तारिक़ अनवर चम्पारणी
मैं कल तक कुछ और सोच रहा था। मगर आज थोड़ा अलग सोच रहा हूं। मीडिया द्वारा तब्लीग़ी जमाअत पर फैलाये जा रहे प्रोपगंडा पर भाजपा के बड़े नेताओं का कोई ख़ास बयान नहीं आ रहा है। बल्कि अमित मालवीय को छोड़कर किसी भी बड़े नेता ने तब्लीग़ी जमाअत के विरुद्ध एक भी बयान नहीं दिया है। उल्टा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इस प्रोपगंडा के बाद अपनी पार्टी के नेताओं को संप्रदायिक बयान देने से रोक दिया है।
मैं भाजपा के कई बड़े-बड़े नेताओं का ट्विटर हैंडल चेक कर रहा था। लेकिन तबलीग़ के विरुद्ध कोई ख़ास टिप्पणी नहीं मिली है। बल्कि मामला उल्टा निकल रहा है। इस प्रोपगंडा को सबसे अधिक हवा सेक्युलर छवि के नेता और उस ज़ेहन के लोग दे रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा रोल केजरीवाल ग्रुप निभा रहा है। आख़िर इसके पीछे का कारण क्या है?
ख़ासतौर से यूपी में जितनी भी अफवाहें फैलाई जा रही हैंं उनका खंडन यूपी पुलिस अपने ट्विटर हैंडल से लगातार कर रही है। साथ में सरकारी डॉक्टर भी इस ख़बर का खंडन कर रहे हैंं।
दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के नौजवान हिन्दू लड़कों के फेसबुक पोस्ट को लगातार फॉलो कर रहा हूं। मेरी नज़रों से कई पोस्ट गुज़री है जिसमें लड़के लिख रहे हैं कि मोदी से तब्लीग़ी जमाअत के लोग नहीं हैंडल हो रहे हैं इसलिए अमित शाह को लाया जाये। लेकिन फिर जब अमित शाह को इस पूरे एपिसोड में ढूंढ रहे हैं, तब मोदी लीड कैरेक्टर में नज़र आ रहे हैं।
अमित शाह को दरकिनार कर दिया गया है या फिर अमित शाह ख़ुद से ख़ामोश हैं। जब्कि कोरोना के बाद कि जो स्थिति बनी है वह आंतरिक सुरक्षा का मामला है और आंतरिक मामला गृह मंत्रालय के अंदर आता है। इसलिए मुझे एक बात समझ में आ रही है कि भाजपा के भीतर कुछ ऐसा चल रहा है जो स्पष्ट तो नहीं है, मग़र इस कोरोना वाले मुद्दे पर दो विचारों के बीच एक लाइन खींच चुकी है।
इस ऐलान के बाद सभी चैनलों के न्यूज़ का पैटर्न बदल जाता है मगर NDTV के स्टूडियो में और वेब पोर्टल पर आज भी तब्लीगियों को लेकर प्रोपगंडा जारी है। आख़िर ऐसा क्यों है? केजरीवाल को लेकर NDTV हमेशा पक्ष लेती रही है। ऐसे समय में केजरीवाल और NDTV का एकसाथ तब्लीग़ियों के विरुद्ध प्रोपगंडा करना बिल्कुल ही आश्चर्यचकित करने वाली घटना नहीं है। केजरीवाल की उत्पत्ति विवेकानंद फाउंडेशन से है। विवेकानंद फाउंडेशन और आरएसएस में जमीन आसमान का फ़र्क़ है। इस फाउंडेशन की शुरुआत नरसिम्हा राव सरकार में ही हो चुकी थी मगर विधिवत शुरुआत मनमोहन सिंह के सरकार में हुई थी।
