सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
चार राज्यों और एक केन्द्रशासित प्रदेश में चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं. असम में भाजपा ने जीत दर्ज की है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस फिर से सरकार बनाएगी. तमिलनाडु में जयललिता फिर से आ रही हैं. केरल में लेफ्ट ने सरकार बनायी है.
जिन राज्यों के चुनाव परिणाम आज आप देख रहे हैं, उनमें कांग्रेस के बरअक्स लेफ्ट या भाजपा की जीत देखना एक बड़ी भूल है. उनमें कांग्रेस की हार का सिलसिला ही आगे बढ़ता दिख रहा है. विनोद के लहजे में कहें तो भाजपा के ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का सपना भी साकार करने में कांग्रेस खुद लगी हुई है.
स्वतंत्र पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव फेसबुक पर लिखते हैं,
मितरों, सभी देशवासियों को मुबारकबाद, कि हमने बीते दो साल में किए 161 वादों में से कम से कम एक की लाज रख ली है और कांग्रेसमुक्त भारत की ओर दो कदम और बढ़ा दिया है। बाकी, कर्नाटक में अनंत कुमार लगे ही हुए हैं, अच्छी खबर कभी भी आ सकती है। उत्तराखण्ड में खरमंडल मचा ही हुआ है और हिमाचल- उसे सीबीआइ अकेले संभाल लेगी।
तो ज़ोर से बोलिए इंदिरा गांधी जि़ंदाबाद…
अभिषेक श्रीवास्तव की बात चूंकि मज़ाक के लहजे में कही गयी है, लेकिन इससे बहुत सारे समीकरण निकाले जा सकते हैं. केरल और असम में कांग्रेस का हार जाना इस बात की साफ़ निशानी है कि अन्य राज्यों की तरह ही इन राज्यों के चुनावों को भी कांग्रेस ने पूरी तरह से लापरवाही के आईने में देखा था. कांग्रेस के साथ एक पुरानी समस्या यह रही है कि वह हमेशा अपनी जीती हुई जगह को अपना गढ़ समझने की जल्दबाजी करती है. चाहे वह केंद्र हो या राज्य.
इन चुनाव के नतीजों में यह भी देखना होगा कि क्या देश में भाजपाविरोधी राजनीति मजबूत हो रही है? इन राज्यों में सिर्फ एक में भाजपा ने सफलता हासिल की है, बाकी में भाजपा की स्थिति खासी खराब है. केरल में भाजपा एक सीट ला पाने में सफल रही और पश्चिम बंगाल में भी वह औंधे मुंह गिरी रही. उत्तर प्रदेश की दो सीटों पर हुए उपचुनावों में भी भाजपा दूसरे स्थान पर रही और इन दोनों ही सीटों पर समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की. ऐसे देखें तो बंगाल में तृणमूल और लेफ्ट, तमिलनाडु में जयललिता और करूणानिधि और केरल में लेफ्ट…इन तीनों ही मोर्चों में भारत ‘कांग्रेसमुक्त’ हो गया, लेकिन किसी भी सूरत में वह ‘भाजपायुक्त’ भारत बनता नहीं नज़र आया. तो फौरी हिसाब यह है कि भाजपा की गत दक्षिण-पूर्व में सही हुई है, लेकिन वहीँ दूसरे राज्यों में अगले पांच सालों तक के लिए वह हाशिये पर ही रहेगी.
इसी दौरान उत्तर प्रदेश की दो विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव कराए गए. बिलारी और जंगीपुर की विधानसभा सीटों पर 16 मई को चुनाव कराए गए थे. बिलारी से समाजवादी पार्टी के मोहम्मद फहीम ने जीत दर्ज की तो वहीँ जंगीपुर विधानसभा सीट से किस्मतिया देवी ने भी जीत दर्ज की. इसके पहले बिलारी सीट से मोहम्मद फहीम के पिता हाजी इरफ़ान विधायक थे, जिनकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी. वहीँ दूसरी ओर जंगीपुर विधानसभा सीट से विधायक और कैबिनेट मंत्री कैलाश यादव की ब्रेन स्ट्रोक से मृत्यु हो जाने के कारण उनकी पत्नी ने यहां जीत दर्ज की. इन दोनों ही सीटों पर भाजपा दूसरे स्थान पर रही है. इन पर कांग्रेस और अन्य पार्टियां महज़ दो से चार हज़ार वोट बटोर पायी हैं. एकबानगी देखने में तो यह लग रहा है कि उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में असल जंग भाजपा और सपा में ही रहेगी. लेकिन इस पूरे मामले में बसपा की ख़ामोशी के कई समीकरण निकाले जा सकते हैं. इन दोनों ही सीटों पर बसपा ने कोई मजबूत दावेदारी नहीं पेश की थी. इसलिए इन दोनों सीटों पर बसपा की अनुपस्थिति और खराब हालत को लेकर किसी समीकरण की ओर बढना एक भूल हो सकती है.
