आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
रुड़कली (मुज़फ्फरनगर) : मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में फुगाना और काकड़ा गांव के दंगों पीड़ितों ने भोपा थाना क्षेत्र के गांव रुड़कली में चार साल पहले शरण ली थी. यहां जमीयत ने उन्हें घर बनाकर दिए. बेहद बदतर हालात में बिना बिजली पानी और दूसरी सुविधाओं के ना होने से भी बड़ी बात यह थी कि यह बच्चे स्कूल नहीं जाते और इसकी वजह यह थी कि इनके परिवार के लोग स्कूल भेजे जाने का इनका खर्च उठाने में सक्षम नहीं हैं. लेकिन Twocircles.net पर इस बारे में ख़बर पढ़े जाने के बाद कुछ लोगों ने इन बच्चों को पढ़ाने में रूचि दिखाई है.
रुड़कली की दंगा पीड़ितों की इस बस्ती में 26 बच्चे ऐसे हैं, जिनके अंदर स्कूल जाने की तड़प है, मगर वो स्कूल नहीं जाते. 10 से ज़्यादा बच्चे ऐसे हैं, जिनकी उम्र 5 साल से ज्यादा हो चुकी है, मगर वो कभी स्कूल नहीं गए. यह सब इसलिए स्कूल नहीं जा पाते, क्योंकि स्कूल इनकी बस्ती से डेढ़ कि.मी. दूर है और 350 रुपए ट्रांसपॉर्ट और 500 स्कूल फीस देने की हैसियत इनमें से किसी परिवार की नहीं है. यहां इसके अलावा और कोई स्कूल भी नहीं है.
Twocircles.net ने जब इस मुद्दे पर ख़बर की तो स्कूल मैनेजमेंट में शामिल यहां के पूर्व प्रधान उस्मान ने अब इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए कहते हैं, “पहले की बात छोड़ दीजिए. अब आधी फ़ीस हम माफ़ करा देंगे.”
उस्मान वही प्रधान हैं, जिन्होंने इन दंगा पीड़ितों को रहने के लिए अपनी 3 बीघा ज़मीन दान दी थी. आसपास कोई और स्कूल नहीं है, इसलिए सरकारी प्राथमिक विद्यालय के बाद यही सबसे बड़ा विकल्प है. वैसे भी प्राथमिक विद्यालय सिर्फ़ पांचवी तक है. लेकिन मौलाना आज़ाद के नाम पर बना यह स्कूल 12वीं तक है.
दंगा पीड़ितों के इन परिवारों के मुखिया मज़दूरी करते हैं. यह पहले के गांवों में जाटों के यहां खेतो पर मजदूर थे. अब वो मुस्लिम तुर्क किसानों के यहां नौकरी करते हैं. कुछ दूसरे काम भी करते हैं, मगर वो उससे उतना ही कमा सकते हैं जितने खा सके. महंगा स्कूल इनकी हैसियत से बाहर हो गया है.
समीर वो लड़का है जो इस स्कूल में पांचवीं में पढ़ता है, मगर उसकी फ़ीस नहीं जा पा रही है. पहले बहुत से बच्चे वहां पढ़ते थे, मगर फ़ीस न दे पाने के कारण वो घर बैठ गए.
8वीं तक की पढाई कर पैसे के अभाव में पढ़ाई छोड़ने वाली रुबीना कहती है, पढ़ना एक ख्वाब की तरह होता है. कौन है जो पढ़ना नहीं चाहता. हमारा भी दिल करता है. लेकिन पैसे ना होने की वजह से पढ़ाई छूट गई है.
पढ़ाई का मतलब यहां सिर्फ़ मदरसे और मस्जिद में पढ़ना ही है. ख़ास बात यह है एक भी लड़की स्कूल नहीं जाती, ज़्यादातर मदरसे मस्जिद में पढ़ने जाती हैं. लेकिन 10 साल की उम्र के बाद लगभग हर लड़की ने पढ़ना छोड़ दिया है. बस अज़रा 5वीं में पढ़ती है. मगर वो सरकारी स्कूल में जाती है, जहां की मैडम कहती हैं कि बच्चे यहां मिड-डे मील खाने आते हैं.
एक और बात है. अज़रा का भाई अरमान तीसरी क्लास में पढ़ता है. दरअसल, बेटियों का हिस्सा काटकर उसे पढ़ाया जा रहा है. यह सुनने के बाद कि कोई है जो उनको पढ़ाना चाहता है तो हर मासूम चेहरे पर मुस्कान दौड़ती है. इससे सिर्फ़ बच्चे नहीं, उनके मां-बाप भी खुश होते हैं.