सिमरा अंसारी। TwoCircles.net
राजधानी दिल्ली में देश की एक नामी यूनिवर्सिटी के पास ही एक चाय की दुकान है। इस दुकान के बाहर चाय का इंतज़ार कर रहे छात्र देश-दुनिया की बातों में मशगूल हैं। दुकान के एक कोने में छोटे-छोटे बाल, कुर्ता-पेंट और वेस्ट कोट पहना शख्स चाय बना रहा है। इतने में आवाज़ लगती है, सलीम भाई… दो चाय और एक पैकेट नमकीन देना। दूर से अंकल जैसा दिखने वाला यह शख्स सलीम भाई नहीं, बल्कि बानो बाजी (परिवर्तित नाम) है। बानो एक लड़की है और एक बड़े परिवार का गुज़ारा चलाने के लिए उसे लड़कों जैसी वेशभूषा में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। बानो को चाय की दुकान चलाते हुए एक लंबा वक्त बीत चुका है, लेकिन उनके बहुत कम कस्टमर ही उनका यह राज़ जानते हैं। ज़्यादातर के लिए बानो की पहचान सलीम भाई की है।
बानो TwoCircles.net को बताती हैं कि वो पश्चिमी यूपी के एक रुढ़िवादी मुस्लिम परिवार से हैं। उनका परिवार करीब छह दशक पहले गांव से दिल्ली आकर बसा था। छोटी उम्र में ही उनके कंधों पर परिवार की बड़ी ज़िम्मेदारी आ गई। वो कहती हैं कि मां ने समाज की बुरी नज़र से बचाने के लिए हाईस्कूल के बाद उनकी पढ़ाई छुड़ा दी थी, लेकिन उन्हें घर की ज़रूरतों को पूरा करने और लोगों की घूरती नज़रों से बचने के लिए यह रूप रखना पड़ा। बानो के परिवार में अम्मी-अब्बू और 11 बच्चे हैं। 11 भाई-बहनों में बानो सबसे बड़ी बेटी है। वो घर के हालात देखती थी। कई दिनों तक भूखे पेट रहना पड़ता था। बाजी बताती हैं कि एक दिन भूख की वजह से छोटा भाई स्कूल में बेहोश हो गया, तब भी दूसरे भाई-बहन खामोश रहे, क्योंकि घर के बाहर किसी को भी घर की बात करने की इजाज़त नहीं थी। लेकिन भाई ने अपने टीचर को परेशानी बता दी। यह बात मां को पता चली तो वो बहुत बिगड़ी। कहने लगी कि ये हमारी परेशानी है, हमें ही सहनी है।
बानो मां को याद करते हुए कहती हैं कि मां ने हमेशा हम लोगों को सब्र करना सिखाया। खुद्दारी से ज़िंदगी जीना सिखाया। आज यही खुद्दारी हमारे काम में दिखती है। बानो ने काम करने के लिए पुरुष का गेटअप क्यों रखा ! इस सवाल के जवाब में बानो TwoCircles.net को बताती हैं, “मैंने 16 साल की उम्र से काम करना शुरू कर दिया था। कभी मज़दूरी की तो कभी नौकरी। लेकिन कभी किसी का एहसान नहीं लिया और महिला होने का फायदा भी नहीं उठाया। लोग अक्सर लड़के और लड़कियो में भेद करते हैं। यदि किसी दुकान पर लड़की को देख लें तो पूरी भीड़ आ जाती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहती थी। इसलिए अपना गेटअप लड़कों जैसा कर लिया।”
वो कहती हैं, “मेरी मां को कभी यह पहनावा पसंद नहीं रहा। मैं समझती हूं कि दीन के लिहाज़ से भी यह सही नहीं है। घर की परेशानियों, ज़िम्मेदारियों को वजह से और समाज की बुरी नज़रों से बचने के लिए मुझे ऐसा बनना पड़ा। अब यही मेरी ज़रूरत और आदत बन गई है।” बानो को अपनी मां से रहमदिली की भी सीख मिली है। उनकी दुकान पर एक सदके वाला डब्बा है। बाजी अपनी रोज़ की कमाई से हर दिन इस डब्बे में 60 रुपए डालती हैं। फिर इस रक़म को महीने या दो महीने के बाद ऐसे ज़रूरतमंद को देती हैं, जिन्हें वो जानती हैं। वो बताती हैं कि उनके सदके की ये रकम ज़्यादातर किसी ज़रूरतमंद बच्चे की पढ़ाई के लिए ही जाती है। बाजी हमेशा जरूरत मंद की मदद के लिए तैयार रहती हैं। वो बताती हैं कि लॉकडाउन के दौरान मदद की नीयत से उन्होंने दो लोगों को 60 हज़ार रुपए उधार दिए थे, लेकिन दोनों ही लोग गायब हो गए।
बानो हमेशा गरीब-मजदूरों की मदद करने में आगे रहती है। वे एक समाजसेवी संगठन से भी जुड़ी हुईं हैं, जो झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों के लिए काम करता है। दिल्ली में डीडीए के ज़रिए कई जगहों पर झुग्गी बस्ती पर बुलडोज़र चलता है। बानो इन कार्रवाई का विरोध सड़क से लेकर अदालत तक में कर चुकी हैं। बानो अपनी आय बढ़ाने के लिए दूसरे कामों जैसे प्रॉपर्टी और एक्सपोर्ट के काम में भी हाथ आज़माने की कोशिश की। वे कहती हैं कि उन्हें इन काम के लिए अच्छे सहयोगी नहीं मिले और धोखा ही खाना पड़ा। एक महिला के तौर पर बानो के लिए कई कारोबार में साथ काम करना आसान नहीं रहा।
( रिपोर्ट में सही नाम बदल दिया गया है)