जावेद अनीस
पिछले डेढ़ सालों में इस देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र के दायरे कम हुए हैं और बहुसंख्यकवाद का अहंकार सामने आया है, यह सब कुछ बहुत व्यवस्थित और शातिराना तरीके से किया जा रहा है. नरेंद्र मोदी अपने परिवार से ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंगन में पले-बढ़े और गढ़े गए हैं, वे लम्बे समय तक संघ प्रचारक की भूमिका में रहे हैं. अगर वे भाजपा में नहीं भेजे जाते तो आज संघ के बड़े नेता होते. सरकार बनने के बाद अब अकेले मोदी सत्ता में नहीं हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सत्ता के महत्वपूर्ण केंद के रूप में उभरा है, यह सब कुछ वाजपेयी दौर से बिलकुल उलट है, इस बार का समन्वय जबरदस्त है.
पिछले डेढ़ सालों में देखें तो हर छोटे–बड़े चुनाव या उपचुनाव से पहले एक पैटर्न दिखाई देता है, जिसमें संघ परिवार द्वारा नफरत और विभाजन की एक परियोजना चलायी जाती है जिसके तहत अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जाता है. इसका मकसद एक तिहाई राज्यों में भाजपा की सरकार और राज्यसभा में बहुमत लाना है जिससे देश के संविधान और लोकतान्त्रिक ढ़ांचे को अपने हिसाब से बदला जा सके.
2014 में हुए उत्तर प्रदेश में विधानसभा उपचुनावों के दौरान ‘लव जेहाद’ का मुद्दा बहुत ही मुस्तैदी से उछाला गया था. इस मामले में कितनी सच्चाई थी यह मेरठ जिले की घटना से समझा जा सकता है जिसमें एक मदरसे की हिंदू महिला टीचर का अपहरण, उसके साथ गैंगरेप को ‘लव जिहाद’ के उदाहरण के रूप में पेश किया गया था. पोल तब खुली जब लड़की ने बयान दिया कि उससे दबाव में केस कराया गया था जबकि वह मदरसा संचालक से प्यार करती है और उसके साथ ही रहना चाहती है.
इसके बाद धर्मातरण और घर वापसी को लेकर नफरत का खेल रचा गया, फिर भारत में मुसलमानों और ईसाइयों की आबादी बढ़ने को खतरे के तौर पर पेश किया गया. बिहार चुनाव से पहले गाय को विवाद का विषय बनाया गया और इस दौरान हुए दादरी काण्ड में तो केंद्र सरकार के मंत्री तक इस हत्या को जायज ठहरा रहे थे.
आने वाले दिनों में जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें से असम में भाजपा अपने लिए संभावना देख रही है इसलिए वहां का एजेंडा अभी से तय किया जा रहा है और इस काम को अंजाम दे रहे हैं खुद वहां के गवर्नर पी.बी.आचार्य. पहले उन्होंने कहा ‘हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है.’ इसके बाद उनका बयान आया कि ‘वे(मुस्लिम) कहीं भी जा सकते हैं, वे चाहे तो भारत में भी रह सकते हैं, अगर वह बांग्लादेश या पाकिस्तान जाना चाहते हैं तो वहां भी जाने के लिए आजाद हैं.’
इतना सब होने के बावजूद संगठित राजनीतिक दायरे की तरफ से कोई ठोस प्रतिरोध देखने को नहीं मिला, इस विकल्पहीनता ने निराशा और डर का माहौल पैदा कर दिया. कुछ घटनाएं उठ खड़े होने को मजबूर कर देती हैं, कन्नड़ विचारक कलबुर्गी की हत्या और गाय का मांस खाने के झूठे आरोप में अखलाक की एक संगठित भीड़ द्वारा दर्दनाक हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया और इसके खिलाफ स्वतंत्र आवाजें उठने लगीं जो बाद में मिलकर असहिष्णुता के खिलाफ प्रतिरोध की एक ऐसी मिसाल बनीं जिसके दबाव में राजनीतिक ताकतों को भी सामने आना पड़ा.
किसी भी समाज में लेखक, बुद्धिजीवी और कलाकार सबसे ज्यादा जागरूक और संवदनशील वर्ग होते हैं, शायद इसी वजह से प्रतिरोध स्वरूप बड़ी संख्या में लेखकों-बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार लौटाने शुरू कर दिए. बाद में इस मुहिम में फिल्मी हस्तियां भी शामिल हो गयीं. इसी कड़ी में मशहूर शायर मुनव्वर राना ने एक चैनल पर अपना साहित्य अकादमी अवॉर्ड यह कहते हुए लौटा दिया कि ‘मैं एक लाख का ब्लैंक चेक सरकार को देता हूं. वह चाहे तो इसे किसी अख़लाक़ को भिजवा दें, किसी कलबुर्गी, पंसारे को या किसी उस मरीज़ को जो अस्पताल में मौत का इंतज़ार कर रहा हो.” लेकिन दुर्भाग्य से उनके इस विरोध को एक भारतीय के नहीं बल्कि एक मुसलमान के विरोध पर ही तौर पर देखा गया. सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ अभियान चल पड़ा, उनके बारे में बहुत ही अश्लील और असभ्य पोस्ट लिखे गये.
