अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
बेतिया (बिहार): बिहार के पश्चिमी चम्पारण के बेतिया शहर की सज्जाद लाईब्रेरी अपनी दुर्दशा पर रो रही है. यहां किताबों का रोना नहीं है, हक़ीक़त तो यह है कि पूरी लाईब्रेरी ही बिल्डिंग सहित ग़ायब हो गयी है. आजादी की लड़ाई के इतिहास से जुड़ी ये गायब लाईब्रेरी फिलहाल खुद सियासत की बेड़ियों में जकड़ी हुई है. मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी का रोना रोने वाले ठेकेदारों से लेकर सूबे के हुक्मरानों और तमाम बुद्धिजीवियों तक, किसी को इस लाईब्रेरी के हालात पर ग़ौर करने की फुर्सत नहीं है.
दरअसल 1937 में मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी के गठन के साथ ही बेतिया के अहम दानिश्वरों के साथ मिलकर मौलाना अबुल मुहासिन मोहम्मद सज्जाद ने इस लाईब्रेरी की स्थापना की बात की. 1939 में बेतिया के इस सज्जाद पब्लिक उर्दू लाईब्रेरी को शुरू कर दिया गया. इस लाईब्रेरी की बुनियाद डालने वालों में मौलाना असदुल्लाह महमूदी और डॉक्टर रहमतुल्लाह का नाम ख़ास तौर पर लिया जाता है. सच पूछें तो इस लाईब्रेरी का एक बेहद समृद्ध इतिहास रहा है, जो अब वक़्त के आगे बेबस होकर घुटने टेक चुका है. अफ़सोस की बात यह है कि लोकल स्तर पर किसी को भी इस लाईब्रेरी को जीवित करने का ख़्याल नहीं है.
इस लाईब्रेरी के लाईब्रेरियन रह चुके शहर के मशहूर शायर अब्दुल ख़ैर निश्तर बताते हैं कि आज़ादी से पहले ये लाईब्रेरी बुद्धिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल लोगों की वैचारिक बहसों का केंद्र हुआ करती थी. 1939 से 1964 तक यह लाईब्रेरी लगातार चलती रही. 1965 में यह लाईब्रेरी बंद हो गई. 1972 में शहर के कुछ नौजवानों ने डॉक्टर अब्दुल वहाब की सरपरस्ती में इस लाईब्रेरी को फिर से शुरू किया. उसके बाद 1995 तक यह लाईब्रेरी किसी तरह से चलती रही. 1996 में यह लाईब्रेरी पूरी तरह से ख़त्म हो गई.
अब्दुल खैर निश्तर बताते हैं कि ख़त्म होने की एक वजह यह भी है कि लाईब्रेरी के नीचे एक एक मुसाफिरखाना था. इसी मुसाफिरखाने को यहां के दुकानदारों ने अपना गोदाम बना दिया. इसी में जेनरेटर रख दिया गया. इस जेनरेटर के चलने की वजह से पूरी बिल्डिंग हिलने लगी. छत में दरार आ गयी और उससे बरसात के मौसम में पानी गिरने लगा. जिससे ज़्यादातर किताबें सड़ गयीं या उनमें दीमक लग गए.
इस लाईब्रेरी में सचिव रह चुके मजीद खान के मुताबिक़ मस्जिद कमिटी ने इस बिल्डिंग को यह कहकर तोड़ दिया कि इसे दोबारा तामीर करवाया जाएगा. लेकिन आज मुसाफ़िरखाना तो बन गया, लेकिन लाईब्रेरी अभी तक नहीं बन सकी.