आरएसएस एक वैचारिक संगठन है। फाउंडेशन का काम सरकार की नीतियों को तय करना होता है। चाहे सरकार किसी की भी रहे। पूर्व आईबी प्रमुख और वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल फाउंडेशन के संस्थापक हैं और केजरीवाल के अच्छे दोस्त भी। वहींं अजित डोभाल अचानक से निज़ामुद्दीन मरकज़ जाते हैं और पूरा प्रोपेगंडा शुरू होता है। उसके बाद केजरीवाल पूरा फॉर्म में आते हैं। इतना फॉर्म में आते हैं कि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने किसी भी प्रकार के संप्रदायिक बयान देने से अपने नेताओं को रोक दिया, मग़र केजरीवाल सरकार अपने सरकारी आंकड़ा में मरकज़ के मरीजों का अलग से आंकड़ा जारी कर रही है। यानी कि केजरीवाल समूचे भारत के लोगों को इस बात का यक़ीन दिला देंगे कि कोरोना का संक्रमण मुसलमानों के कारण फैल रहा है।
अब थोड़ा दिल्ली दंगों के समय की स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं। आख़िर दंगा केवल उसी तीन दिनों के बीच क्यों हुआ जब ट्रम्प भारत के दौरा पर थे? ट्रम्प के जाते ही दंगा कंट्रोल हो गया। मेरी व्यक्तिगत समझ है कि ट्रम्प के भारत मे रहने के कारण मोदी से अधिक गृह मंत्री के कार्यालय से प्रशासनिक ऑर्डर जारी हो रहे थे। दिल्ली दंगा के समय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में केजरीवाल के साथ गृह विभाग के अधिकारियों की बैठक हुई थी। वहां से केजरीवाल की हंसती हुई जो तस्वीर निकलकर बाहर आयी थी वह मेरे लिए बहुत ही अचंभित करने वाली थी।
मुझे उपमुख्यमंत्री सिसोदिया का वह ब्यान भी बहुत हास्यास्पद लगा था जिसमें वह दंगों में खुद को असहाय बताते हुए इसे रोकने में असमर्थता जाहिर कर रहे थे। एक राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के तौर पर भी केजरीवाल ने पुलिस कमिश्नर से पुलिस की मदद मांगा ही नहीं था। बल्कि होमगार्ड स्तर के पुलिस को इस्तेमाल करने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास भी है। फ़िर इस्तेमाल क्यों नहीं किया? दूसरी तरफ़ केंद्र सरकार से सेना के लिए किसी भी प्रकार की मदद नहीं मांगी गई थी। जबकि अजित डोभाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और केजरीवाल एक ही फाउंडेशन से निकले हुए लोग हैं।
केजरीवाल से यह भी पूछा जाना चाहिये कि जब दिल्ली सरकार के पास इतने सरकारी आवास हैंं फिर इस महामारी में आइसोलेशन और क्वारंटाइन के लिए फाइव स्टार ललित होटल किराया पर क्यों लिया गया है? दिल्ली सरकार बन्द पड़े इस होटल को टैक्स पेयर के पैसे से क्यों किराया भर रही है? क्या इसलिए कि लॉकडाउन के कारण होटल का व्यापार ठप है इसलिए सरकार होटल को किराया पर लेकर फ़ायदा पहुंचा रही है और बदले में ललित ग्रुप से पार्टी के लिए फंड लिया जायेगा या अमीरों को आइसोलेशन में रखकर पक्ष में ओपिनियन लिया जायेगा। विकास का ओपिनियन हमेशा अभिजातवर्ग ही बनाता हैंं। केजरीवाल इस बात से वाक़िफ़ है। साथ ही साथ दिल्ली दंगा और तब्लीग़ी जमाअत पर केजरीवाल का साम्प्रदायिक रुख़ स्पष्ट हो चुका है।
बहुत सारे लोग मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर योगी और अमित शाह को देख रहे हैं, लेकिन मेरा विचार थोड़ा इसके उलट है। योगी और अमित शाह की संप्रदायिक छवि जरूर है मगर उसके पास विकास का कोई प्लान या मॉडल नहीं है। अब सवाल है कि क्या केजरीवाल प्रधानमंत्री के अगले उम्मीदवार हैं? भारत में प्रधानमंत्री बनने के लिए जो दो महत्वपूर्ण चीज़ें, विकास मॉडल और संप्रदायिकता चाहिये वह दोनों उनके पास है।
