सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी : ठीक मलदहिया चौराहे पर एक बड़ा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स तैयार हुआ है. इसमें जूतों का एक बड़ा शोरूम, कपड़ों का ऐसा शोरूम जो देखने में सर्राफ़ा की दुकान लगे, कुछेक रेस्तरां और ऐपल के महंगे सामानों का भी एक शोरूम मौजूद है. कॉम्प्लेक्स के सामने गाड़ी खड़ा करना माना है. पार्किंग में खड़ा करिए और दस से पचास रुपयों तक का मूल्य चुकाइये.
इस कॉम्प्लेक्स के ठीक सामने सड़क की दूसरी पट्टी पर एक गली अंदर जाती है. ऐसी ही सटी हुई दो तीन गलियां आसपास भी हैं. इनमें निचली जातियों के लोग रहते हैं. अधिकतर का कोई उपनाम नहीं. पूरा नाम ‘अमित’, ‘जुगनू’ या ‘ज्योति’ ही है. हम इन्हें लिखते वक़्त दलित कह लेते हैं. ऐसा हमारे लिए आसान होता है. मैं मॉल के भीतर नहीं जाता हूं, मैं सामने जाता हूं.
चुनाव को लेकर इन्हें ये नहीं पता कि देश में चुनाव कितने सालों पर होते हैं? पिछली बार जिसे वोट किया, उसने काम किया तो उसे वोट करेंगे. नहीं किया तो किसी और को. इतना-सा आसान फंडा है. यहां दोपहर में पहुंचने पर सुबह की शिफ्ट में काम करके खाली हो चुके लोग मिलते हैं. एक-के कमरों के मकान के बाहर खटिया लगाकर धूप तापते हैं. लगभग 80 प्रतिशत मकानों में बिजली ‘कटिया कनेक्शन’ से चलती है. गली साफ़-सुथरी है. मुर्गे, बकरे, बकरियां और सूअर भी लोगों के बीच दिख जाते हैं. गली के नीचे पंद्रह दिनों पहले सीवर और पानी की पाइपलाइन का काम कराया गया है, सीमेंट का पक्का जोड़ भी साफ़ दिखता है.
अमित भाई 42 साल के हैं और नगर निगम में स्थायी कर्मचारी हैं. कहते हैं, ‘ढाई साल हो गया मोदी जी को वोट दिए, काहे वोट दिए थे नहीं पता? लोग कहे थे कि बाहर से आया है, देने से सही रहेगा. काम होगा, लेकिन हुआ तो कछु नहीं. अब इस बार तय है कि हाथी को ले जाना है.’
‘हाथी’ या ‘नीला हाथी’ का मतलब साफतौर पर बसपा और मायावती से है.
अमित भाई को ऐसी कोई समस्या नहीं है. सरकारी मुलाजिम हैं. महीने में 25 हज़ार से ऊपर ही कमा लेते हैं. बिजली-पानी भी उनको सही तरीके से मिल जाता है लेकिन सरकारों को वे तुलनात्मक रूप से देखते हैं. अमित भाई कहते हैं, ‘हम लोग के लिए मोदी जी कछु नाही किए, जो भी की रहीं, मायावती ही की रहीं.’
यह इलाका शहर की कैंट विधानसभा सीट में आता है. यहां कांग्रेस को छोड़ बाकी सभी पार्टियों के प्रत्याशी तय हो चुके हैं. मोहल्ले के इस हिस्से, जिसको यहां चमार टोला के नाम से जाना जाता है, में तकरीबन 1500 वोटर हैं. इसमें 500 से ऊपर महिलाएं हैं. महिलाओं ने भी बीते लोकसभा चुनाव में मोदी को वोट दिया था. उसके पहले विधानसभा चुनावों, जिसमें वोट करने वाली कुछ ही महिलाएं ही मिल पायीं, ने भी मायावती को ही वोट दिया था. अमित भाई की दलील के साथ इन महिलाओं की सुरक्षा और गुंडागर्दी जैसी समस्याएं शामिल हैं. ज्योति कुमारी दो ही बार अब तक वोट दे सकी हैं, कहती हैं, ‘देखिए, घर का हाल तो ऐसा है कि हम आपको अन्दर तक ले जाकर दिखा सकते हैं. आपको दो बखत(वक्त) खाने का, पहनने का और ओढ़ने-बिछाने का हिसाब मिल जाएगा. ऐसा कह ही सकते हैं कि कौनो चीज का कमी नही है. लेकिन तीन साल पहले सीवान में हमारी ननद को सब गुंडा लोग छेड़ा रहा, ऊ मना कीं तो उनको मार पड़ा. का पता कि कौनो गड़बड़ काम हुआ रहा हो उनके साथ? ऐसा होता है का भईया कहीं? इसलिए हम लोग इस बारी हाथी पर बटन दबाने का मन बनाए हैं, कम से कम हाथी था तो ये सब नहीं होता था.’
