दिवाकर
तमाम मत-भिन्नताओं के बावजूद नीतीश कुमार के इस बयान से असहमति की गुंजाइश कम दिखती है कि 2019 में नरेन्द्र मोदी से मुक़ाबला करने की क्षमता किसी में नहीं है और केंद्र की सत्ता पर अभी कोई दूसरा क़ाबिज़ नहीं होगा.
वैसे, दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. एक तरह से, विपक्ष के लिए 2019 आख़िरी चुनाव है क्योंकि इसके बाद पूरी राजनीतिक संरचना ही बदल जाने की आशंका ज्यादा है. इस वजह से नीतीश की बात पर ग़ौर करना ज़रूरी है.
2019 की जितनी तैयारी भारतीय जनता पार्टी कर रही है, वैसी तैयारी किसी अन्य पार्टी में नहीं दिखती. प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही मोदी हर विधानसभा चुनाव पूरी शक्ति के साथ लड़ रहे हैं और उन्हें इक्का-दुक्का छोड़कर अधिकांश राज्यों में सफलता भी मिली है.
यह शुरू से साफ़ था कि पंजाब का चुनाव भाजपा हारने के लिए लड़ रही है. बिहार के चुनाव में ज़रूर उसे शिकस्त मिली, क्योंकि वहां नीतीश-लालू प्रसाद यादव का जिस तरह का गठबंधन था, उसमें उसके लिए जीतना असंभव ही था. उस कमी को, एक तरह से, नीतीश ने पाला बदलकर भाजपा के पक्ष में कर दिया है.
आने वाले दिनों में जिन राज्यों में चुनाव हैं, कहीं भी विपक्ष थोड़ी भी मज़बूत स्थिति में है, यह कहना अभी मुश्किल लग रहा है. कमोबेश यही स्थिति लोकसभा चुनाव तक रही तो फिर मोदी के विकल्प के बारे में सोचना मुनासिब नहीं होगा.
वैसे, यह इस लेख का विषय भी नहीं है. हमारी चिंता 2019 चुनाव के बाद की स्थितियों पर होनी चाहिए. यह सिर्फ़ मोदी के राजनीतिक विरोध की बात नहीं है. उस सोच को लेकर है जिसे लेकर मोदी आगे बढ़ रहे हैं.
बात सिर्फ़ हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद, असमान विकास और बड़े काॅरपोरेट घरानों पर बढ़ती निर्भरता की नहीं है. सरकार जिस ढंग से बढ़ रही है, उससे संकेत बहुत ही दूसरे किस्म के हैं. इसलिए सोचना 2019 के बाद की स्थिति पर चाहिए.
जिन स्थितियों की ऊपर चर्चा हुई है, वही स्थिति रही और आने वाले अधिकतर राज्यों की विधानसभा चुनावों में भाजपा की सरकारें ही बनीं और मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भी इसी तरह की सरकार बनी, तो दो ऐसे क़दम उठाए जाने की संभावना है जो राजनीतिक प्रणाली के लिए दूरगामी परिणाम वाले होंगे.
भाजपा पहले से कहती रही है कि लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ होने चाहिए. अधिकांश राज्यों में अभी की तरह भाजपा शासन हुआ तो ऐसा करना आसान होगा. राज्यसभा में उसका बहुमत हो ही गया है और खाली होने वाली सीटों पर भी उसकी जीत होती ही रहेगी. तब यह फैसला लिया जाना बहुत मुश्किल नहीं होगा.
जिन राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल बचे रहेंगे, उन्हें भंग कर जब चाहे एकसाथ चुनाव कराए जा सकने में दिक्कत नहीं आएगी. बहुत ज़रूरी होने पर इसके लिए संविधान में ज़रूरी प्रावधान भी करने में भाजपा को मशक्कत नहीं करनी होगी. असली काम इसके साथ ही भाजपा कराना चाहेगी. यह बात दूसरी है कि इससे पूरी प्रणाली बदल जाएगी.
अगर आप ध्यान दें तो भाजपा देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की वकालत बहुत पहले से करती रही है. अभी वह मांग दबे-छिपे ढंग से दुबारा उठने लगी है. इसके अर्थ समझने वाले हैं. मोदी 2019 के बाद उस कैटेगरी में चले जाएंगे जिसमें सक्रिय राजनीति के लिए उन्होंने 70 साल की सीमा रेखा खींच रखी है. इसलिए उनके लिए राष्ट्रपति पद संभालने में कोई नैतिक परेशानी नहीं होगी.
अब अटल बिहारी वाजपेयी-लालकृष्ण आडवाणी वाला युग समाप्त हो चुका है. कांग्रेस समेत सभी दलों की तरह भाजपा ने भी सुप्रीमो वाली स्टाइल अपना ली है. और, इसमें किसी को कोई शक है भी नहीं कि अमित शाह भले ही भाजपा अध्यक्ष हों, मोदी ही भाजपा के सुप्रीमो हैं.
ऐसे में यह एक सवाल ज़रूर है कि भाजपा और मोदी किस तरह की राष्ट्रपति शासन प्रणाली चाहेंगे- अमेरिका वाली या चीन-रूस वाली? अमेरिका में प्रधानमंत्री-पद की गुंजाइश नहीं है जबकि चीन-रूस में वैसी व्यवस्था है. यह बात दूसरी है कि यहां भी प्रधानमंत्री-पद की शक्तियां नाम की हैं, असली शक्ति राष्ट्रपति के हाथ में ही रहती है.
रोचक यह भी है कि रूस में इस बात के उदाहरण हैं जब एक ही व्यक्ति दोनों ही पदों पर बारी-बारी से रहे हैं. देखना यह भी होगा कि राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनाए जाने के समय राष्ट्रपति के हाथ में किस तरह की शक्तियां दी जाती हैं. मोदी जिस तरह की मंशा रखते हैं और जो उनका ट्रैक रिकाॅर्ड है, उससे समझा जा सकता है कि वह किस तरह की शक्ति चाहेंगे.
इस दृष्टि से ही विपक्ष के लिए 2019 आख़िरी लोकसभा चुनाव है. इससे पहले होने वाले विधानसभाओं के चुनावों को भी उसे गंभीरता से लेना चाहिए. ऐसा नहीं हुआ तो काफ़ी कुछ बदल जाएगा और विपक्ष के लिए शायद ही कोई मौक़ा हाथ आएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)