उत्तर प्रदेश की चुनावी बहस के पहले यह जान लेना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में मौजूद पिछड़ी जातियां, दलित समूह और मुसलमान, इन तीनों ही वर्गों के बीच सपा की छवि कुछ ख़ास सहज और अच्छी नहीं है. मुजफ्फरनगर, दादरी और अब आजमगढ़ में उठे तनावों के बीच मुस्लिमों और कई मानवाधिकार संगठनों ने सपा के खिलाफ़ खुलकर बयानबाजियां की हैं. यही हाल प्रदेश की पिछड़ी जातियों का है. वे सपा को सिर्फ यादवों के रहनुमा के तौर पर देखते हैं. इस बात की पुष्टि इससे भी की जा सकती है कि हाल में ही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश सरकार को यह सलाह दी कि वे मुस्लिमों के लिए किए जाने वाले कार्यों का ब्यौरा प्रचारित और प्रसारित करें.
असम, बंगाल, केरल और तमिलनाडु के नतीजे अगले साल उत्तर प्रदेश की चुनावी दिशा तय करेंगे. दिल्ली और बिहार में मिली हार के बाद असम में भाजपा को मिली जीत के मानी भाजपा के लिए बहुत ख़ास हैं. दिल्ली में भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का ऐलान कर दिया था, लेकिन बिहार में ऐसा नहीं हुआ. फिर असम में भी भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का ऐलान कर दिया. ऐसे में असम में मिली जीत से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान करना भाजपा के लिए फायदेमंद रहा है. यूपी में भाजपा की रणनीति का अंदाज़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के हार्डकोर रवैये को देखकर पता लगाया जा सकेगा. सूत्रों के आधार पर बात करें तो अयोध्या और फैजाबाद के धार्मिक माहौल को अपना आधार बनाकर भाजपा बचे-खुचे उत्तर प्रदेश में अपनी गाड़ी आगे बढ़ा सकती है, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है.
जानकारों का कहना है कि अयोध्या में भाजपा का चुनाव प्रचार का एजेंडा देखने लायक होगा. यदि भाजपा राम मंदिर को मुद्दा बनाती है तो इससे प्रदेश में जबरदस्त ध्रुवीकरण होने के आसार हैं और भाजपा की नई-नवेली लोकतांत्रिक छवि भी मिट्टी में मिल सकती है.
जयललिता का भाग्य एक बार न्याय के तराजू में तौला जा चुका है. इस वजह से वे नीतिश कुमार की रणनीति का साथ नहीं देंगी. आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप झेल रहे मुलायम सिंह यादव ने भी शायद इसी वजह से महागठबंधन में नीतिश कुमार का साथ नहीं दिया था. और उत्तर प्रदेश में उनके अलग ही लड़ने के आसार दिख रहे हैं. बंगाल में लेफ्ट के साथ गठबंधन में शामिल कांग्रेस के हार जाने के बाद शायद बसपा और कांग्रेस का संभावित गठबंधन न हो सके. ऐसे में अगले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कई ध्रुव देखने को मिलेंगे.
नीतिश कुमार को महिलाओं का और पिछड़ी जातियों का समर्थन प्राप्त है. उन्होंने बनारस में भाजपा की स्थापना को ध्वस्त करने के लिए कदम रखा है. यहां के ज़रिए वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ आगे बढना चाहेंगे लेकिन महागठबंधन के लिए चिंता की बात यह है कि नीतिश कुमार की उत्तर प्रदेश मुहिम में अभी तक लालू यादव जुड़ते नहीं दिखाई दिए हैं. बिहार चुनाव जीतते ही लालू यादव ने कहा था कि वे बनारस में लालटेन यात्रा करेंगे लेकिन वह यात्रा अभी तक नहीं हुई है. लेकिन नीतिश कुमार ने एक चुनावी रैली को संबोधित भी कर दिया है.
दो दिनों बाद भाजपा उत्तर प्रदेश में अपना बिगुल फूंकने वाली है. बसपा ने भी ब्राह्मण वोटों के लिए सतीशचन्द्र मिश्र का सहारा लेने का निर्णय किया है. अखिलेश के हाथ में सरकार ही है और महागठबंधन अभी संघर्ष करेगा. ऐसे में कई ध्रुवों वाले इस उत्तर प्रदेश के चुनाव में आगे का रास्ता देखने के पहले अभी का चलन देखते रहना होगा.