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मस्जिद में गैर मुस्लिमों को दी गई दावत,मुंबई में ट्रस्ट की पहल हमें जाने और समझे !

जिब्रानउद्दीन। Twocircles.net

इस रविवार को मुस्लिमों के प्रति बढ़ते हुए गलतफहमी और नफरतों को मिटाने के लिए मुंबई की जुमा मस्जिद बॉम्बे ट्रस्ट ने एक अनोखी पहल की। ट्रस्ट ने देश भर के गैर-मुसलमानों को मस्जिद में आने के लिए आमंत्रित किया ताकि वो इस्लाम के बारे में अपनी सारी शंकाएं दूर कर सकें। जवाब में कई गैर-मुस्लिमों ने मस्जिद में मुसलमानों से मिलकर उन्हें जानने की कोशिश की और आपसी सौहार्द को बढ़ावा देने वाले इस कदम का खूब समर्थन किया।

कुछ दिनों पहले निमंत्रण पत्र की तस्वीर सोशल मीडिया पर आते ही #visit_a_mosque हैशटैग के साथ खूब वायरल हो गई थी। निमंत्रण पत्र के बड़े अक्षरों में सबसे ऊपर लिखा गया था, “हमारी मस्जिद में आइए… हमें समझिए, हमें जानिए।” जुमा मस्जिद बॉम्बे ट्रस्ट के आधिकारिक अकाउंट से निमंत्रण पत्र को सांझा किया गया था।

ट्रस्ट के चेयरमैन शोएब खतीब ने मीडिया से बात करते हुए कार्यक्रम के पीछे का मुख्य उद्देश्य को बताया, “हमारे देश में कई धर्म के लोग रहते हैं। दुर्भाग्यवश आज के दौर में इस्लाम और मुसलमानों को लेकर यहां एक अजीब सा डर पसरा हुआ है। ऐसा समझा जाता है की इस्लाम में गलत चीजें हैं और मुसलमान सारे आतंकवादी होते हैं।” खतीब के मुताबिक दूसरे धर्म के लोगों के दिलों में जो मुस्लिमों और इस्लाम के लिए गलतफहमी है उसे खत्म करना ही उनका मुख्य लक्ष्य हैं।

खतीब ने इस्लाम को अमन और शांति का धर्म होने के बावजूद समाज में फैले इस नकारात्मकता के पीछे का कारण दूसरे मज़हब के लोगों तक इस्लाम धर्म के रहन-सहन और इबादत करने के तरीकों के बारे में कोई जानकारी नहीं पहुंच पाने को बताया। साथ ही उसका समाधान देते हुए कहा, “जब तक हम गैर-मुस्लिमों को अपनी मस्जिदों में नही बुलाएंगे और जब तक उन्हे अपने तौर-तरीक़े नही बताएंगे तब तक उन्हे पता नही चलेगा। और दूरियां बनीं रहेंगी।” रविवार के कार्यक्रम में मस्जिद में गैर-मुस्लिमों को नमाज़ और दूसरे चीज़ों के बारे में जानकारी दी गई।

“मेरे लिए ये कार्यक्रम काफी नया था” मस्जिद में आए परेश सोनी ने अपने अनुभव को मीडिया के साथ साझा करते हुए कहा, “मैं एक फाइनेंस कंपनी में काम करता हूं। मैने आजतक किसी मस्जिद में अपना पांव ही नहीं रखा था। ये मेरा पहला अनुभव है। मुझे मुस्लिमों और उनके रस्मों रिवाज के बारे में कई बातें पता चलीं। मुझे पता चला की उनकी संस्कृति क्या और असल में वो मस्जिदों में क्या करते हैं।”

कार्यक्रम में शामिल होने वाले एक दूसरे व्यक्ति केयूल जो कि पेशे से पत्रकार भी है। उन्हे फेसबुक के जरिए इस कार्यक्रम के बारे में खबर मिली थी। उन्होंने बताया “मुझे लगता है काफी जरूरी पहल है। चूंकि जिस तरह के ज़माने में हम रह रहे हैं हमें ज़रूरत है की अलग अलग आस्थाओं के लोग साथ आएं और एक दूसरे के प्रति जो गलतफहमियां हैं उन्हे दूर करें। ताकि हमारी जो एकता है वो बनी रहे।”

केयुल की तरह ही शेखर सावंत ने भी मस्जिद में बिताए अपने समय के लिए काफी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी, “मुझे बहुत अच्छा लगा क्योंकि मुझे जुमा मस्जिद के बारे में पहले से पता था लेकिन ये नही पता था की हम अंदर भी आ सकते हैं। ये काफी अच्छी जगह है। हमे यहां जानने को मिला की इस्लाम क्या है, यहां लोग क्यों आते है और क्या करते हैं। ”

पंजीकृत 50 व्यक्तियों में से एक शिव सेना नूरबाग शाखा के प्रमुख भी थें। उन्होंने आमंत्रण पर अपना आभार व्यक्त करते हुए बताया की उन्हे इतनी पुरानी मस्जिद को देखने में बहुत खुशी मिली। “जैसे आप लोगों ने मंदिर में मेडिकल कैंप लगाया था वैसे ही हमारी टीम को यहां आकर बहुत अच्छा लगा। हमारी टीम और भी लोगों से कहेंगे की वो यहां आएं और इस विरासत स्थल को जरूर देखें।” उन्होंने बताया की उनका जन्म मस्जिद के पास के ही इलाके में हुआ था उसके बावजूद उन्हें इतनी खबर नहीं थी क्योंकि उन्हें लगता था की मस्जिदों में गैर-मुस्लिमों को आने की अनुमति नहीं हैं। आपको बता दें की कोरोना काल का ध्यान रखते हुए ट्रस्ट ने सिर्फ 50 लोगों के लिए ही इस सुविधा का प्रावधान करवाया था।

ट्रस्टी डॉक्टर मुहताशिम सोलकर को कार्यक्रम के सफल होने की प्रसन्नता थी। उन्होंने बताया की उन 50 गैर-मुस्लिमों में से एक भाई ने ये शक ज़ाहिर किया था की मुसलमान मस्जिदों के अंदर हथियार रखा करते हैं फिर इस शक को दूर करने के लिए डॉक्टर मोताशीम ने मस्जिद की सारी अलमारियों को उन्हे खोल कर दिखाया। जिनके अंदर किताबों के इलावा कुछ और न मिलें। मुहताशिम ने उन्हें कहा की वो चाहे तो मस्जिद के किसी भी जगह को देख सकते हैं ताकि उन्हें पूरी तरह से तसल्ली हो जाए।

डॉक्टर मुहताशिम ने बताया की मीडिया द्वारा नफरत फैलाए जाने से काफी पूर्व ही ये पहल उन्हे ले लेना चाहिए था। “दरअसल ऐसी पहल लेने से लोगों को डर लगता है की सामने वाला इसे स्वीकार करेगा की नही। फिर समुदाय और समाज क्या सोचेगा। मुझे लगता है यही अहम समस्या है।” मुहताशिम बताते है की भले ही वो देर आएं हैं लेकिन दुरुस्त आएं हैं।