विवेकानंद फाउंडेशन के लोग खूब जानते थे कि दिल्ली में भाजपा शिला दीक्षित को नहीं हरा सकती थी इसलिए एक विकल्प के तौर पर केजरीवाल को लेकर आये थे। चूंकि अब मोदी दस वर्ष पूरा कर लेंगे तब एक विकल्प पहले से तैयार चाहिये। ठीक उसी तरह से जिस तरह से मोदी को 2012 से ही तैयार किया जा रहा था। यह स्वभाविक बात है कि जब मोदी 2024 पूरा कर लेंगे तब तक भाजपा के भीतर भी वाजपेयी और आडवाणी की तरह दो गुट बन चुका होगा। कांग्रेस इतनी कमज़ोर हो चुकी है कि उसको उभारना बहुत कठिन काम है। ऐसे में केजरीवाल को विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जायेगा। इसमें जॉर्ज फ़र्नान्डिस वाला रोल प्रशांत किशोर टाइप के पॉलिटिकल कंसलटेंट निभायेंगे और उस समय की सभी छोटी-बड़ी शक्तियों को एकजुट करेंगे।
प्रशांत किशोर लगातार भाजपा विरोधी गुटों को एक करने की भी बाते कर रहे हैं और दिल्ली में आज के समय के सभी सेक्युलर सोशल/पॉलिटिकल एक्टिविस्टों की मीटिंग भी कर चुके हैं। अगर उस समय गठबंधन की स्थिति बनेगी तब केजरीवाल के नाम को आगे बढ़ाने पर विचार किया जायेगा। केजरीवाल को स्वीकारने में वामपंथी/लिबरल बुद्धिजीवियों को किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होगी। बल्कि कभी समस्या रही भी नहीं है। यह बात सभी बुद्धिजीवियों को मालूम है कि कांग्रेस के समय सबसे अधिक दंगे हुए हैं।
उदाहरण के तौर पर गोधरा से पहले कांग्रेस के दौर में गुज़रात में कई ऐसे दंगे हुए जिसकी तीव्रता और जान-माल का नुक़सान 2002 के दंगा से बहुत अधिक है। इसबात को ओरनित शानी ने अपनी किताब में दर्शाया भी है। इसके बावजूद भी लिबरल लोगों को कांग्रेस के साथ जाने में कभी दिक़्क़त नहीं हुई। यही सारे लोग जदयू, सपा और शिवसेना के भी साथ चले जाते हैं। कम्युनिस्ट और लिबरल लोग भाजपा का विरोध सिर्फ संघ के कारण करते हैं। क्योंकि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है। वरना इस्लामोफोबिया के नाम पर लिबरल, सेक्युलर और कम्युनिस्ट सभी एक ही लाइन पर होते हैं। इसलिए आप देख रहे होंगे कि तब्लीग़ी जमात वाले मुद्दे पर यह सभी लोग केजरीवाल के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चल रहे है।
कुल मिलाकर मेरा ऑब्ज़रवेशन यही है कि केजरीवाल अगले चार वर्षों में अपने आपको सांप्रदायिकता के चाशनी में डुबाकर विकास पुरुष के रूप में स्थापित करने का प्रयास करेंगे। इन दोनों की राजनीतिक महत्वकांक्षा में केवल और केवल मुसलमान को ख़ुराक़ बनाया जायेगा। अगर केजरीवाल एक बार केंद्र की सत्ता में स्थापित होते है तब तानाशाही का दूसरा रूप हमारे सामने होगा। क्योंकि मोदी आरएसएस नामक एक संगठन द्वारा स्थापित नेता है इसलिए उनका अपना एक दायरा है। मगर केजरीवाल किसी संगठन के नहीं बल्कि स्वतंत्र हैं, उनका ज़िद्दी चरित्र आगे चलकर तानाशाह बनने में मददगार होगा। उनके ज़िद्द के भी अनेक उदाहरण है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)