इस मोहल्ले के एक आम घर के अन्दर बहुत सारी चीज़ें नहीं हैं, लेकिन एक निम्न-मध्यमवर्गीय की लगभग सभी ज़रुरत की चीज़ें मौजूद हैं. बार-बार पूछने पर भी चुनाव में आपकी कौन-सी दिक्कत हल की जाए, यहां के लोग जवाब नहीं देते हैं. खीझकर यह भी कहते हैं कि कोई दिक्कत है नहीं तो पैदा कर दें क्या? लेकिन एक दिक्कत बहुत सारी परेशानियों के बीच समझ में आती है. यहां के 18 से 35 वर्ष के बहुत सारे लोग नगर निगम में संविदा पर काम कर रहे हैं. बीते तीन से लेकर आठ सालों के बीच इन्होने निगम का काम संविदा पर पकड़ा था. आशा यह थी कि इन्हें जल्द रेगुलर किया जाएगा, लेकिन इसकी कोई भी निकट गुंजाइश नहीं दिख रही है.
22 वर्ष के अरुण बीते तीन सालों से निगम में संविदा पर काम कर रहे हैं. उन्हें 3600 रूपए प्रतिमाह मिलते हैं, यदि उन्हें स्थायी रूप से नियुक्त कर दिया जाए तो उन्हें नौकरी की सुरक्षा के साथ 22 हज़ार रूपए भी मिलने लगेंगे. अरुण कहते हैं, ‘आपको पता ही होगा कि संविदा पर काम करने के लिए भी पैसा खिलाना पड़ता है. हम तो खिला दिए लेकिन इस आशा के साथ खिलाए होंगे कि आगे रेगुलर हो जाएंगे तो सही रहेगा. लेकिन ऐसा तो होता दिख नहीं रहा है. कम से कम मायावती हम लोगों के बारे में कुछ सोचती थीं, न अखिलेश सोचे न मोदी.’
एक और समस्या जिसकी ओर ध्यान कम जाता है कि स्वच्छता अभियान के जोर पकड़ने के बाद बनारस पर ज्यादा भार पड़ा है. सफाईकर्मियों पर काम का ज्यादा बोझ पड़ा है और संविदा पर ज्यादा से ज्यादा सफाईकर्मियों की भर्ती की गयी है. ऐसे में सभी को स्थायी रूप से नियुक्त कर पाना अभी दूर की कौड़ी नज़र आती है.
मायावती के शासनकाल में कांशीराम आवास योजना के तहत जगह-जगह आवास आवंटित किए गए थे. बनारस के शिवपुर में भी कांशीराम आवास योजना के तहत लगभग 3000 परिवारों को आवास आवंटित किए गए थे. धीरे-धीरे इन तीन हज़ार परिवारों को घर मिलने के साथ यह भी आभास हो गया कि जिसने घर दिया, जिसने छत दी, वोट भी उसी को जाना चाहिए. कांशीराम आवास में रहने वाली मधु देवी कहती हैं, ‘हम लोग मोदी को वोट देकर दगा दिए थे. हम लोगों को मायावती का साथ नहीं छोड़ना चाहिए था, नतीजा चाहे जो भी हो. इस बार सब जान गया गई कि हाथी के अलावा किसी को वोट नहीं देना है.’
शिवपुर में मिले कांशीराम आवास का असर सिर्फ शिवपुर में नहीं है, शिवपुर से आठ किलोमीटर दूर यहां मलदहिया में रहने वाले लोग भी मानते हैं कि कम से कम सिर के ऊपर छत मिली है.
बहुत सारी विषमताओं के बीच यह तय होता जा रहा है कि बनारस की कम से कम शहर की बाहरी विधानसभा सीटों और शहर की एक विधानसभा सीट पर बसपा की पकड़ थोड़ी मजबूत होती जा रही है. बीते विधानसभा चुनाव में भी दलित वोटों का बंटवारा हुआ था, जिसकी वजह से सपा को बढ़त मिल गयी थी, लेकिन इस बार एक हिस्से में यह समुदाय कम से कम संगठित दिखायी दे रहा है. भाजपा के प्रत्याशियों को देखते हुए यह कयास आमतौर पर लगाए जा रहे हैं कि भाजपा ने शहर में अपने हथियार डाल दिए हैं, ऐसे में बनारस की कई सीटों पर समीकरण सपा-कांग्रेस बनाम बसपा का ही है.