मऊ। नंदन घर पहुंच गया है। मऊ के उसके गांव के बाहर एक स्कूल में उसे क्वारंटीन किया गया है। नंदन रविवार की शाम को यहां पहुंचा है। उसे 14 दिन यहीं रहना है। खाना घर से आता है। नंदन कह रहा है उसकी ईद और दिवाली दोनो हो गई है। उसकी मां दूर खड़ी होकर रोती रही। वो गले से नहीं लगा पाया। थोड़ा तबियत पर ज़ोर पड़ा। कल मदर्स डे था। मैं कल ही मां से मिला। उम्मीद टूट गई थी। मेरी भाभी बता रही थी। घर मे मातम था। मां और पिता जी दोनों बुरी तरह रोते थे। छिपकर-छिपकर। कोई भी निश्चित नही था। मैं वापस आऊँगा भी नही।
पिछले चार दिन में नंदन के फ़ोन पर आज बात हुई है। नंदन कहते हैं फ़ोन की बैटरी डाऊन थी। इससे संपर्क टूटता था तो घरवालों की जान निकल जाती थी। हमनें फोन का शेडयूल बनाया था। एक दिन विष्णु अपना फ़ोन ऑन रखेगा और एक दिन अनूप। फ़ोन कहीं भी चार्ज कर नही कर सकते थे। तब भी 8 दिन में सबके फोन बंद हो गए। कल रात चार्ज किया है। पूरे आठ दिन में कल रात नींद आई।
नंदन कुमार (29) पिछले रविवार को हरिद्वार से अपने घर मऊ के लिए पैदल चल दिये थे। उनके साथ 10 और भी लड़के थे। ये सभी कामगार थे। नंदन एक फैक्ट्री में 10 हजार रुपये महीना की तनख्वाह पर काम करते थे। उनका घर और उनकी फैक्ट्री के बीच 1400 किमी की दूरी थी। पिछले दिनों उन्हें यह दूरी तय करना असंभव लगने लगा था।
नंदन बताते हैं सबसे मुश्किल काम पुलिस से बचना था। सबसे बुरा आदमी हरिद्वार में हमारा मालिक था और सबसे ज्यादा मदद मीडिया के लोगो ने की। नंदन कहते हैं”नौकरी खत्म हो गई फैक्ट्री बन्द हो गई मगर हरिद्वार में हमारा मकान मालिक किराया मांगने पर अड़ गया।हमनें बहुत निवेदन किया, हाथ जोड़े, इंसानियत की दुहाई दी, वो नही माना। वैसे मोदी-मोदी करता था मगर उनकी अपील नही सुनी। मोदी जी ने कहा था। तीन महीने तक किराया नही लेना है। उसने कहा नही दे सकते तो कमरा खाली कर दो। पैसा नही था हमारे पास।अब और क्या करते। तीन लड़के थे हम। कुल आसपास के गांव के 11 हो गए।सब के सब एक राय हुए कि पैदल चलते हैं।
हरिद्वार धर्मनगरी है। हमें किराए के पैसे न होने पर संकट के समय बाहर निकाला गया। नंदन कहते हैं सब लड़के उदास थे। सब के साथ यही हुआ था। सिर्फ मेरे साथ नही।हमारे पास जो पैसे थे उसके बिस्कुट, चने, नमकीन खरीद लिए और पैदल चल दिए। यह बहुत मुश्किल था। मगर हमें लगा हम पहुंच जाएंगे। 1400 किमी दूर से लोग यहां कांवड़ लेने आते हैं। तो हम भी जा सकते हैं। मगर मजबूरी और आस्था में अंतर होता है। यह हमें उत्तराखंड से यूपी की सीमा में घुसते ही पता चल गया। पुरकाज़ी से पहले पुलिस ने कहा वापस जाओ। हमने अपनी मजबूरी बताई उन्होंने नही सुनी। हमनें ज्यादा अनुरोध किया तो उन्होंने लाठी उठा ली। वापस तो जा नही सकते थे। कुछ स्थानीय लोगो की मदद से ऐसा रास्ता चुन लिया जहां पुलिस नही मिली।
नंदन बताते हैं सबसे बड़ी मुश्किल तो बिजनौर से पहले गंगा के किनारे आई। यहां तक चलते हुए हमें चार दिन हो गए थे। हिम्मत और ताक़त दोनों टूटने लगी थी। हम कावंड़िये नही थे। हमे न भंडारा मिला। न स्वागत हुआ। पुलिस उलटे हमें डंडा दिखा रही थी। हम क्वारंटीन सेंटर से भी बचना चाहते थे। चार किमी चलते थे तो पुलिस 8 किमी पीछे भेज देती थी। इस तरह तो हम कभी नही पहुंच सकते थे।
गंगा के किनारे एक पुलिस चौकी ने हमारे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया। हमें छुड़वाने के बहाने ट्रक में बैठाया और वो ट्रक हमें जंगल मे छोड़ गया। नंदन कहते हैं हम सब आपस मे मिल कर रोये।सब गुमसुम थे। हिम्मत टूट गई थी।उम्मीद भी। अब घरवालों से बात भी नही कर रहे थे।
शुकवार तक अब हमारे बिस्कुट,नमकीन भी नही बची, किसी को दया आती थी तो लोग खाना दे जाते थे। कहीं-कंही प्रशासन ने और पत्रकारों ने भी खाना दिया। इसके बाद यह मुद्दा बन गया। मीडिया ने खबरें दिखाई तो सरकार की चेतना जाग उठी। नंदन बताते हैं कि गंगा के एक और किनारे गढ़मुक्तेश्वर से उन्हें बस मऊ ले आई।
अपने घर आने में 1400 किमी की यह दूरी उन्होंने 8 दिन में तय की।
नंदन कहते हैं कि अब वो खुश है। अब वो काम करने कभी हरिद्वार नही जाएंगे। वहां अच्छे लोग नही रहते। मकान मालिक बहुत बुरा था।अब वो अपने घर के आसपास ही देखेंगे। नंदन अपनी आवाज़ उठाने के लिए मीडिया का शुक्रिया कहते हैं।