टी.वी बहसों में भी संघ परिवार के प्रवक्ता यही काम करते रहे.
आमिर बॉलीवुड के पहले ‘खान’ नहीं थे, जिन्होंने इन सबपर सवाल उठाया. सबसे पहले यह काम सैफ अली खान ने किया था. याद करें लव जिहाद के गरमाए माहौल में विश्व हिन्दू परिषद की महिला शाखा दुर्गा वाहिनी की पत्रिका “हिमालय ध्वनि” के कवर पर करीना कपूर को लव जेहाद का शिकार बताते हुए उनकी एक विवादित तस्वीर कवर पेज पर छापी गयी थी जिसमें करीना का आधा चेहरा साफ दिखाई दे रहा है तो वहीं आधा चेहरा बुर्के से ढका हुआ था और उस पर लिखा हुआ था ‘धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण’. इस पर सैफ अली खान ने ‘हिन्दू-मुस्लिम विवाह जेहाद नहीं, असली भारत है’ नाम से एक लेख लिखा था. शाहरुख खान ने भी अपने 50वें जन्मदिन के मौके पर कहा था कि देश में ‘घोर असहिष्णुता’ है और वे भी ‘प्रतीकात्मक रुख’ के तौर पर अपना पुरस्कार लौटाने में नहीं हिचकेंगे, फिर क्या था इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने उन्हें ‘देशद्रोही’ बता दिया, आदित्यनाथ ने उनकी तुलना हाफ़िज़ सईद से कर डाली.
इसके बाद फिल्मी दुनिया के एक और सितारे आमिर ने भी कह दिया कि ‘मुझे लगता है देश में पिछले छह से आठ महीनों में निराशा की भावना बढ़ी है.” इसी को समझाने के लिए उन्होंने कह दिया कि ‘उनकी पत्नी (किरण राव) ने इन सबसे परेशान होकर एक दिन उनसे कहा कि क्या उन्हें विदेश में जाकर रहना चाहिए.’ आमिर ने यह भी कहा कि पत्नी ने जो कहा वह भयानक है. आमिर खान के इस बयान को गलत तरीके से पेश करते हुए यह बताया गया कि वे देश छोड़ने की बात कर रहे हैं. इसके बाद तो पूरा संघ परिवार, सरकार में बैठे लोग उन पर टूट पड़े. यहां तक कि प्रधानमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से उन पर टिप्पणी की. चैनलों और सोशल मीडिया पर उनके और दूसरे खान सितारों के विरोध में नफरत भरे संदेशों की बाढ़ आ गयी. उनकी फिल्मों को बायकाट करने की अपील की गयी. ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट स्नैपडील आमिर खान को अनइंस्टॉल करने का अभियान चलाया गया और आमिर को ब्रैंड एंबेस्डर से हटाने की मांग की गयी. बाद में आमिर भारत सरकार के ‘अतुल्य भारत’ अभियान से हटा दिए गए.
खान ब्रिगेड की कई दशकों से बॉलीवुड पर हुकूमत है और वे दर्शकों के चहेते बने हुए हैं, यही वजह है कि नफरत और विभाजन की राजनीति करने वाले हिन्दुत्ववादी संगठनों को खटकते रहे हैं. ये संगठन और उनके अनुयायी खान सितारों को उनके धर्म को लेकर पहले भी निशाने पर लेते रहे हैं. इस बार भी उन्हें बताया जा रहा है कि मुस्लिम होने के बावजूद जिस भारत ने उन्हें सितारा बनाया है, उसी को वे असहिष्णु कहते हुए एहसानफरामोशी कर रहे हैं जो कि देशद्रोह से कम नहीं है, लेकिन क्या मोदी सरकार या संघ परिवार आलोचना भारत की आलोचना हो जाती है?
चाहे साहित्य में मुनव्वर राना हों या फिल्मी दुनिया से आमिर और शाहरुख खान ये अपने क्षेत्रों में अकेले नहीं हैं जिन्होंने देश में बढती हुई असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठायी है, लेकिन जिस तरह की प्रतिक्रिया हो रही है, उनके मजहब को लेकर सवाल उठाए गये और उन्हें देशद्रोह तक कहा जा रहा है वह बहुत चिंताजनक है. यह एक ऐसा दौर है जहां फनकारों को उनका मजहब याद दिलाया जा रहा है.
मशहूर शायर निदा फाजली ने सही कहा है कि ‘असहिष्णुता फैलाने वाले लोग मुठ्ठी भर ही है.’ शायद यह वजह है कि सारे दायरों को तोड़ते हुए निदा फाजली, मुनव्वर राना की शायरी और खान सुपरस्टारों की फिल्मों को पूरा देश पसंद करता है. जहां हमारी शायरी और फिल्मों की बात आती है, वहां सारी रेखायें मिट जाती है. भारतीयता का विचार भी तो यह है जिसे हम वर्षों से जीते आये हैं आने वाले दिनों में असली लड़ाई इसे बनाये और बचाए रखने की ही है.
[जावेद अनीस स्वतंत्र पत्रकार हैं और भोपाल में उनकी रिहाईश है. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]