बताते चलें कि इस लाईब्रेरी में तक़रीबन आठ हजार से ऊपर उर्दू, हिन्दी, पाली, फारसी व अरबी में महत्वपूर्ण किताबें थी. सैकड़ों पाण्डुलिपियां भी यहां मौजूद थीं. उस समय के तमाम मशहूर अख़बार व रिसाले जैसे सर्चलाईट, इंडियन नेशन, आर्यावर्त, सदा-ए-आम, संगम, शमा, फूल आदि इस लाईब्रेरी में आते थे. दूर-दूर से लोग यहां पढ़ने आते थे. इब्ने-सफ़ी सीरीज़ की सभी किताबें इस लाईब्रेरी में मौजूद थी. इसके अलावा जासूसी उपन्यास भरे हुए थे. लेकिन बंद होने के बाद अधिकतर किताबें सड़ गयीं. जो महत्वपूर्ण किताबें थी, शहर के बुद्धिजीवी उसे अपने घर लेकर चले गए. कई किताबें ज़मीन में दफन कर दी गयीं. कुछ किताबें अभी बगल की जंगी मस्जिद में सड़ रही हैं और उसे देखने वाला कोई नहीं है.
कारोबारियों ने पहले से ही इसकी शक्ल व सूरत तबाह करने की साज़िश तैयार कर ली थी. बाक़ायदा इस लाईब्रेरी के नीचे एक मुसाफ़िरखाने में जेनरेटर रखकर इसके नींव और दीवारों को कमज़ोर किया गया और उसके बाद इसके ख़ात्मे में कारोबारी फ़ायदा पहुंचने की गुंजाईश ढ़ूंढ़ी गई. अब फिर से इस लाईब्रेरी को ज़िन्दा करने के लिए शहर के कुछ नौजवान उठे हैं. लेकिन इन नौजवानों की शिकायत है कि इस वक़्फ़ प्रॉपर्टी के मतवल्ली अपने व्यावसायिक फ़ायदे के लिए लाईब्रेरी के दुबारा स्थापित होने में रूकावट डाल रहे हैं.
इस संबंध में जब मतवल्ली मोहम्मद रेयाजुद्दीन से बात की तो उनका कहना है कि उन्हें लाईब्रेरी बनने से उन्हें कोई समस्या नहीं है. लेकिन ज़िम्मेदारी लेने वाले लोग उन्हें यह गारंटी दें कि वो लाईब्रेरी को हमेशा चलाएंगे, क्योंकि पिछला अनुभव काफी बुरा रहा है. लाईब्रेरी कमिटी के लोगों को सैकड़ों बार कॉल करने के बाद भी उन्होंने लाईब्रेरी की किताबों के बचाने की कोई पहल नहीं की.
वहीं यहां मस्जिद कमिटी से जुड़े युवा सामाजिक कार्यकर्ता आसिफ़ इक़बाल बताते हैं कि हम सब चाहते हैं कि यह ऐतिहासिक लाईब्रेरी फिर से स्थापित हो, ताकि क़ौम के अहम दस्तावेज़ों व धरोहरों को फिर से सहेजा जा सके. वो बताते हैं कि मस्जिद कमिटी इसके तैयार है, लेकिन पुरानी लाईब्रेरी कमिटी को थोड़ा पहल करना होगा. इसके लिए एक बैठक होनी चाहिए, ताकि एक नई कमिटी का गठन किया जा सके. इस बैठक के लिए हम प्रयासरत हैं.
उन्होंने यह भी बताया कि यहां के कुछ व्यवसायी इस कोशिश में लगे हैं कि यह लाईब्रेरी न खुले, बल्कि इस जगह का व्यवसायिक कार्य में इस्तेमाल कर लिया जाए.
एक ज़माने में इल्म और तालीम के केन्द्र के रूप में मशहूर यह जगह अब व्यावसायिक नफ़े-नुक़सान की पैमाईश बन कर रह गई है. मुनाफ़ा कमाने और कारोबार बढ़ाने वाला तबक़ा यहां पर एक गोदाम की संभावना तलाश रहा है, जो उनके आर्थिक हितों की रक्षा कर सके. यहां के तथाकथित क़ौमी रहनुमाओं व सियासतदानों को इस लाईब्रेरी का इतिहास क्या, बल्कि इसका वर्तमान भी नामालूम है. कुल मिलाकर शिक्षा और इतिहास की ये महान ईबारत आंखों के सामने ही अपने ख़ात्मे की गवाह बन चुकी है.