिसकी जितनी संख्या ..जैसा कोई प्रभावी नारा अब तक वजूद में नहीं आया. यूँ तो आजाद भारत के चुनावी इतिहास में पचासों नारों ने छाप छोड़ा ,पर उनमे सबसे खास रहे-’संसोपा ने बाँधी गाँठ ,पिछड़े पावें, सौ में साठ’, ’जय जवान ,जय किसान’, ‘गरीबी हटाओं’, ’इंदिरा हटाओं, देश बचाओ’, ’जबतक सूरज चाँद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा’, ’आधी रोटी खायेंगे,इंदिरा जी को लायेंगे’. ’राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की ये तकदीर है’, ’रामलला हम आयेंगे , मदिर वहीँ बनायेंगे’. ’सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीँ बनायेंगे ‘,  ‘तिलक ताराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’, ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्रीराम’.’सबको देखा बारी-बारी, अबकी बार अटल बिहारी’,’अच्छे दिन आएंगे’ इत्यादि –जैसे नारे. पर, जब हम जिसकी जितनी संख्या से इनकी तुलना करेंगे तो ये कहीं नहीं टिकते नजर नहीं आते.

जिसकी जितनी संख्या भारी नारे का प्रभाव सार्वदेशिक है.यह नारा प्राचीन समाजों में जितना उपयोगी हो सकता था,आज के लोकतान्त्रिक युग में भी उतना ही प्रभावी है. और जब तक मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी, का वजूद है, इसे प्रभावी रहना है. चूंकि सारी दुनिया में ही शक्ति के स्रोतों(आर्थिक,राजनीतिक,शैक्षिक और धार्मिक) का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की सृष्टि होती रही है, इसलिए लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इससे उबरने में जिसकी जितनी संख्या भारी से बेहतर कोई सूत्र हो ही नहीं सकता . लोकतंत्र का भी आदर्श अर्थ सामाजिक प्रतिनिधित्व अर्थात जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी भागीदारी ही होता है, इसलिए लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देशों ने जिस रास्ते का अवलम्बन किया, वह शक्ति के स्रोतों में जिसकी जितनी संख्या भारी –उसकी उतनी भागीदारी लागू करने का ही रास्ता रहा . इसी रास्ते ही अमेरिका ,इंग्लैंड,आस्ट्रेलिया,फ्रांस,न्यूजीलैंड,मलेशिया,दक्षिण-अफ्रीका इत्यादि ने विभिन्न वंचित नस्लीय समुदायों और महिलाओं को शक्ति के भिन्न-भिन्न स्रोतों में भागीदारी देकर आर्थिक और सामाजिक विषमता की समस्या से पार पाया एवं अपने लोकतंत्र को अनुकरणीय बनाया.

जहाँ तक भारत का सवाल है, यहाँ जैसी भीषणतम आर्थिक और सामाजिक विषमता विश्व इतिहास में शायद कही नहीं रही. आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग जैसा शक्ति के स्रोतों पर पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है. यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमे 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स इन्ही के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकाने इन्ही की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां  इन्हीं की होती हैं . देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय इन्ही के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है. संसद विधान सभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्ही का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्ही वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है. इस स्थिति को आजाद भारत, विशेषकर मोदीराज में सुपरिकल्पित रूप से बढ़ावा दिया गया, जिसकी झलक 2015 से लगातार क्रेडिट सुइसे, ऑक्सफाम इत्यादि की रिपोर्टों  मिलती रही है . मोदीराज में आर्थिक असमानता में इतना भयावह इजाफा हुआ कि थॉमस पिकेटी जैसे ढेरों अर्थशास्त्री संपदा-संसाधनों के पुनर्वितरण की बात उठाने लगे.ज्यों-ज्यों विभिन्न अर्थशास्त्री संपदा-संसाधनों के पुनर्वितरण की बात उठाते गए , त्यों-त्यों वंचितों में संख्यानुपात में भागीदारी की चाह पनपती गयी. और जब 8-22 जनवरी, 2019 के मध्य सवर्ण आरक्षण से लेकर विश्वविद्यालयों  में विभागवार आरक्षण पर मोहर लगी, जिसकी जितनी संख्या भारी की चाह एवरेस्ट से मुकाबला करने लगी है.आज भारत के  वंचितों- दलित, आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मान्तरित तबको – में जिस तरह संख्यानुपात में भागीदारी चाह पनपी है, उसका अनुमान लगते हुए यदि सामाजिक न्यायवादी दल सत्ता में आने पर सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों , सप्लाई, डीलरशिप , ठेकों, पार्किंग, फिल्म-मीडिया, एनजीओ और विज्ञापन निधि, सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकी-व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों के संचालन, प्रवेश और अध्यापन इत्यादि में अवसरों का बंटवारा भारत के प्रमुख समाजो-सवर्ण,ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात में कराने के वादे पर चुनाव में उतरते हैं   तो मीडिया, धन-बल, साधु-संत इत्यादि से लैस सवर्णवादी दल पूरी तरह हवा में उड़ जायेंगे, इसकी निर्भूल घोषणा राजनीति शास्त्र का एक अदना सा विद्यार्थी तक कर देगा.

(दलित चिंतक और राजनीतिक विश्लेषक एचएल दुशाध हाशिये पर पहुंचे समाज को राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक विकास की और ले जाने के लिए कलम से लगातार जगाने का काम करते हैं। उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी है। यह लेख उन्होंने बसपा संस्थापक कांशीराम को समर्पित किया है। उन्होंने यह लेख 2019 से पहले लिखा था मगर इसकी महत्ता को देखते हुए हम इसे अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं )